पिट्ठू पूंजीवाद, ‘उन्मादी विकास’ और लापरवाह शासन: विनाशकारी मोदी निजाम का बेनकाब होना

पिट्ठू पूंजीवाद, ‘उन्मादी विकास’ और लापरवाह शासन:

विनाशकारी मोदी निजाम का बेनकाब होना

गुजरात विधान सभा चुनाव के ठीक पहले विकास के गुजरात मॉडल के मोदी के प्रचार जखीरे में पलीते लगने शुरू हो गए हैं. वस्तुतः, गुजरात के अंदर से विकास का जो लोकप्रिय आख्यान उभरा है और जिसने सोशल मीडिया को अपनी चपेट में ले लिया है, वह यही है कि ‘विकास उन्मादी हो गया है.’ और सिर्फ गुजरात के लिए नहीं, यही बात शेष भारत में विकास के वर्चस्वशाली विमर्श और ढांचे के बारे में भी कही जा सकती है. यकीनन, यह कोई हाल की परिघटना नहीं है जो 2014 में मोदी की विजय के बाद से हो रही है, जब ‘गुजरात मॉडल’ की नकल देश भर में उतारने की कोशिश की जा रही थी. उन्मादी विकास उस पिट्ठू पूंजीवाद का चारित्रिक परिणाम है जिसमें तमाम संसाधन और राज्य का समस्त ध्यान लगातार मुट्ठीभर कॉपोरेशनों और (सत्ता से गहरे रिश्ते रखने वाले) ‘भाई-भतीजों’ के हितों में लगा दिए जाते हैं.

भाजपा के पूर्व वित्त मंत्रियों समेत उसके अंदर के आर्थिक सलाहकार भी पिछली लगातार छह तिमाहियों में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर में गिरावट पर चिंता जाहिर करते रहे हैं; और लगभग हर उद्योग तथा रोजगार क्षेत्र में रोजगार के नुकसान की खबरें भी आ रही हैं. वैश्विक भूख की स्थिति के बारे में अंतरराष्ट्रीय ‘फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट’ की रिपोर्ट हमें बताती है कि 119 देशों की सूची में भारत 100वें स्थान पर है. पड़ोस में नेपाल, बांगला देश और श्रीलंका भी भारत से ऊपर हैं - सिर्फ पाकिस्तान और अफगानिस्तान की हालत इससे बदतर है. इससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि 2011 से 2015 के बीच सीमांत सुधार - जब भारत का स्थान 2011 में 122 देशों के बीच 108वां था जो 2015 में 117 देशों के बीच 93वां हो गया - के बाद पिछले दो वर्षों में इसका स्थान फिर से नीचे खिसकने लगा - 2016 में (118 देशों के बीच) 97वें स्थान से गिर कर यह 2017 में (119 देशों के बीच) 100वें स्थान पर खिसक आया. वैश्विक भूख सूचकांक (जीएचआइ) में भारत को मिला 31.4 अंक इसे ‘गंभीर श्रेणी के ऊपरी सिरे’ पर धकेल देता है.

इस रिपोर्ट से ‘डिजिटल इंडिया’ और ‘मेक इन इंडिया’ की बड़बोलियों और लंबे-चौड़े दावों की चिंताजनक हकीकत भी उजागर हो जाती है. अत्यंत दुखद और शर्मनाक होते हुए भी यह तथ्य उन लोगों के लिए तनिक भी आश्चर्यजनक नहीं है, जो भारत की जमीनी सच्चाई से वाकिफ हैं. सरकारी अस्पतालों में बच्चों की मौत की परिघटना अनेक राज्यों में कड़वी हकीकत बन गई है. झारखंड में सिमडेगा से एक लड़की के भूख से मरने की दिल दहलाने वाली खबर मिली है, क्योंकि उसका राशन कार्ड ‘आधार’ से नहीं जुड़ पाया था. चिरकालिक अभावग्रस्तता -भोजन, पेयजल, साफ-सफाई और आवास का अभाव - और आधार कार्ड न रहने के नाम पर सामाजिक कल्याण सुविधाओं से बहिष्करण ने मिलजुल कर हमारी आबादी के अच्छे खासे हिस्से को चरम कुपोषण और भूख का स्थायी शिकार बना दिया है. बहरहाल, जीएचआई ही एकमात्र वैश्विक सूचकांक नहीं है जो तुलनात्मक रूप से भारत की चिंताजनक स्थिति दर्शाता है. ‘वाक फ्री फाउंडेशन’ के साथ मिलकर ‘अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन’ द्वारा प्रस्तुत विश्व दासता रिपोर्ट में भारत को शीर्ष स्थान पर रखा गया है, जहां 1.4 प्रतिशत आबादी, यानी 1 करोड़ 80 लाख लोगों को विभिन्न रूपों की गुलामी में फंसा दिखाया गया है.

