मोदी राज के चार वर्ष

किसानों के साथ गद्दारी

मोदी ने क्या वादा किया था

किसानों की उत्पादन-लागत (‘सी 2’ - अर्थात् इसमें बीज, सिंचाई, खाद और श्रम की कीमतें शामिल हैं, जैसा कि स्वामीनाथन आयोग ने सिफारिश की है) पर 50 प्रतिशत का मुनाफा जोड़ते हुए फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) निर्धारित करना (चुनाव भाषण, 2014); 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करना (चुनाव भाषण 2014); उ.प्र. में किसानों की संपूर्ण कर्ज माफी (फरवरी 2017 में चुनाव भाषण).

उनकी सरकार ने क्या किया ?

एक अध्यादेश लागू करके ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनस्र्थापना अधिनियम, 2013 में समुचित मुआवजा और पारदर्शिता के अधिकार को कमजोर बनाना. सरकार को अपना यह कदम वापस लेना पड़ा, फिर भी राज्य सरकारों ने अन्य तरीके अपना कर कॉरपोरेट भूमि लूट को जारी रखा; नोटबंदी के कारण रबी फसलों की बुवाई और खरीफ फसलों के विपणन (बाजार में बिक्री) के दौरान किसानों को नगद पैसों की घोर किल्लत झेलनी पड़ी; ‘सी 2 के ऊपर 50 प्रतिशत’ के न्यूनतम समर्थन मूल्य को सुनिश्चित करने का अपना वादा पूरा करने के लिए मोदी से मांग करने पर मंदसौर में किसानों पर फायरिंग और उनकी हत्या; केंद्रीय बजट में कुल उत्पादन लागत, यानी ‘सी 2’ पर 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर नहीं, बल्कि इससे काफी कम स्तर पर एमएसपी की घोषणा; इसके लिए भी बजट में कोई आवंटन नहीं; उ.प्र. में कर्ज माफी का माखौल, जहां किसानों को सिर्फ 1 रुपये तक का कर्ज माफ किया गया; मध्य प्रदेश सरकार की ‘भावांतर भुगतान योजना’ (एमएसपी और मंडी कीमतों के बीच के फर्क का भुगतान) में ऐसी शर्तें लगा दी गई हैं कि उससे अधिकांश किसानों को कोई फायदा नहीं मिल सकता है, बल्कि इन शर्तों से यह प्रक्रिया ही बाधित हो जा रही है. मंदसौर में लहसुन उत्पादक किसानों के लिए विक्रय मूल्य 20 रु. प्रति किलोग्राम से घटकर 1 रुपया प्रति कि.ग्रा. हो गया; फसल बीमा योजना के अंतर्गत लाया जाने वाला कुल रकबा पिछले दो वर्षों के दौरान कम होता जा रहा है (यह रकबा 2015-16 में 5 करोड़ 37 लाख हेक्टेयर था, 2016-17 में 5 करोड़ 72 लाख हेक्टेयर था, जबकि 2017-18 में यह कम होकर 4 करोड़ 75 लाख हेक्टेयर रह गया)

मोदी सरकार के 2016 के सूखा प्रबंधन मैनुअल में अत्यंत भीषण सुखाड़ के अलावा अन्य तमाम सुखाड़ के मामलों में ‘राष्ट्रीय आपदा फंड (एनडीआरएफ) के तहत केंद्र सरकार की ओर से कोई राहत सहायता नहीं देना निश्चित किया गया है, और इसकी सारी जिम्मेदारी राज्य सरकारों पर थोप दी गई है. इस प्रकार, तमाम व्यावहारिक अर्थों में केंद्र सरकार ने सूखा राहत, खासकर स्थायी किस्म के निरंतर होने वाले सूखों के मामले में राहत से अपना पल्ला झाड़ लिया है. भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (आइएमडी) ने अपने शब्दकोश से सूखा शब्द को ही हटा दिया है - यह कहते हुए कि यह शब्द ‘वैज्ञानिक रूप से सटीक’ नहीं है!

बेहिसाब लापरवाही

केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह से 8 जून 2017 को जब किसानों के प्रतिवादों और मंदसौर फायरिंग के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा - ‘योगा कीजिये’!
केंद्रीय शहरी विकास मंत्री वेंकैया नायडू ने 23 जून 2017 को फरमाया: ‘किसानों के लिए कर्ज माफी की मांग करना एक चलन (फैशन) बन गया है.’
हरियाणा के कृषि मंत्री ओपी धनखर ने 29 अप्रैल 2015 को कहा: जो किसान आत्महत्या करते हैं, वे ‘कायर’ और ‘अपराधी’ हैं.
केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने जुलाई 2015 में संसद में कहा: ‘नपुंसकता और प्रेम संबंध किसानों की आत्महत्याओं के पीछे सबसे बड़ा कारण हैं.’
मध्य प्रदेश के गृह मंत्री भूपेंद्र सिंह ने जुलाई 2016 में कांग्रेसी विधायक शैलेंद्र पटेल द्वारा वहां की विधान सभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में कहा: ‘किसानों पर भूत सवार था, इसीलिए उन्होंने आत्महत्या की’.

भ्रष्टाचार - कॉरपोरेट भी और राजनीतिक भी

मोदी का एक सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा यह था कि वे भ्रष्टाचार को उखाड़ फेंकने और विदेशों में जमा काला धन को वापस लाने का दावा कर रहे थे. लेकिन सच तो यह है कि उनकी सरकार ने भारत के इतिहास के सबसे बड़े भ्रष्टाचार घोटालों को होने दिया और कहीं-कहीं वह खुद भी इसका हिस्सेदार बन गई.

मोदी ने यूपीए सरकार के 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले को उछालते हुए चुनाव और सत्ता जीती थी. उसके बाद से, मोदी के नियंत्रणाधीन सीबीआई कोर्ट में यूपीए शासन के दौरान रहे मंत्री और 2-जी घोटाले में संलिप्त अन्य आरोपियों के विरुद्ध अपना आरोप सिद्ध नहीं कर सकी.

