मंगलौर के बंदरगाह मजदूरों की शानदार जीत

मंगलौर पोर्ट ट्रस्ट के मजदूरों द्वारा नौ दिन तक चली ऐतिहासिक हड़ताल के बाद आखिर श्रमायुक्त के हस्तक्षेप से न्यू मंगलौर पोर्ट ट्रस्ट (एनएमपीटी) ने स्वीकार किया है कि वह शिपिंग कम्पनियों को वेतन, कल्याण एवं अन्य वैधनिक आवश्यकताओं के मामले में श्रम कानूनों का पालन करने का निर्देश देगा. समझौते में स्टीवडोर्स की 19 कम्पनियों, सी एंड एफ एजेंटों और शिपिंग कम्पनियों ने मजदूरों की मांगों को स्वीकार कर लिया है. इस समझौते के बाद मजदूरों ने 6 फरवरी 2018 को सामयिक रूप से 9 दिन लंबी चली हड़ताल समाप्त कर दी है, क्योंकि समझौते का अनुपालन अगले 60 दिनों के अंदर करने का वादा किया गया है.

यह आंदोलन जनवरी के मध्य से ही चल रहा था. 17 जनवरी 2018 को ऐक्टू और एआइपीडब्लूएफ (ऑल इंडिया पोर्ट वर्कर्स फेडरेशन) के नेतृत्व में मजदूरों ने शिपिंग कम्पनियों के खिलाफ एक सफल प्रतिवाद संगठित किया था. इसकी अनुमति न मिलने के बावजूद पुलिस और पोर्ट अधिकारियों को धता बताते हुए यह प्रतिवाद आयोजित किया गया था. एनएमपीटी के सामने प्रतिवादकारियों ने नारे लगाए और आगामी 29 जनवरी को शिपिंग मजदूरों की हड़ताल की तैयारी को लेकर एक आम सभा भी की. यह प्रतिवाद काफी जोशीला था जिसमें सत्ता के खिलाफ मजदूरों का संकल्प दिख रहा था.

ऐक्टू और ऑल इंडिया पोर्ट वर्कर्स फेडरेशन के नेतृत्व में शिपिंग कंपनियों के मजदूरों ने 29 जनवरी से अपनी अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी जिससे बंदरगाह का कामकाज लगभग पूरी तरह ठप पड़ गया. ये मजदूर बंदरगाह के मुख्य द्वार पर इकट्ठा हुए और एनएमपीटी चेयरमैन कार्यालय की ओर आगे बढ़े ताकि वे इसमें हस्तक्षेप करें और मजदूरों की मांगें पूरी करें. इसके पहले 22 जनवरी को संबंधित अधिकारियों को मांगपत्र सौंपने के लिए फेडरेशन की ओर से बाइक रैली निकाली गई थी. ट्रेड यूनियन अधिकार, मजदूरी और मानवीय कार्य-स्थितियां हासिल करने के लिए बंदरगाह मजदूर पिछले कुछ वर्षों से एआइपीडब्लूएफ के झंडे तले गोलबंद हो रहे हैं. यह हड़ताल उनके दृढ़ संकल्प और एकजुटता की अभिव्यक्ति है.

हड़ताल को सम्बोधित करते हुए फेडरेशन के अध्यक्ष वी. शंकर ने कहा कि यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि श्रम कानूनों के क्रियान्वयन के लिए हड़ताल करनी पड़ी है, क्योंकि एक ओर तो नियोजक काफी क्रूर हैं और दूसरी ओर मंगलोर बंदरगाह से जुड़ा शिकायत निवारण तंत्र पूर्णतः नकारा और निष्क्रिय है. एनएमपीटी के ठीक नाक तले अर्ध-दासता अथवा अर्ध-बंधुआ स्थिति मौजूद है और कानूनों को लागू कराने के लिए कोई तंत्र भी नहीं है. मजदूरों की मांग है कि न्यू मंगलोर पोर्ट में शिपिंग कंपनी में कार्यरत सभी श्रमिकों की मजदूरी और सेवा शर्तों को दुरुस्त किया जाए; इसके लिए त्रि-वर्षीय समझौता किया जाए; और एनएमपीटी को श्रम कानूनों के क्रियान्वयन की निगरानी करनी चाहिए और इसका उल्लंघन होने पर चेयरमैन उस
कंपनी का लायसेंस रद्द कर दें.

हड़ताल के चलते लक्षद्वीप और खाड़ी के देशों पर असर पड़ा, क्योंकि उनको आवश्यक सामग्री नहीं मिल पाई. स्थानीय फिशनेट कम्पनियां, जैसे बालिगा फिशनेट, गडरी मैरीन एक्सपोर्टस, कैम्पको चॉकलेट फैक्टरी आदि भी बुरी तरह प्रभावित हुईं और उनमें सैकड़ों मजदूरों को छुट्टी दे दी गई.