इस चरम कुपोषण और भूख के साथ बेरोजगारी व अर्ध-बेरोजगारी, आवश्यक सामग्रियों व सेवाओं की आसमान छूती कीमतों तथा सार्वजनिक कल्याण पर सरकारी खर्च व निवेश के अभाव को जोड़ दीजिए, तो आपके सामने आम अवाम की जीवन-स्थितियों की एक भयावह तस्वीर खड़ी हो जाएगी. सरकारें इस अंधकारपूर्ण सच्चाई को जीडीपी वृद्धि के भ्रामक आंकड़ों के पीछे छिपाने की भरसक कोशिश करती रही हैं; लेकिन अब तो जीडीपी के आंकड़े भी कोई खुशनुमा तस्वीर नहीं पेश कर पा रहे हैं. छोटी-सी-छोटी होती जा रही अल्पसंख्या के हाथों संपदा का बढ़ता संकेंद्रण समाज के बाकी हिस्से को आर्थिक विषमता के बोझ तले खतरनाक ढंग से कराहता छोड़ दे रहा है. पेरिस स्कूल ऑफ इकॉनोमिक्स के प्रख्यात अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी और लुकास चांसल ने भारत में आर्थिक विषमता में खतरनाक वृद्धि का पता लगाया है. 1980 और 2014 के बीच भारत की शीर्षस्थ 1 प्रतिशत आबादी की सकल आमदनी में हिस्सेदारी 6 प्रतिशत से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गई. इसी अवधि में ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हो गई है; जबकि मध्यवर्ती 40 प्रतिशत आबादी (मध्यम वर्ग) की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत से गिरकर 30 प्रतिशत हो गई, और सबसे निचली 50 प्रतिशत आबादी की साझेदारी 24 प्रतिशत से कम होकर 15 प्रतिशत रह गई है.

संघ-भाजपा प्रतिष्ठान इस बढ़ते आर्थिक विनाश से निपटने का सिर्फ एक तरीका जानता है - वह है देश के अंदर सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करना. इसीलिए आश्चर्य नहीं कि भाजपा ने ‘पराई’ और ‘अ-भारतीय’ वस्तु के बतौर ताजमहल को निशाना बनाना शुरू भी कर दिया है; तथा सांप्रदायिक नफरत और उत्तर प्रदेश में विफल सरकार के शीर्ष-प्रतीक बन कर उभरे योगी आदित्यनाथ को वह केरल से लेकर गुजरात तक में भाजपा के स्टार प्रचारक के बतौर पेश कर रही है. वह उन्मादपूर्ण ढंग से केरल के कन्नूर जिले में आरएसएस और माकपा के बीच के आपसी टकराव को ‘हिंदूओं के खिलाफ मार्क्स’ का हौवा बताकर उसका राजनीतिकरण कर रही है और देश भर में हिंसक कम्युनिस्ट विरोधी मुहिम संचालित कर रही है. लेकिन अगर गुरदासपुर लोकसभा सीट या केरल में वेंगारा विधान सभा क्षेत्र के उप-चुनावों के परिणाम अथवा इस लिहाज से कहें तो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनावों के नतीजे कुछ इशारा कर रहे हैं, तो यही कि आर्थिक या प्रशासकीय शासन में अपनी नाकामी व गद्दारी को सांप्रदायिक हमलों और अंधराष्ट्रवादी जुमलों के पीछे छिपाना भाजपा के लिए उत्तरोत्तर मुश्किल होता जा रहा है. विनाशकारी मोदी मॉडल का उत्थान गुजरात से शुरू हुआ था, इसके पतन का संकेत भी गुजरात के आगामी चुनावों से ही उभरने दीजिए!