इसके अलावा, मोदी सरकार अब ठीक वही चीज कर रही है जो यूपीए शासन के अंतर्गत ए. राजा ने किया था - यह सरकार ‘ई’ और ‘वी’ बैंड स्पेक्ट्रम को ‘पहले आओ, पहले ले जाओ’ के आधार पर कुछ कंपनियों के हाथों सौंप रही है; जबकि 2-जी घोटाले के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने 2012 में इन स्पेक्ट्रमों की नीलामी करने का फैसला दिया था.

इसी प्रकार, खदानों के लीज की नीलामी करने के बजाय गोवा की भाजपा सरकार ने उन्हीं खुदाई करवाने वालों के लीज को नवीकृत कर दिया, जो खनन घोटाले के आरोपी रहे हैं.

विजय माल्या को ‘विलफुल डिफॉल्टर’ (जानबूझकर कर कर्ज वापस न करने वाला अपराधी) घोषित किया गया था, जिसने भारतीय बैंकों का करोड़ों रुपया लेकर वापस नहीं किया. इस विजय माल्या को देश से भाग जाने की छूट दे दी गई. पंजाब नेशनल बैंक का करोड़ों रुपया डकार जाने वाले नीरव मोदी भी इसी तरह देश से भाग गया.

माल्या, मोदी और रोटोमैक के विक्रम कोठारी जैसे धोखेबाजों के पास भारतीय बैंकों का जितना धन बकाया है, वह राशि केंद्रीय बजट (2016-17) में कृषि और किसान कल्याण के मद में केंद्र सरकार द्वारा आवंटित राशि (35,984 करोड़ रुपये) का डेढ़-गुना से भी ज्यादा है. (सेंट्रल इन्फार्मेशन ब्यूरो इंडिया लिमिटेड (सीआइबीआइएल) ने अपने द्वारा संग्रहित आंकड़ों के विश्लेषण के जरिए यह खुलासा किया है)
मोदी सरकार में मंत्री पीयूष गोयल वर्ष 2010 तक शिरडी इंडस्ट्रीज कंपनी के डायरेक्टर रहे हैं और उनके तथा उनकी पत्नी के नाम से अभी तक उस कंपनी के ढेर सारे शेयर मौजूद हैं. इस कंपनी ने 2014 में सैकड़ों करोड़ रुपया कर्ज लिया और उसे वापस नहीं लौटाया.

पिट्ठू (क्रोनी) पूंजीवाद का एक खुल्लमखुल्ला मामला यह है कि मोदी सरकार में बिजली, कोयला व नवीकरणीय ऊर्जा राज्य मंत्री पीयूष गोयल ने अपने और अपनी पत्नी के स्वामित्व वाली एक कंपनी का समूचा शेयर उसके मूल्य के लगभग 1000 गुना कीमत पर एक ग्रुप फर्म को बेच दिया जिसका मालिक अजय पिरामल है जो बिजली समेत बुनियादी ढांचा (इंफ्रास्ट्रक्चर) क्षेत्र में अरबों रुपये का निवेशकर्ता है. 2014-15 में एक मंत्री के बतौर प्रधान मंत्री कार्यालय को अपनी परिसंपत्ति व दायित्व से संबंधित दिये गए अपने अनिवार्य खुलासा वक्तव्य में गोयल ने अपनी उक्त कंपनी के शेयरों की बिक्री का कोई हवाला नहीं दिया.

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बेटे जय शाह के स्वामित्व वाली कंपनी ने अपना टर्न-ओवर मोदी के प्रधान मंत्री बनने के अगले साल ही 16,000 गुना बढ़ा लिया!

भाजपा ने 1990-दशक के टेलिकॉम घोटाले के अभियुक्त रहे सुखराम को, तथा शारदा चिट फंड घोटाले के मामले में सीबीआइ की जांच झेल रहे तृणमूल कांग्रेस के पूर्व मंत्री मुकुल रॉय को अपनी पार्टी में

शामिल कर लिया. भाजपा नेता सुधांशु त्रिवेदी ने ‘जो बीत गई वो बात गई’ कहकर इसे सही करार दे दिया.

कर्नाटक में भाजपा ने खनन घोटाला का कलंक ढोने वाले येदियुरप्पा को विधान सभा चुनाव में उम्मीदवार मुख्यमंत्री के बतौर खड़ा किया और खनन माफिया रेड्डी भाइयों को अपना उम्मीदवार बनाया. संपूर्ण देश ने देखा कि वहां भ्रष्टाचार और घूसखोरी का कैसा नंगा नाच चलाया गया. हमने ऑडियो टेप सुने जिसमें स्पष्ट हुआ कि येदियुरप्पा, जनार्दन रेड्डी और अन्य प्रमुख नेता चुने गए विधायकों को उनके दलों से तोड़ने के लिए किस तरह करोड़ों रुपया और भ्रष्टाचार के मामलों में उन्हें अभयदान की पेशकश कर रहे थे!

रेड्डी भाइयों द्वारा विधायकों को पेश किए गए करोड़ों रुपये यह साबित करते हैं कि भाजपा नेताओं और अन्य भ्रष्टाचारियों के पास कितना बेशुमार काला धन मौजूद है!

‘स्किल इंडिया’, ‘स्टार्ट-अप इंडिया’, ‘मेक इन इंडिया’ या ‘न्यू इंडिया’ नहीं - यह तो ‘बेरोजगार भारत’ है

मोदी हर वर्ष 2 करोड़ नया रोजगार सृजित करने का वादा करते हुए सत्ता में आए थे. लेकिन इसके बजाय उनकी सरकार ने रोजगार का विनाश किया, भ्रष्टाचार के जरिए रोजगार को बेच दिया और बेरोजगारों को ‘पकौड़ा बेचने’ की सलाह देकर उनका मजाक उड़ाया - जबकि उनकी सरकार छोटे मोटे वेंडरों और पकौड़े बेचने वालों की जिंदगी तबाह करने पर तुली हुई है.

