गणतंत्र दिवस 2018 का संकल्प

26 जनवरी 2018, सन् 2014 में मोदी के प्रधानमंत्री पद पर बैठने के बाद से चैथा गणतंत्र दिवस है. इस मोदी शासनकाल के दौरान आये हर गणतंत्र दिवस ने हमको अपने धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणतंत्र की संवैधानिक आधारशिला पर बढ़ते फासीवादी हमले के बारे में तीव्रता से अवगत कराया है. जब यह शासन अपनी अवधि के अंतिम चरण में पहुंच रहा है, तब संविधान पर, उसकी संरचना और कार्य-पद्धति, दोनों लिहाज से हमले केवल तीखे होते जा रहे हैं.

यह संविधान भारतीय नागरिकों को ढेर सारे मौलिक लोकतांत्रिक अधिकारों से लैस करता है, मगर वर्तमान शासन नागरिकता और राज्य के साथ नागरिक के सम्बंधों के मूलाधार को ही पुनर्परिभाषित करने को आमादा है. नागरिकता संशोधन विधेयक ने तो इसी बीच नागरिकता प्रदान करने में तथा भारतीय राज्य द्वारा शरणार्थियों के साथ कैसा व्यवहार किया जायेगा, इसका निर्धारण करने में धर्म को चोरी-छिपे घुसाकर उसे निर्णायक तत्व बना दिया है. असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर की समूची कसरत ने बड़ी तादाद में उस जनसमुदाय के बीच, जो कई दशकों से और यहां तक कि पीढ़ियों से असम में निवास कर रहे हैं, मगर अब उनको पता चल रहा है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर में उनका नाम ही नहीं मिल रहा है, भारी पैमाने पर अनिश्चयता पैदा कर दी है. नोटबंदी ने तो नागरिकों को अपना ही पैसा हासिल करने के लिये बैंकों के सामने कतार लगाकर खड़े रहने के लिये मजबूर किया था, और अब आधार कार्ड नागरिकों के सामने उनके निजता के मौलिक अधिकार के छिन जाने की चुनौती खड़ी कर रहा है, और गरीबों के भोजन और सामाजिक सुरक्षा पाने के अधिकार पर डकैती डाल रहा है.

यह सर्वविदित तथ्य है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने मनुस्मृति को ही भारतीय संविधान का आधार बनाना चाहा था. हाल ही में हमने सचमुच एक मंत्री को यह कहते सुना कि भाजपा तो संविधान को बदलने (उन्होंने मौजूदा संविधान को अम्बेडकर स्मृति का नाम दिया था) और धर्मनिरपेक्षता को अलविदा कहने के लिये ही सत्ता में आई है. आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने, खासकर संघ प्रमुख मोहन भागवत एवं कई अन्य नेतृत्वकारी बौद्धिकों ने बारम्बार घोषणा की है कि उनका मकसद भारत को 2024 तक, जब आरएसएस अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मनायेगा, हिंदू राष्ट्र में बदल देना है. नागरिक की स्थिति को पुनर्परिभाषित करने से लेकर संविधान के बुनियादी ढांचे की दिशा बदलने तक, गणतंत्र की संवैधानिक आधारशिला के सामने भाजपा द्वारा पेश किया जा रहा खतरा वास्तविक और गंभीर है.
मोदी शासन के दौरान संविधान की भावना को चोट पहुंचाना एक ऐसी कपटभरी घातक प्रक्रिया बन चुकी है, जिसमें प्रमुख संस्थाओं की तोड़-फोड़ बढ़ती ही जा रही है. सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता अपने सर्वकालिक निम्नतम स्तर पर पहुंच चुकी है. भारत के मुख्य न्यायाधीश को उनके चार वरिष्ठतम सहकर्मियों द्वारा लिखा गया पत्र, तथा न्यायिक जवाबदेही एवं सुधार अभियान (कैम्पेन फॉर जुडीशियल एकाउंटेबिलिटी एंड रिफार्म) द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के पांच वरिष्ठ न्यायाधीशों के समक्ष दाखिल की गई याचिका, जिसमें खुद भारत के मुख्य न्यायाधीश से सम्बंधित गंभीर आरोपों की जांच के लिये आंतरिक जांच किए जाने की मांग की गई है, न्यायपालिका की सत्यनिष्ठा और स्वतंत्रता के भारी मात्रा में क्षय की ओर इशारा करते हैं.