यह पिछले चालीस वर्षों में न्यू मंगलौर पोर्ट ट्रस्ट या देश के किसी भी अन्य बंदरगाह में इस तबके के मजदूरों द्वारा की गई पहली हड़ताल है. इससे पहले तूतीकोरिन बंदरगाह में 5 दिनों की सफल हड़ताल की जा चुकी है, मगर वह पोर्ट ट्रस्ट के खिलाफ थी, नियोक्ता कम्पनियों के खिलाफ नहीं, इसलिये नियोक्ता कम्पनियां निष्क्रिय रही थीं. यहां तो श्रम और पूंजी के बीच सीधी लड़ाई हो रही है. जहां एनएमपीटी कर्मचारियों की बीएमएस समेत कुछ स्थापित यूनियनें बंदरगाह में हमारे प्रवेश को रोकने की जीजान से कोशिशें कर रही हैं वहीं प्रबंधन खुलेआम पैरवी कर रहे हैं कि मजदूर एआईपीडब्लूएफ या एआईसीसीटीयू को त्यागकर इन स्थापित यूनियनों में शामिल हो जायें.

इस हड़ताल में कंटेनर ड्राइवरों और अन्य किस्म के मजदूरों के बीच एकता हासिल हुई है, जिसे पहले असंभव माना जा रहा था. हमारा सामना बंदरगाह में कार्यरत 19 शिपिंग कम्पनियों से है जिनका मालिकाना या तो अंडरवल्र्ड माफिया और भाजपा के पूर्व मंत्रियों जैसे लंपट राजनीतिज्ञों के हाथ में है या संरक्षण प्राप्त है. यहां हिंदू मालिक और मुस्लिम मालिकों के बीच कोई फर्क नहीं होता, यह मजदूरों को साफ दिख रहा है. यहां साम्प्रदायिक आधार पर मजदूरों को बांटने की प्रबंधन की कोशिशों का सफलतापूर्वक प्रतिरोध किया गया है. जिन मजदूरों ने मोदी को वोट दिया था और मई दिवस के परचे को फेंक दिया था, या मोदी-विरोधी, भाजपा-विरोधी भाषणों पर सभा से उठकर चले गये थे, वे सभी इस हड़ताल में यूनियन के साथ डटे रहे.

5 फरवरी तक पोर्ट ट्रस्ट का चेयरमैन प्रदर्शनकारियों से मिलने को तैयार नहीं था, उसने यूनियन के स्मारपत्र को खारिज कर दिया था जिसमें नियोजकों के खिलाफ चल रही हड़ताल में हस्तक्षेप करने और मसले को सुलझाने का आग्रह किया गया था. लगता था जैसे वह नियोजकों के पक्ष में खड़ा हो.

एआईसीसीटीयू ने केन्द्रीय स्तर से श्रम मंत्रालय से आग्रह किया कि वे मंगलौर के अतिरिक्त श्रमायुक्त, जो आंदोलनकारियों से मिलना नहीं चाहते, के खिलाफ कर्नाटक के मुख्य श्रमायुक्त को हस्तक्षेप करने का निर्देश दें. तब हड़ताल के नवें दिन 6 फरवरी 2018 को उप मुख्य श्रमायुक्त (केन्द्रीय) श्री सुब्रह्मण्यम ने सुलह के लिये नियोक्ताओं और एआईपीडब्लूएफ के बीच बैठक बुलाई. पूरे दिन चली बैठक के बाद नियोक्ताओं ने मजदूरों की मांगों को स्वीकार किया और इस पूरी बात को उप मुख्य श्रमायुक्त द्वारा मीटिंग के मिनट्स के बतौर रिकार्ड किया गया. समझौता इस बात पर हुआ है कि 60 दिन के अंदर औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 12 (3) के तहत मेमोरेंडम ऑफ सेटलमेंट बनाने के लिये समझौते की प्रक्रिया चलेगी. इस समझौते के बाद उप मुख्य श्रमायुक्त (केन्द्रीय) की सलाह पर और 15 नियोक्ताओं के अनुरोध पर 19 कम्पनियों के मजदूरों की जनरल बाॅडी मीटिंग में हड़ताल सामयिक रूप से समाप्त करने और 8 फरवरी से काम पर जाने का ऐलान किया गया.