सरकारी श्रम ब्यूरो के द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार 2013-14 और 2015-16 के बीच 52 लाख रोजगार खत्म कर दिए गए. भारत की आजादी के बाद यह पहली बार है, जब रोजगार की कुल संख्या में गिरावट आई है. (ईपीडब्ल्यू, 23 सितंबर 2017)

2013 और 2015 के बीच केंद्र सरकार के रोजगार में 69 प्रतिशत की कटौती की गई है - लोकसभा में सरकार के एक मंत्री ने यह बयान दिया था. (इंडियन एक्सप्रेस, 29 मार्च 2017)
रेलवे, बैंक, लिपिकीय कार्य, स्कूलों और कालेजों में शिक्षक - इन सभी क्षेत्रों में बहालियां कई वर्षों से बंद पड़ी हैं. तीन-चार वर्ष पहले जो परीक्षाएं ले ली जानी चाहिए थीं, वे अभी तक नहीं ली गई हैं; और जहां परीक्षाएं हो गई हैं, वहां रिजल्ट नहीं निकाले गए हैं अथवा नियुक्तियां नहीं ली गई हैं. एक पूरी पीढ़ी को अंतहीन समय तक बिठा कर उनसे बस, इंतजार करवाया जा रहा है. जब इस इंतजार की अवधि में कोई घोटाला या कोर्ट का मुकदमा सामने आ जाता है तब तो बहाली की पूरी प्रक्रिया ही ठप हो जाती है.

अधिकारी स्तर के रोजगारों में भारी कटौतियां और अनियमितताएं चल रही हैं. इस वर्ष के विज्ञापन दिखाते हैं कि संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा विज्ञापित रोजगारों में 40 प्रतिशत की बड़ी कटौती की गई है - 2014 में 1,291 पदों को घटाकर 2018 में 775 पद कर दिया गया है. राज्यों में तो पिछले कई वर्षों से लोक सेवा आयोग द्वारा कोई बहाली ही नहीं की गई है.

रेलवे को रोजगार देने वाला सबसे बड़ा क्षेत्र समझा जाता है; लेकिन यहां अनेक पदों पर लाखों बहालियां 4 वर्षों से लंबित पड़ी हुई हैं. जब 4 वर्ष के बाद भर्ती की परीक्षाओं के लिए फार्म निकले, तो उनमें आयु सीमा ही घटा दी गई थी, परीक्षा के शुल्क बढ़ा दिए गए और परीक्षा के पैटर्न बदल दिए गए, और इस प्रकार बड़ी संख्या में नौजवानों को इन रोजगार के अवसरों से वंचित करने की कोशिश की गई. छात्र-नौजवानों ने जब इसका जोरदार विरोध किया, तब जाकर इस बदलाव को वापस लिया गया.

एक ओर, विभिन्न पदों के लिए रिक्तियों को भरा नहीं गया, तो दूसरी ओर हाल ही में केंद्र सरकार ने एलान किया कि 5 वर्षों से जितने पद रिक्त पड़े हुए हैं, उन्हें खत्म कर दिया जाएगा. इस प्रकार सरकार ने एक ही झटके में लाखों रोजगार को खत्म कर  देने की अपनी खतरनाक मंशा जाहिर कर दी है. अगर इन पदों को ही समाप्त कर दिया जाएगा, तो इनके खाली रहने और इन्हें भरने का सवाल ही नहीं बचेगा!
रोजगार सृजन के नाम पर सरकार निजी कंपनियों को लाखों करोड़ रुपये का कर्ज माफ कर दे रही है. लेकिन ये निजी कंपनियां रोजगार सृजित करने की कोई प्रतिबद्धता नहीं दिखा रही हैं. एक ओर, 60 प्रतिशत स्नातक इंजीनियर बेरोजगार बैठे हैं; वहीं दूसरी ओर आइटी सेक्टर में लाखों कर्मियों को ले-ऑफ किया जा रहा है और वे अपना रोजगार खो रहे हैं.

स्व-रोजगार - सरकार के खोखले दावे

नियमित और वेतन-युक्त रोजगारों में प्रणालीबद्ध कटौतियां करने के बाद सरकार अब जनता द्वारा मजबूरी में अपनाए जा रहे अस्तित्व के विभिन्न उपायों को ‘रोजगार सृजन’ का नाम दे रही है! और इस प्रकार अब ‘स्व-रोजगार’ की जुमलेबाजी उछाली जा रही है. प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और पीयूष गोयल सरीखे अनेक नेता लोगों की आंखों में धूल झोंकने के लिए ‘स्वरोजगार’ का नारा रट रहे हैं. लेकिन असली बात तो यह है कि पहले भी लोग कोई विकल्प न रहने की स्थिति में किसी न किसी किस्म का ‘स्व-रोजगार’ चला रहे थे. तब, इस आशा में भाजपा को सरकार में लाने के लिए वोट देने का क्या मतलब है कि वह हर वर्ष 2 करोड़ नए रोजगार का सृजन करेगी? इसके अलावा, जिस तरह से खुदरा व्यापार समेत तमाम क्षेत्रों में सरकार बड़ी पूंजी और एफडीआइ के प्रवेश की खुली इजाजत दे रही है, वैसी स्थिति में छोटे दुकानदार, सड़क वेंडर और पकौड़ा बेचने वाले इस हमले के सामने कैसे टिक पाएंगे? छोटे दुकानदारों, वेंडरों और पकौड़ा बेचने वालों की आजीविका को भी ‘स्मार्ट सिटी’ और ‘स्वच्छता’ आदि के नाम पर छीना जा रहा है. सरकार ने रिलायंस और डीएलएफ जैसे मॉलों को पकौड़ा बेचने तक की अनुमति दे दी है.

मुद्रा योजना की हकीकत

सरकार यह झूठी घोषणा कर रही है कि उसने अपनी ‘मुद्रा योजना’ के अंतर्गत  8 करोड़ लोगों को स्व-रोजगार मुहैया कराया है. जिस चीज को सरकार ‘8 करोड़ रोजगार सृजित करने’ की संज्ञा दे रही है, वह दरअसल मुद्रा योजना के तहत ऋण की संख्या (8 करोड़ ऋण) है. इस संख्या का 93 प्रतिशत ऐसे ऋण हैं जिनकी औसत राशि 23,000 रुपये है. तो अब सवाल यह है कि आज की तिथि में इतनी छोटी राशि के साथ किस किस्म का ‘स्व-रोजगार’ पैदा किया जा सकता है? - दूसरों को रोजगार देने की बात तो छोड़ ही दीजिए!

