मोदी शासन: 1 प्रतिशत के लिए ‘अच्छे दिन’, 99 प्रतिशत के लिए ‘बदतरीन दिन’

मोदी अच्छे दिन का वादा करते हुए सत्ता में आए थे. लेकिन उनके चार वर्षोंं के शासन में भारत के सबसे धनी 1 प्रतिशत के लिए ही ‘अच्छे दिन’ आये हैं जिनकी देश की कुल संपदा में हिस्सेदारी 2014 में 49 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 73 प्रतिशत हो गई (ग्लोबल इनइक्वलिटी सर्वे, ऑक्सफैम). मोदी राज में सबसे धनी लोगों और देश के गरीबों के बीच की खाई काफी बढ़ गई है.

नोटबंदी की घोषणा के एक सप्ताह बाद गाजीपुर में एक रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने दावा किया था कि नोटबंदी ने ‘धनी और गरीब को बराबर कर दिया है’. नोटबंदी को ‘कड़क चाय’ - जिसे गरीब लोग पसंद करते हैं, लेकिन जो धनी लोग पचा नहीं पाते हैं - बताते हुए उन्होंने दावा किया था कि नोटबंदी से धनी लोग गलत ढंग से कमाये अपने अधिक मूल्य वाले नोट फेंक देने को मजबूर हो जाएंगे, और इससे धनिकों और गरीबों के बीच की खाई कम हो जाएगी. ऑक्सफैम का नवीनतम असमानता सर्वेक्षण दिखाता है कि 2017 का नोटबंदी का साल इसके उलटे असर को सामने लाया. इस वर्ष, सबसे धनी 1 प्रतिशत अधिक तेजी से और धनी हो गए - संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी 2016 में 58 प्रतिशत से बढ़कर 2017 में 73 प्रतिशत हो गई है. और नोटबंदी के उसी वर्ष में आमदनी में गरीबों की हिस्सेदारी महज 1 प्रतिशत ही बढ़ सकी.

नवीनतम गैलॉप सर्वेक्षण से पता चलता है कि ‘‘2014 में 14 प्रतिशत की तुलना में 2017 में सिर्फ 3 प्रतिशत भारतीय खुद को फूला-फला महसूस करते हैं.’’ ग्रामीण भारतीयों के जीवन-स्तर पर सबसे बुरा असर पड़ा है, जबकि शहरी भरतीयों के जीवन-स्तर में भी सीधी गिरावट आई है. गौलॉप सर्वेक्षण दिखाता है कि ‘‘सबसे पहले भारत की विशाल ग्रामीण आबादी के जीवन पर बुरा असर पड़ा - उस आबादी का फूलता-फलता हिस्सा 2014 और 2015 के बीच 14 प्रतिशत से कम होकर 7 प्रतिशत रह गया; बाद के वर्षों में वह 4 प्रतिशत और 3 प्रतिशत हो गया. ... शहरी भारतीयों के जीवन-स्तर में गिरावट अपेक्षाकृत धीमी गति से हुई, हालांकि उनके बीच का यह प्रतिशत पिछले वर्ष 11 प्रतिशत से घटकर 4 प्रतिशत हो गया.’’

मोदी इन सर्वेक्षणों पर खामोश हैं जो सामान्य भारतीयों की जिंदगी पर और असमानता पर उनकी नीतियों के असर की कहानी कहते हैं - इसके बजाय वे इस बात की शेखी बघारते हैं कि ‘कारोबार करने की सहूलियत’ की रैंकिंग (विश्व बैंक, 2017) में भारत का स्थान कैसे 130वां से चढ़कर 100वां हो गया. वे तेजी से गिरती रोजगार दर और बढ़ती बेरोजगारी के तथ्यों को भी नजरंदाज कर देते हैं और बड़ी खुशी से कहते हैं कि जो लोग 200 रुपये के पकौड़े रोज बेच लेते हैं, वे भी ‘नियोजित’ हैं!

फोब्र्स पत्रिका में प्रकाशित एक आलेख ‘इंडियन्स आर वर्स ऑफ अंडर मोदी’ में अर्थशास्त्री पैनोस मोर्डुकोटा ने टिप्पणी की है, ‘‘भारत के प्रधानमंत्री मोदी को अन्य देशों में विदेशियों के सामने यह कहने में कम समय देना चाहिए कि भारत कितना अच्छा कर रहा है, बल्कि उन्हें अधिक समय अपनी जनता से यह पूछने में देना चाहिए कि वे उनके शासन के बारे में कैसा महसूस करते हैं. क्योंकि जब मोदी इस सप्ताह वल्र्ड इकॉनोमिक फोरम की वार्षिक बैठक को संबोधित करने दावोस, स्विट्जरलैंड के लिए रवाना हो रहे हैं, तो उस वक्त भारत के लोग यह सोच रहे हैं कि तीन वर्ष पहले की अपेक्षा उनकी स्थिति आज बदतर हो गई है.’’

भारत में ‘मोदी’ मीडिया मोदी से ये सवाल कभी नहीं पूछेगा - यह आम जनता के लिए है कि वे मोदी के ढोंग पर सवाल करें और उन्हें सबक सिखाएं.