क्रोनीवाद और भ्रष्टाचार: मोदी मार्का शासन के प्रतीक चिन्ह

मोदी सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) द्वारा गठित ‘शक्ति-प्रदत्त विशेषज्ञ समिति (ईईसी) की ओर से अभी तक अस्तित्व-हीन जियो इंस्टीट्यूट ऑफ रिलायंस फाउंडेशन को ‘इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस’ (उत्कृष्ट संस्थान - आइओई) का तमगा प्रदान करने का फैसला खुल्लमखुल्ला क्रोनीवाद (पिट्ठू या भाई-भतीजावाद) को रेखांकित करता है जो मोदी मार्का शासन का खास प्रतीक है.

तथ्य ये बतलाते  हैं कि एमएचआरडी ने ही ‘ग्रीनफील्ड कैटगरी’ (ऐसे प्रस्तावित संस्थान जिनकी स्थापना अभी हुई नहीं है) के लिए ऐसे नियम-कानून बनाए हैं जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि अंबानियों के अलावा कोई और इस कैटगरी के लायक खुद को साबित न कर सके. अब, स्वार्थों के टकराव का एक शास्त्रीय नमूना तो देखिये - आइओई योजना (जिसे उस वक्त ‘विश्व स्तरीय संस्थान’ योजना कहा जाता था) को मूर्त रूप देने के समय विनयशील ओबेरॉय एमएचआरडी सचिव थे, और दूसरी ओर वे मुकेश अंबानी की अगुवाई में उस 8-सदस्यीय जियो टीम के भी अंग थे जिसने ईईसी के समक्ष अपना प्रस्ताव रखा था.

मोदी सरकार और अंबानी ग्रुप के बीच क्रोनी रिश्ता तब और स्पष्ट हो जाता है, जब हम देखते हैं कि रिलायंस फाउंडेशन इंस्टीट्यूशन ऑफ एजुकेशन एंड रिसर्च (आरएफआइईआर) का एक कंपनी के रूप में उसी दिन पंजीकरण हुआ जिस दिन यूजीसी (वि.वि. अनुदान आयोग) ने प्रेस रिलीज जारी कर इंस्टीट्यूट ऑफ एमिनेंस के लिए प्रस्ताव आमंत्रित किए थे.

आइओई के लिए अधिसूचित नियम कानूनों को इस प्रकार निर्मित किया गया है कि अन्य अधिकांश संस्थान इस कैटगरी से बाहर हो जाएं और सिर्फ रिलायंस फाउंडेशन जियो इंस्टीट्यूट की अर्हता सुनिश्चित हो सके. एक नियम में कहा गया है कि प्रस्तावित संस्थान के ‘प्रायोजक संगठन’ के हर-एक सदस्य के पास कुल मिलाकर 50 अरब रुपये की शुद्ध संपत्ति होना जरूरी है. मुकेश अंबानी जैसे मुट्ठी भर लोगों के अलावा और कितने लोग होंगे जो इतनी विशाल ‘शुद्ध संपत्ति’ रखने का दंभ भर सकें? एक अन्य नियम में कहा गया है कि उस संगठन के पास ‘किसी भी क्षेत्र में (जरूरी नहीं कि उच्चतर शिक्षा के ही क्षेत्र में; लेकिन इसमें हो तो बेहतर) योजनाओं को वास्तविक उपलब्धियों में तबदील करने’ का पुख्ता इतिहास मौजूद हो - ये शब्द सुनिश्चित करते हैं कि उच्चतर शिक्षा के क्षेत्र में कोई अनुभव न होने के बावजूद रिलायंस इस क्षेत्र में ‘उत्कृष्टता’ के लिए अपना दावा पेश कर सके!

इसी बीच, मोदी सरकार के एक अन्य प्रसिद्ध क्रोनी और भाजपा को सबसे ज्यादा धन देने वाले वेदांता ग्रुप को ओडिशा में अपने प्रस्तावित विश्वविद्यालय की खातिर ‘उत्कृष्ट संस्थान’ का तमगा लेने के लिए आवेदन करने हेतु अंतिम समय-सीमा में एक महीने का विस्तार मिल गया. (स्मरण रहे, इसी ओडिशा राज्य में विशाल जन आंदोलनों के जरिए अल्युमिना रिफायनरी लगाने की वेदांता परियोजना को शिकस्त दी गई थी, क्योंकि उससे नियामगिरि पर्वत नष्ट हो जाता!)