समझौते में तय हुआ है कि 1) कुछेक कम्पनियों द्वारा वेतन की पर्ची को जारी किया जाता है, अब सभी कम्पनियों को ऐसा करना होगा. 2) वेतन का भुगतान बैंक के जरिये किया जायेगा. 3) हर कम्पनी में पहले से चली आ रही प्रथा के अनुसार हर वर्ष अप्रैल के महीने में तथा आयुध पूजा के दौरान वेतन में में वृद्धि की जायेगी. 4) लागू होने योग्य सभी श्रम कानूनों और वैधानिक प्रावधानों को कड़ाई से लागू किया जायेगा, जिसमें ईएसआई और प्राॅविडेंट फंड शामिल हैं, और इस मामले में लागू होने योग्य नियमों और विनियमों का कड़ाई से अनुसरण किया जायेगा. 5) वेतन के मौजूदा ढांचों का अध्ययन करने और इस मामले में उपयुक्त कार्यवाही करने के लिये 60 दिनों की अवधि तय की गई है. 6) उसूल के तौर पर सभी नियोजक मजदूरों की शिकायतों को सुनने और उनका समाधान करने के लिये मजदूर प्रतिनिधियों से मुलाकात करेंगे.

सुलह बैठक समाप्त होने के बाद उप मुख्य श्रमायुक्त ने वार्ता के सभी पक्षों के लिये लिखित एडवाइजरी जारी की, जिसमें उन्होंने न्यू मंगलौर पोर्ट ट्रस्ट के प्रबंधन को कहा कि वह इन नियोक्ताओं समेत बंदरगाह में कार्यरत सभी एजेन्सियों और कम्पनियों को निर्देश जारी करे कि श्रमिकों के कल्याण, वेतन एवं अन्य वैधानिक आवश्यकताओं के मामले में श्रम कानूनों का कड़ाई से पालन करे.

लिखित एडवाइजरी में मजदूरों के खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई न करने या उनकी कार्यस्थितियों को न बिगाड़ने या उनके हितों के खिलाफ कोई कदम न उठाने की सलाह दी गई है. कुछेक कम्पनियों द्वारा कुछेक मजदूरों को जारी की गई नोटिसों को वापस लेने और मजदूरों के खिलाफ दायर किये गये तमाम मुकदमों को वापस लेने का भी परामर्श दिया गया है. अब यह कम्पनी प्रबंधनों और एनएमपीटी की बारी है कि वे हजारों मजदूरों और उनके परिवारों की जीवन-स्थितियों को सुधारें और तमाम श्रम कानूनों का सख्ती से पालन करें तथा 60 दिनों के अंदर तीन वर्ष के लिये मेमोरेंडम ऑफ सेटलमेंट तैयार कर लें.

यह मंगलौर के बंदरगाह मजदूरों की ऐतिहासिक जीत है. यह मजदूरों के उस हिस्से की जीत है जिसे केन्द्र में सत्तारूढ़ तमाम सरकारों द्वारा लागू की गई जन-विरोधी नव-उदारवादी नीतियों ने जन्म दिया है. अब भाजपा और मोदी के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार का कर्तव्य है कि वह इन मुद्दों का गंभीरता से समाधान करे और देश के बंदरगाहों में काम कर रहे इस कोटि के दसियों हजार मजदूरों की जीवन स्थितियों में सुधार लाये. एआईसीसीटीयू और एआईपीडब्लूएफ ने बंदरगाह मजदूरों के इस संघर्ष का समर्थन करने वाले सभी लोगों को और मंगलौर के मीडिया को भी धन्यवाद दिया है.

कौन है जिम्मेदार?

न्यायालय के निम्नलिखत कानूनों और व्याख्याओं को देखने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मजदूरों के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मदारी किसकी हैः

न्यू मैंगलौर पोर्ट ट्रस्ट (लाइसेंसिंग ऑफ स्टीवडोर्स) नियमन 2009 की धारा 8 (ए) से यह स्पष्ट हो जाता है कि पोर्ट से संबंधित गतिविधियों में लगे हुए मजदूरों से संबंधित सभी श्रम कानूनों को लागू करने की जिम्मदारी पोर्ट की है. इसलिये, सार्वजनिक सभाओं और किसी भी रूप में विरोध को मंजूरी न देना पोर्ट की गतिविधियों में लगे मजदूरों के लोकतांत्रिक अधिकारों का उल्लंघन है.

आईडी ऐक्ट, 1947 के अनुसार बड़े पोर्ट से संबंधित गतिविधियों, चाहे वो परिसर के भीतर हों या बाहर, चाहे पोर्ट ट्रस्ट द्वारा हों या किसी अन्य निजी कंपनी द्वारा, भारत सरकार ही उसके लिए जिम्मेदार ”उपयुक्त सरकार” है. इसलिए, केन्द्र सरकार को पोर्ट से संबंधित गतिविधियों में किसी भी रूप में संलग्न सभी मजदूरों के लिए श्रम कानूनों को लागू करने में केन्द्रीय श्रम विभाग को सक्रिय भूमिका निभाने के लिए निर्देशित करना चाहिए.