गुजरात चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की भूमिका, और अब दिल्ली में चुनाव आयोग द्वारा थोक भाव में ‘आप’ के 20 विधायकों को पद के अयोग्य ठहराने का आदेश, इन दोनों ने चुनाव आयोग की निष्पक्षता के बारे में गंभीर सवाल खड़े कर दिये हैं. इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) की खराबी और धोखाधड़ी ने चुनाव प्रक्रिया की विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया है. और अब ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के नारे के तहत लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने की चीख-पुकार भारत में संघवाद और बहुदलीय लोकतंत्र की मूल भावना को ही चुनौती दे रही है. और मीडिया, जो लोकतंत्र का चौथा खंभा या चौथे प्रतिनिधि के नाम से मशहूर है, अभूतपूर्व बैरकबंदी का शिकार है. जहां पत्रकारों की हत्या हो रही है और अगर वे अपना काम भलीभांति करते हैं तो उनके ऊपर मानहानि और राजद्रोह के मुकदमे ठोके जा रहे हैं, वहीं लोगों को जानकारी साझा करने और हासिल करने से रोकने के लिये इंटरनेट को बार-बार बंद कर दिया जा रहा है, और अधिकांश टीवी चैनल एवं बड़े अखबार खुद अपने ऊपर सेंसरशिप ओढ़ ले रहे हैं और सत्ताधारियों के प्रचार तंत्र की तरह व्यवहार कर रहे हैं - ऐसी स्थिति में भारत में आज मीडिया दुनिया में सबसे ज्यादा पराधीन हो गया है.

भारत का संविधान ग्रहण करने की पूर्ववेला में डा. अम्बेडकर ने हमें इसमें निहित अंतर्विरोधों और कमजोरियों के बारे में भी चेतावनी दी थी. उन्होंने बताया था कि एक ओर ‘एक व्यक्ति एक वोट’ के उसूल में संहिताबद्ध सतही राजनीतिक समानता और दूसरी ओर सामाजिक आर्थिक क्षेत्रों का नियंत्रण करने वाली भारी असमानता - इन दोनों के बीच बुनियादी अंतर्विरोध मौजूद है. मोदी सरकार के शासनकाल में असमानता छलांग लगाकर आगे बढ़ रही है. मोदी शासन के चार वर्षों के दौरान भारत के सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों की आय 2014 में 49 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 73 प्रतिशत हो गई है! इधर मुठ्ठी भर अरबपति भारत की जनता और उसके प्राकृतिक एवं वित्तीय संसाधनों को लूटकर सम्पत्ति का ढेर जमाते जा रहे हैं, उधर मोदी इस श्रेय का दावा ठोक रहे हैं कि उन्होंने युवा भारत के लिये पकौड़ा बेचकर 200 रुपये प्रतिदिन कमाना सम्भव कर दिया है.अम्बेडकर ने हमें भारत की उस अलोकतांत्रिक जमीन के खिलाफ सतर्क किया था जो ऊपर-ऊपर लोकतांत्रिक ‘उर्वर मिट्टी की परत’ चढ़ा दिये जाने के खिलाफ शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाती है. मोदी के शासनकाल में उस अलोकतांत्रिक जमीन को ही राज्य के संरक्षण में बेरोकटोक सजामाफी के रूप में सुनियोजित ढंग से अपना खाद-पानी देकर उपजाऊ बनाया जा रहा है. ‘कानून-व्यवस्था’ बरकरार रखने का कार्यभार अब क्रमशः ज्यादा से ज्यादा भांति-भांति के गुंडा गिरोहों के हवाले किया जा रहा है जो गौरक्षा के नाम पर या ‘लव जिहाद’ को रोकने के नाम पर जहां मन आया हत्या कर देते हैं, और धमकी देते हैं कि वे जिस फिल्म को नापसंद करते हैं अगर उसे सार्वजनिक तौर पर दिखाया जाता है तो वे राष्ट्र को तोड़ देंगे!

अब वक्त आ गया है कि ‘हम भारत के लोग’ एक बार फिर गणतंत्र पर अपना अधिकार हासिल करने के लिये उठ खड़े हों और लूट, झूठ और नफरत की ताकतों को भारत को तहस-नहस करने से रोकें.