‘स्किल इंडिया’ की सच्चाई

बहु-प्रचारित स्किल इंडिया योजना के तहत 2014-15 में पंजीकृत कुल 4.50 लाख नौजवानों के 0.19 प्रतिशत को ही विभिन्न क्षेत्रों में रोजगार मिल सका.

‘स्टार्ट-अप इंडिया’ - रोजगार योजना अथवा बंदी योजना?

जनवरी और सितंबर 2017 के बीच कुल 800 स्टार्ट-अप चल रहे थे. एक साल पहले यानी 2016 की इसी अवधि में यह संख्या 6000 थी. शेष 5200 स्टार्ट-अप बंद हो गए!

रोजगार नियोजनालयों की हालत इतनी बुरी है कि इन कार्यालयों में पंजीकृत बेरोजगारों के सिर्फ 0.57 प्रतिशत को ही इस संस्था के मार्फत रोजगार मिल सका. (इंडियन एक्सप्रेस, 26 जुलाई 2017)

शिक्षा क्षेत्र पर हमला

सरकारी स्कूलों - जहां सबसे गरीब और सबसे उत्पीड़ित तबकों के बच्चे पढ़ते हैं - को प्रणालीबद्ध ढंग से नष्ट किया जा रहा है, ताकि छात्रों को निजी विद्यालयों की ओर धकेला जा सके. नीति आयोग की एक हालिया रिपोर्ट में 2017-19 के बीच सरकारी विद्यालयों के निजी अधिग्रहण की सिफारिश की गई है (मनीष आनंद, ‘सरकारी स्कूल निजीकरण की राह अपनाएं: नीति आयोग’, न्यू इंडिया एक्सप्रेस, 7 मई 2017)

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कोष में कटौतियां, भारी फीस वृद्धि, सीट में कटौती, छात्रवृतियों में कमी, शिक्षकों व छात्रों के बीच सामाजिक न्याय और आरक्षण प्रावधानों में कटौती और ‘स्वायत्तता’ के नकाब में निजीकरण आज के आम प्रचलन हो गए हैं. 2018-19 में, कुल केंद्रीय बजट में मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्रालय के बजट की हिस्सेदारी पिछले पांच वर्षों में सबसे कम है. 2014-15 में कुल केंद्रीय बजट की 6.15 प्रतिशत हिस्सेदारी के मुकाबले इस वर्ष एचआरडी मंत्रालय के लिए आवंटन दुखद रूप से गिरकर 3.48 प्रतिशत रह गया. (फैक्ट चेकर, 1 फरवरी 2018)

आरएसएस की सदस्यता मात्रा की अर्हता रखने वालों की कुलपति पदों पर पक्षपातपूर्ण नियुक्तियां, सिलेबसों का भगवाकरण, कैंपस जनवाद का हनन आदि चीजें मोदी शासन में हर कैंपस में देखी जा रही हैं. इसी की वजह से अंबेडकरवादी कार्यकर्ता और शोधकर्ता रोहित वेमुला की जान गई और अन्य दर्जनों कैंपसों में छात्रों को विक्टिमाइजेशन झेलना पड़ा है. जेएनयू के छात्रों को 2016 में ‘राजद्रोह’ के लिए गिरफ्तार किया गया - आज दो वर्ष बाद भी पुलिस न तो कोई साक्ष्य जुटा पाई है और न चार्ज शीट दायर कर पाई है. इसका यह मतलब निकलता है कि जेएनयू पर यह हमला झूठे वीडियो के सहारे की जाने वाली एक पूर्व-नियोजित साजिश थी ताकि छात्र आंदोलन को बदनाम किया जा सके.

भगवाकरण और बेवकूफीभरे भगवा मिथकों को ‘शिक्षा’ के बतौर प्रचारित करने की हरकतें बिल्कुल शीर्ष से ही थोपी जा रही हैं - प्रधान मंत्री और कई मुख्य मंत्री इंटरनेट और टेस्ट ट्यूब बच्चों को महाभारत काल की चीजें बता रहे हैं. बीएचयू छात्रों को पढ़ाया जा रहा है कि नोटबंदी से क्या फायदे हुए हैं और कि कैसे ‘रामायण के नायकों ने शत्रुओं को पराजित करने के लिए ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का इस्तेमाल किया था.’ छात्रों को परीक्षाओं में यह भी लिखने को कहा गया कि ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ में किस किस्म का जीएसटी वर्णित है और कि मनु वैश्वीकरण के बारे में पहले भारतीय चिंतक थे. बडोदरा महाराज सायाजीराव विश्वविद्यालय द्वारा छपायी गई एक डायरी में बड़े बेतुके ढंग से प्राचीन भारतीय ऋषियों को उनके ‘विज्ञान में योगदान’ - ‘नाभिकीय प्रौद्योगिकी’ के विकास से लेकर ‘रॉकेटों व वायुयानों की खोज’ तक - के लिए श्रेय दिया गया है! ऐसी बेसिर-पैर की बातों से भारतीय छात्रों को मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ रहा है और समूची दुनिया में हमें मजाक का पात्र बनाया जा रहा है.    

महिलाओं की स्वायत्तता, सुरक्षा और अधिकारों पर बदतरीन हमला

मोदी ने ‘बहुत हुआ नारी पर वार, अबकी बार मोदी सरकार’ का नारा देकर वोट हासिल किया था.

महिला अधिकारों के मामले में सरकार का क्या रिकार्ड रहा है?

‘निर्भया कोष’ के 30 प्रतिशत से भी कम राशि का इस्तेमाल किया गया है; ‘बेटी बचाओ’ अभियान विफल रहा है - संसद में एक सवाल के जवाब में सरकार ने कहा कि ‘नमूना पंजीकरण प्रणाली’ के अनुसार भारत में औसत महिला-पुरुष दर (2012-14 में) 906ः1000 के मुकाबले 2014-16 में गिरकर 898ः1000 हो गया; जनवरी 2018 में महिला व बाल विकास मंत्रालय ने स्वीकार किया कि ‘प्रधान मंत्री मातृ वंदना योजना’ के तहत 2017 में सिर्फ 96,000 महिलाओं को लाभ मिल सका - जबकि भारत में हर वर्ष 2 करोड़ 60 लाख शिशुओं का जन्म होता है. 2018 के बजट में मोदी सरकार ने इस योजना के लिए पहले से ही अपर्याप्त आवंटन में और 300 करोड़ रुपये की कमी कर दी.