एनएमपीटीई (क्लासिफिकेशन, कंट्रोल और अपील) नियमन 1980 (20.11.2007 तक संशोधित) इस तरह परिभाषित करता है कि, ”कर्मचारी” का अर्थ ”कोई भी व्यक्ति....जिसकी सेवाएं अस्थाई तौर पर एनएमपीटी के अधिकार में दी गई हैं.” इसलिए यह जाहिर हो जाता है कि इस परिभाषा में ”कोई भी कर्मचारी” शामिल है, जिसमें शिपिंग कम्पनियों, स्टीवडोरिंग कम्पनियों और सी एंड एफ एजेंटस के कर्मचारी भी शामिल हैं. एनएमपीटी सिर्फ सीधे एनएमपीटी में नौकरी करने वाले कर्मचारियों, लाइसेंसी मजदूरों और ठेका मजदूरों के लिए ही नहीं, बल्कि हर उस मजदूर के लिए भी जिम्मेदार है जो किसी भी तरह से पोर्ट से संबंधित काम में जुड़ा है.

एक अन्य आदेश कहता है, ”हम सार्वजनिक क्षेत्र के कोरपोरेशन से ये अपेक्षा करते हैं कि वे आदर्श नियोक्ता और आदर्श वादकारी होंगे. हम उनसे ये अपेक्षा नहीं करते कि वे न्यायिक निर्णय से बचने के लिए या विलासितापूर्ण वाद में लिप्त होंगे और कामगारों को न्याय के लिए नहीं, बल्कि अपने द्वारा लिये गये किसी अड़ियल तकनीकी कदम को सही ठहराने के लिए उन्हें कोर्ट से कोर्ट घसीटेंगे. हम यह आशा करते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र के कोरपोरेशन अब आगे से ग़ैरज़रूरी आपत्तियां करने, ग़ैरज़रूरी मुकदमे लड़ने और ग़ैरज़रूरी मुद्राएं अपनाने से बचेंगे. (https://indiankanoon.org/doc/596285/) दिल्ली नगर निगम बनाम रसल सिंह एवं अन्य के मामले में तीन मार्च 1976 (https://indiankanoon.org/doc/575012/) को कोर्ट ने कहा, ”हम इंडस्ट्रियल ट्रिब्युनल, दिल्ली के ऐसे मजदूरों को जो सड़क बनाने और ऐसे ही कई अन्य कामों में कई सालों से लगे हुए हैं, उन्हें 4-5 दिन के वेतन का आदेश करने के खिलाफ, दिल्ली नगर निगम की सैंकड़ों अपीलों का असामान्य भार संभाल रहे हैं. इन मामलों में से कई तो 1958 तक के हैं. जाहिर है कि अपीलकर्ता सार्वजनिक क्षेत्र की कोरपोरेशन है जिसे की अनुमानतः एक आदर्श नियोक्ता होना चाहिए, ..........अपीलकर्ता छोटे-मोटे मजदूर हैं जो रजिस्टरों में प्रमाणित तक नहीं है, लेकिन जो पे-रोल में अनौपचारिक हैं हालांकि नियमित मजदूर है.... इस अवार्ड का कुल आर्थिक भार लगभग 5000 रुपये है, फिर भी आदर्श नियोक्ता ने सिर्फ सिद्धांत के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय में दर्ज इन सैंकडों अपीलों पर फिजूल खर्ची की है..... ये टिप्पणियां इस न्यायालय की एजर्जी की अभिव्यक्ति हैं जिनमें, सिर्फ सिद्धांत के नाम पर, राज्य और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं ने मुकद्मों की सीढ़ियां बना दीं और जनता के धन का भारी हिस्सा ऐसे मामलों में खर्च करते हैं जिन्हें मजदूरों के कल्याण प्रति गहन सरोकार दिखाते हुए बुद्धिमतापूर्ण, मैत्रीपूर्ण और कल्पनाशील तरीके से समायोजित कर दिया जाना चाहिए था. एक जागरुक नियोक्ता को वादी बनने से बचना चाहिए, क्योंकि न्यायलय में हुआ खर्चा निरर्थक और यहां तक कि प्रतिकूल भी हो सकता है.”

न्यायालय द्वारा कानूनों की व्याख्या से ये स्पष्ट हो गया है कि, शिपिंग मंत्रालय,  इस मामले में, एनएमपीटी की यह बाध्यकारी जिम्मेदारी है कि वो पोर्ट से संबंधित सभी कार्यों व गतिविधियों में शािमल मजदूरों से संबंधित कानूनों, कल्याण के कार्यान्वयन की निगरानी करे, फिर चाहे नियोक्ता कोई भी हो और संबंधित मजदूरों का दर्जा कैसा भी हो.ु