मोदी सरकार ने समेकित बाल विकास योजना (आइसीडीएस), यानी आंगनबाड़ी योजना, के लिए आवंटन में भी कटौती कर दी - इस योजना के जरिए शिशुओं व बच्चों को भोजन, शिक्षण और स्वास्थ्य सेवा, तथा महिलाओं को मातृत्व लाभ मुहैया कराए जाते हैं. अपने पहले पूर्ण बजट में मोदी सरकार ने 18,108 करोड़ रुपये के बजट (2014-15) को घटाकर 2015-16 में 8,400 करोड़ रुपया कर दिया. बाद में, आंगनबाड़ी सेविकाओं व सहायिकाओं के संघर्षों के दबाव में सरकार को इस राशि में थोड़ी वृद्धि करनी पड़ी. 2018 में आइसीडीएस के लिए आवंटन 16,334.88 करोड़ रुपये था - 2017 में 15,425.19 करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा. महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा घोषित पूरक पोषाहार की बढ़ी कीमतों को पूरा करने के लिए यह राशि बिलकुल नाकाफी है - इसके लिए आइसीडीएस में तीन वर्षों तक 10,000 करोड़ रुपये के अतिरिक्त खर्च की जरूरत होगी.

‘आशा’, आंगनबाड़ी, मिड-डे मील, एसएसए, एनआरएलएम, मनरेगा जैसी सरकारी योजनाओं में लगे कर्मियों - जिनमें अधिकांश महिलाएं हैं - को सरकारी कर्मचारियों की मान्यता नहीं दी गई है, और उन्हें नाममात्र का ‘मानदेय’ दिया जाता है - जो न्यूनतम मजदूरी से भी काफी कम होता है. इन योजनाओं में कार्यरत महिला कर्मियों को प्रायः इस मानदेय का भी भुगतान नहीं हो पाता है, क्योंकि इसके लिए आवंटित बजट में केंद्र सरकार अपने अंश को राज्यों में नहीं भेज पाती है.

‘उज्जवला योजना’ - जिसके बारे में मोदी प्रचार करते हैं कि इससे महिलाओं को प्रदूषणकारी लकड़ी की आग से छुटकारा मिलेगा - के तहत महिलाओं को एलपीजी सिलिंडर तो मिला, लेकिन वे पुनः गैस नहीं भरा पाती हैं; इसीलिए यह योजना लागू होने के पूर्व के बनिस्बत अभी गैस सिलिंडर के इस्तेमाल की वृद्धि दर कम हो गई है.

मोदी सरकार द्वारा बलात्कारियों और हिंसा-अपराधियों की खुली हिमायत

आसाराम और राम रहीम बलात्कार कांडों तथा विकास बराला स्टॉकिंग (छिपकर पीछा करना) मामले में सांसदों व विधायकों समेत भाजपा नेताओं और पदाधिकारियों ने अभियुक्तों का बचाव किया और पीड़ितों पर ही आरोप लगाया.

कठुआ मामले में भाजपा के मंत्रियों और विधायकों ने अभियुक्तों के समर्थन में निकाली गई रैली में हिस्सा लिया. दो मंत्रियों द्वारा पदत्याग के बाद भी उस रैली में शरीक एक दूसरे भाजपा विधायक को जम्मू-कश्मीर का मंत्री बना दिया गया.

उन्नाव में उ. प्र. की भाजपा सरकार ने बलात्कार-आरोपी भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर का बचाव किया और पीड़िता के पिता को एक झूठे मुकदमे में गिरफ्तार कर मरवा डाला.

आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) से संबद्ध सेवा भारती, विद्या भारती और राष्ट्र सेविका समिति ने जून 2015 में 31 आदिवासी लड़कियों को असम, गुजरात और पंजाब से उठा लाया ताकि ‘हिंदूवाद में उनको शामिल कर’ आरएसएस की कार्यकर्ता बनाया जा सके. मोदी सरकार ने अभियुक्त के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की.

यौन उत्पीड़न का प्रतिवाद करने वाले बीएचयू, जेएनयू, डीयू और जाधवपुर विश्वविद्यालय के छात्रों को पुलिस दमन झेलना पड़ा और/अथवा वरिष्ठ भाजपा नेताओं ने उलटे पीड़ितों पर ही यौनवादी आरोप मढ़ दिए. जेएनयू में एक प्रोफेसर, जो संघ का सदस्य है, पर आठ छात्राओं के यौन उत्पीड़न का आरोप था; लेकिन वह अभी भी छुट्टा घूम रहा है.

नाबालिगों के बलात्कार के लिए मृत्यु दंड का कानून इस तथ्य से ध्यान हटाने का ही एक क्रूर कदम है कि सरकार उन बलात्कारियों को सजा देने के बजाय उन्हें बचाती रही है जो भाजपा की विचारधारा को मानते हैं.

महिलाओं की आजादी पर हमला

मोदी सरकार के अनुमोदन से संघ परिवार अंतरधार्मिक रिश्तों, जिसे वे ‘लव जिहाद’ करार देते हैं, पर देशव्यापी संगठित हमला छेड़ दिया है. यह ‘लव जिहाद’ एक गाली-गलौज वाला शब्द है, जिसमें पितृसत्ता और इस्लाम-भीति का संयोजन है.

‘लव जिहाद’ का प्रचार ‘ऑनर’ अपराधों और हत्याओं को वैधता प्रदान करता है और बढ़ावा देता है. कोबरापोस्ट स्टिंग से स्पष्ट हुआ है कि इस मुहिम के हिस्से के बतौर संघ और भाजपा नेता महिलाओं को अगवा कर रहे हैं, उन्हें पीट रहे हैं और नशीली दवाइयां पिला रहे हैं, ताकि उन्हें अपना मुस्लिम जीवन-साथी छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सके.

आदित्यनाथ (अजय सिंह बिष्ट, जो खुद को योगी आदित्यनाथ कहते है) को मोदी, अमित शाह और आरएसएस ने हाथ पकड़ कर उ.प्र. - भारत के सबसे बड़े राज्य - का मुख्य मंत्री बना दिया. आदित्यनाथ ने अपने खुद के वेबसाइट पर 2014 में डाले गए एक विस्तृत आलेख ‘मातृ शक्ति - भारतीय शक्ति के संदर्भ में’ में मनुस्मृति का हवाला देते हुए कहा था कि हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार ‘‘महिलाएं इतनी सक्षम नहीं हैं कि उन्हें स्वतंत्र या स्वाधीन छोड़ा जा सके. ... महिलाओं को जन्म से मृत्यु तक किसी पुरुष द्वारा संरक्षा की जरूरत है. ... बचपन में पिता उसकी रक्षा करता है, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र उसकी रक्षा करता है’’. अपनी पूरी जिंदगी पुरुष की (पिता, पति और पुत्र की) रक्षा में रहने का विचार सीधे-सीधी मनुस्मृति से निकलता है.

‘विकास’ का छलावा

मोदी के अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी, जिसके बारे में उन्होंने वादा किया था कि अगर वे सांसद चुने गये तो वे इस शहर को क्योटो बना देंगे, में निर्माणाधीन फ्लाईओवर का गिर जाना मोदी राज में ‘विकास’ का एक खास नमूना है. इस फ्लाईओवर के गिरने से 18 लोगों की मौत हुई है.

आक्सीजन कंपनी को बकाये का भुगतान करने के बारंबार आग्रह को सरकार द्वारा अनसुनी कर देने की वजह से गोरखपुर अस्पताल में हुई बच्चों की मौत इसकी दूसरी मिसाल है कि भारत और भाजपा-शासित राज्यों में मोदी के ‘विकास’ के वादों का क्या मतलब है.

गुजरात की तर्ज पर मोदी का विकास मॉडल आम लोगों की बुनियादी जरूरतों के प्रति घोर लापरवाही से भरा हुआ है और इसे छिपाने के लिए झूठे दावों, मिथ्या छवि-निर्माण, आंकड़ों की हेराफेरी और पूर्ववर्ती सरकारों की उपलब्धियों को अपने नाम करने की तिकड़म धड़ल्ले से जारी है.

विद्युतीकरण

मोदी सरकार दावा कर रही है कि उसने ‘प्रधान मंत्री सहज बिजली हर घर योजना’ अथवा ‘सौभाग्य’ योजना के जरिए - जो कोई नई योजना नहीं बल्कि पुरानी योजनाओं का नया रूप है - हर भारतीय गांव तक बिजली पहुंचा दी है. सच क्या है ? 1947-’91 के बीच के 44 वर्षों में हर साल औसतन 10,934 गांवों को बिजली से जोड़ा गया; 2014-18 के बीच यह औसत 4,346 गांव प्रति वर्ष रहा. (स्रोत: ट्वीटर पर टिप्पणीकार रवि नायर; विस्तृत जानकारी के लिए देखें उनका लेख ‘हाउ मोदीज़ सौभाग्य योजना सिंपली रिपैकेज्ड एन ऑलरेडी-रिपैकेज्ड स्कीम’, वायर, इन, सितंबर 2017)

मई 2017 में बिजली मंत्री पीयूष गोयल ने दावा किया कि मई 2018 तक हर घर को बिजली मिल जाएगी. उन्होंने झूठ कहा. अभी भी 310 लाख भारतीय परिवारों को बिजली नहीं मिली है. (उत्तर प्रदेश, झारखंड और असम जैसे राज्यों में 60 प्रतिशत से भी कम घरों को बिजली मिली है, जबकि 4 वर्ष पूर्व ‘सबके लिए बिजली’ के वादे के साथ भाजपा सत्ता में आई थी. 30 में से 12 राज्यों में 80 प्रतिशत से भी कम घरों को बिजली मिल पाई है. वायर, इन)

शौचालय

मोदी सरकार का दावा है कि ‘स्वच्छ भारत’ योजना के तहत भारत के 83.87 प्रतिशत घरों में शौचालय बनाए जा चुके हैं. यह भी झूठ है. सिर्फ 54.51 प्रतिशत घरों में शौचालय हैं. बहुतेरे घरों में, जहां शौचालय बने हैं, वहां उनका इस्तेमाल पानी के अभाव के चलते नहीं किया जा रहा है. देश के विभिन्न हिस्सों से मिलने वाली रिपोर्ट में यह बात कही गई है.

‘विज्ञान और पर्यावरण केंद्र’ ने बिहार और उत्तर प्रदेश में अपनी हालिया यात्रा के दौरान पाया है कि ‘गंगा की बाढ़ वाले इलाके में शौचालयों का निर्माण डिजाइन की त्रुटि की वजह से क्षतिग्रस्त हो गया है. दुहरे गड्ढे वाले शौचालयों में गड्ढे की गहराई कई जगहों पर 5-6 मीटर तक कर दी गई, जिससे उनमें प्रदूषित पानी के जमाव का खतरा है. साथ ही, जिन इलाकों में बाढ़ का पानी आता है, वहां पानी के बहाव के साथ मल-मूत्र भी बाहर निकल जाने की संभावना है. इस ‘केंद्र’ ने यह भी पाया कि शौचालयों के बिलकुल करीब हैंड-पंप लगा दिए गए हैं, जिससे इनके पानी के प्रदूषित हो जाने का खतरा है.’
मोदी राज के अनेक ‘स्मार्ट सिटी’ में हाथ से मैला ढोने वालों की मौत काफी बढ़ गई है.

गंगा सफाई योजना

मोदी ने 2014 में डंका पीटा था कि ‘मुझे मां गंगा ने बुलाया है.’ उन्होंने ‘नमामि गंगा’ (मैं गंगा को प्रणाम करता हूं) अभियान की घोषणा की थी. लेकिन चार वर्ष बाद, इन तमाम मुहिमों में मोदी को साथ लेकर बड़े-बड़े धार्मिक आयोजनों के अलावा और कुछ नहीं दिख रहा है. मार्च 2018 तक गंगा सफाई अभियान का महज 20 प्रतिशत कोष खर्च किया जा सका है.
2017 में दिल्ली स्थित ‘विज्ञान और पर्यावरण केंद्र’ (सीएसई) ने पांच राज्यों - उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल का दौरा किया था. वहां सीएसई ने पाया कि ‘स्वच्छ भारत’ योजना चलने के बावजूद मल-मूत्र प्रबंधन पर कोई जोर नहीं दिया जा रहा है. सच तो यह है कि स्वच्छता अभियान के तहत जो शौचालय बनवाए गए हैं, उसी से मल-मूत्र बाहर निकल रहे हैं, जिस पर वहां की सरकारों का कोई ध्यान नहीं है.

मोदी सरकार की ‘उपलब्धियां’!

पेट्रोल और डीजल की अब तक की अधिकतम कीमतें

अमेरिका में एक औसत नागरिक एक लीटर पेट्रोल खरीदने के लिए प्रति दिन की अपनी आमदनी का 0.5 प्रतिशत खर्च करता है. भारत में पेट्रोल की कीमतें दुनिया में सबसे ज्यादा हैं. इसकी वजह कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में हो रही वृद्धि उतनी नहीं है, जितना कि ईंधन पर सरकार के द्वारा लगाया गया ऊंचे दर का अप्रत्यक्ष कर है. मोदी सरकार ने नवंबर 2014 और जनवरी 2016 के बीच पेट्रोलियम उत्पादों पर नौ बार उत्पाद शुल्क बढ़ाया है. जब-न-तब सरकार यह शुल्क बढ़ा दिया करती है, ताकि बैंकों के एनपीए (वापस न किया गया कर्ज) और कॉरपोरेट कंपनियों द्वारा भारतीय अर्थतंत्र की लूट का बोझ आम नागरिकों के कंधों पर डाला जा सके.

जब 2016 में कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट आई थी, तो मोदी ने खुद को भारत के लिए सौभाग्यशाली प्रधान मंत्री घोषित किया था. लेकिन उस समय भी उपभोक्ताओं को उस गिरती कीमत का कोई लाभ नहीं मिला. कच्चे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतें 2016 में 54.6 प्रतिशत कम हो गई थीं, लेकिन भारत में पेट्रोल की कीमतों में सिर्फ 18.3 प्रतिशत की कमी आई थी.
2014 में कच्चे तेल की कीमत 109.41 डॉलर प्रति बैरल था, तब मुंबई में पेट्रोल की कीमत 80.89 रुपये प्रति लीटर थी; 2018 में जब कच्चे तेल की कीमत 2014 की कीमतों से 30 डॉलर प्रति बैरल कम है, तब मुंबई में पेट्रोल 84 रुपये प्रति लीटर की दर से बेचा जा रहा है.

अब, मोदी सरकार के अंतर्गत एक औसत भारतीय को एक लीटर पेट्रोल खरीदने के लिए अपनी रोजाना आमदनी का 20 प्रतिशत खर्च करना पड़ रहा है. यहां पेट्रोलियम उत्पाद ऐसी चीजें हैं, जिनपर मोदी सरकार ने दुनिया में सबसे ज्यादा कर लगा रखा है. और, तेल की बढ़ती कीमतें अनिवार्य रूप से खाद्य पदार्थों व अन्य जरूरी सामग्रियों की कीमतों में भी उछाल पैदा कर रही हैं.

‘आधार’-आधारित बहिष्करण और मौतें

यह एक तथ्य है कि ‘आधार’ कॉरपोरेटों और सरकार द्वारा निजी सूचनाओं को खोद निकालने और गरीबों को उनके अधिकारों से वंचित करने का एक जरिया है. फिर भी, मोदी सरकार ने ‘आधार’ के पक्ष में न्यायालय में बारंबार झूठे बयान दिए हैं, और यहां तक दावा कर दिया है कि नागरिकों को अपने खुद के शरीर पर संप्रभु अधिकार नहीं है. जबसे ‘आधार’ को राशन, पेंशन वगैरह हासिल करने की शर्त बना दिया गया है, तब से अत्यंत गरीब महिलाओं, बच्चों और वृद्धों की मौत हो रही है, क्योंकि आधार कार्ड न रहने की वजह से उन्हें उनको मिलने वाले लाभों से वंचित कर दिया गया.

‘आधार की स्थिति, 2017-18’ रिपोर्ट - जिसे मोदी सरकार के मंत्री जयंत शाह से करीबी रिश्ता रखने वाले बहुराष्ट्रीय शोध संगठन ‘इंडियनसाइट फॉर ओमिड्यार नेटवर्क’ ने तैयार किया है - को एक प्रमाण के तौर पर पेश किया जा रहा है कि ‘आधार’ को व्यापक स्तर पर स्वीकृति मिली हुई है. विडंबना तो यह है कि इस रिपोर्ट में भी माना गया है कि आधार कार्ड न रहने की वजह से 3 राज्यों के 20 लाख लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से राशन नहीं मिल पाया.

इस रिपोर्ट में यह भी स्वीकार किया गया है कि ऐसा कोई भरोसेमंद साक्ष्य नहीं है जो प्रमाणित कर सके कि फर्जी, नकली या अवैध खातों को खत्म करने के जरिए और ‘आधार’, प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण (डीबीटी), डिजिटाइजेशन वगैरह के चलते पिछले चार वर्षों में 83,000 करोड़ रुपया बचाने का सरकारी दावा सही है. ऐसा लगता है कि मोदी सरकार के अन्य दावों की तरह ये आंकड़े भी फर्जी हैं और बस, यूं ही इसे उछाल दिया गया है.

यह रिपोर्ट न्यायालय में सरकार द्वारा किए गए इस दावे को भी खारिज करती है कि निजी गोपनीयता सिर्फ उच्च वर्गों की चिंता का विषय है. रिपोर्ट में पाया गया है कि सर्वेक्षण के तीन राज्यों में जिन लोगों से बातचीत की गई उनमें से 96 प्रतिशत लोग (जिनमें निम्न आय वाला तबका भी शामिल है) इस बात से चिंतित हैं कि सरकार कैसे उनकी जिंदगी की सूचनाओं का इस्तेमाल कर रही है. इस रिपोर्ट में डलबर्ग, सीजीएपी और ड्वारा रिसर्च द्वारा प्रस्तुत एक अन्य रिपोर्ट (प्राइवेसी ऑन द लाइन, 2017) का हवाला दिया गया है, जो बताती है कि ‘निम्न आय वाले लोग’ अपनी आधार संख्या समेत अपनी अन्य निजी सूचनाओं को ‘काफी गोपनीय बनाए रखना चाहते हैं.’

विज्ञापनों पर बेतहाशा खर्च

मोदी सरकार ने पिछली किसी भी सरकार की बनिस्बत अपने प्रचार पर कहीं ज्यादा खर्च किया है. आम लोगों के हित में अपने नकारापन को छिपाने के लिए सरकार ने विज्ञापनों का अंबार खड़ा कर जनता की मानसिकता को प्रभावित करने की कोशिश की है - इन चार वर्षों में मोदी सरकार ने प्रचार पर 4,300 करोड़ रुपये खर्च किए हैं; जबकि यूपीए सरकार ने अपने 10 वर्ष के शासन काल में प्रचार पर कुल 2,658.24 करोड़ रुपये खर्च किए थे. हमें नहीं पता कि जनता द्वारा अदा किए गए करों से प्राप्त राशि का इस्तेमाल झूठी खबरें उड़ाने और मोदी ऑनलाइन के अनुयाई ट्रॉलों द्वारा मौत/बलात्कार की धमकियां देने में भी किया जा रहा या नहीं!

नफरत भरे भाषण और प्रेस की आजादी पर हमला

वीआइपी लोगों द्वारा नफरत भरे भाषण देने के मामले में मोदी सरकार यकीनन अव्वल स्थान पर है. एनडीटीवी के एक अध्ययन से पता चलता है कि मोदी सरकार के अंतर्गत वीआइपी लोगों के  द्वारा नफरत-बयानी और फूट डालने वाली भाषा का प्रयोग 5 गुना ज्यादा बढ़ गया है (महिलाओं के प्रति अश्लील यौनवादी टिप्पणियां इसमें शामिल नहीं हैं). एनडीए के मौजूदा शासन में 90 प्रतिशत नफरत-बयानी भाजपाई राजनेताओं के द्वारा की गई है. इतना ही नहीं, भाजपा ने ऐसे बयान देने वाले राजनेताओं को बढ़ावा दिया है - उसने लगातार अपने भाषणों में जहर उगलने वाले आदित्यनाथ को उ. प्र. का मुख्य मंत्री बना दिया और ऐसे ही एक दूसरे राजनेता अनंत कुमार हेगडे को केंद्रीय मंत्री बना डाला.

इस तरह की नफरत-बयानी के साथ विरोधी आवाजों के खिलाफ हिंसा की वारदातें भी जुड़ गई हैं, जिससे दुनियाभर में भारत की छवि खराब हुई है. ‘रिपोर्टर्स विदाउट बोर्डर्स’ के अनुसार प्रेस आजादी सूचकांक के मामले में 180 राष्ट्रों में भारत का स्थान 138वां है. इस रिपोर्ट में कहा गया है: ‘शासक पार्टी को परेशान करने वाली कोई खोजपरक रिपोर्टिंग या हिंदुत्व - ऐसी विचारधारा जो हिंदू राष्ट्रवाद को लगभग एक फासीवादी चरित्र प्रदान कर देती है - की कोई भी आलोचना सामने आने पर इसके रिपोर्टर या लेखक को ढेरों ऑनलाइन गालियां और मौत की धमकियां झेलनी पड़ती हैं - और यह सब अधिकांशतः प्रधान मंत्री की ट्रॉल फौज द्वारा किया जाता है. यह बेलगाम मौखिक हिंसा एक ऐसे नेता के समर्थन में उगली जा रही है जो खुद को शक्तिशाली पुरुष घोषित करता है - ऐसा राजनेता, जिसका प्राधिकार रिपोर्टर्स या संपादकों की तनिक भी हानिकर बोलियों को बर्दाश्त नहीं करता है.’

दलितों और महिलाओं के खिलाफ रोजाना हिंसा

दलितों और अल्पसंख्यकों (खासकर मुस्लिमों और साथ ही, ईसाइयों) के खिलाफ संगठित राजनीतिक हिंसा में भारी इजाफा हुआ है.

दलितों और मुस्लिमों की भीड़ द्वारा पिटाई व हत्या, कश्मीर घाटी में सरकारी सैन्य बलों के द्वारा तथा पूरे देश में गैर-सरकारी भीड़ के हाथों कश्मीरियों के खिलाफ हिंसा, दलितों कार्यकर्ताओं और प्रतिवादकारियों की हत्या, तथा दलित-विरोधी हिंसा को चुनौती देने वाले दलित नेताओं - जैसे कि, भीम आर्मी के नेताओं - की गिरफ्तारी अब रोजमर्रा की बात हो गई है.

सबसे बुरी बात तो यह है कि महत्वपूर्ण राजनेता अपने भाषणों में ऐसी हिंसा को जायज ठहराते मिलते हैं और वे भारत के संविधान पर भी हमला कर रहे हैं. मुख्यधारा के मीडिया और व्हाट्सऐप का धड़ल्ले से इस्तेमाल कर ऐसी हिंसा के लिए उर्वर माहौल बनाया जा रहा है.

सभी मोर्चों पर नाकाम होकर जनता का आक्रोश झेलती मोदी सरकार सांप्रदायिक व जातिवादी नफरत फैलाते हुए जनता को विभाजित करना चाहती है. मोदी के लिए नफरत और हिंसा ही 2019 का चुनाव जीतने का एकमात्र जरिया रह गई है.

हमारे सामने चुनौती है कि हम इस नफरत-मुहिम को परास्त करें, विभाजनकारी हिंसा और पूर्वाग्रह को शिकस्त देने के लिए जनता की एकता सुनिश्चित करें और मोदी सरकार के झूठ और उसकी गद्दारी का मुकम्मल भंडाफोड़ करें.