जिन निजी संस्थानों को ‘उत्कृष्टता’ का तमगा दिया जाएगा, उन्हें ‘स्वायत्तता’ मिल जाएगी - यानी, वे मनमाना भारी-भरकम शुल्क वसूलेंगे और उत्पीड़ित जातियों के लिए आरक्षण प्रावधानों को लागू करने में भी आनाकानी करेंगे. मुंबई स्थित धीरूभाई अंबानी इंटरनेशनल स्कूल में एलकेजी से कक्षा 4 तक के लिए प्रति वर्ष 2.05 लाख रुपये और 11-12वीं कक्षा के लिए सालाना 9.65 लाख रुपये लिये जाते हैं. इतना भारी-भरकम शुल्क यह सुनिश्चित करने के लिए ही है कि इन स्कूलों में सिर्फ अति-धनिकों के बच्चों का पालन-शिक्षण हो सके!

‘उत्कृष्टता’ के लिए चयन की समूची प्रक्रिया भी त्रुटिपूर्ण है. सबसे भारी गड़बड़ी तो यह है कि ईईसी ने स्पष्टतः विभिन्न उच्च शिक्षा संस्थानों का कोई प्रत्यक्ष दौरा किए बगैर अथवा उनका मूल्यांकन और रैंकिंग किए बगैर ही अपनी चयन प्रक्रिया संपन्न कर ली, जबकि यूजीसी के गाइडलाइन में चयन-पूर्व यह सब करना अनिवार्य बताया गया है.

2014 में सर्वोच्च न्यायालय के एक महत्वपूर्ण फैसले में 1993 और 2009 के बीच हुए तमाम कोयला-ब्लाॅक आवंटनों को अवैध, मनमाना, अपारदर्शी तथा किसी क्रियाविधि के बगैर संपन्न हुआ घोषित किया गया था. यकीनन, ‘आईओई’ के लिए यह चयन भी मनमाना और अपारदर्शी है, इसीलिए अवैध भी है!

विडंबना देखिए कि जहां अजन्मे जियो इंस्टीट्यूट को ‘उत्कृष्ट’ घोषित किया जा रहा है, वहीं वंचित और पिछड़ी पृष्ठभूमि के छात्रों को अच्छी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने वाले मौजूदा विश्वविद्यालयों और आईआईटी संस्थानों को भारत सरकार ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दे रही है. उदाहरणार्थ, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक संघी कुलपति है जो वि.वि. के तमाम निर्णय-निर्माता निकायों को और लोकतांत्रिक मूल्यों को बर्बाद कर रहा है. जेएनयू के इस कुलपति के अवैध आदेशों का न्यायालय में बचाव करने वाला कोई दूसरा नहीं, बल्कि खुद भारत सरकार के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल हैं. अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ने अवैध और ऊटपटांग उपस्थिति पंजिका में दस्तखत न कर पाने वाले छात्रों को मिले दंड की हिमायत करते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय के एक जज से पूछा कि आप इस कदम पर अपना स्थगन-आदेश कैसे जारी कर सकते हैं! ये महोदय सरकार का पूरा बल ऐसी विनाशकारी नीतियों की तरफदारी में झोंक दे रहे हैं जिन्हें भारत के सर्वोत्तम उच्च शिक्षा संस्थान के शिक्षकों और छात्रों ने समान रूप से खारिज कर दिया है; साथ ही, ये न्यायपालिका को भी घुटने टेकने के लिए डरा-धमका रहे हैं.

क्रोनीवाद मोदी सरकार के लिए कोई नई चीज नहीं है. भाजपा-शासित झारखंड ने मोदी के क्रोनी और भाजपा को धन देने वाले गौतम अडानी की कंपनी को ही फायदा पहुंचाने के लिए 2016 में अपनी ऊर्जा नीति को संशोधित कर दिया, और अन्य ताप-विद्युत परियोजनाओं के मुकाबले इस कंपनी को सरकार से ज्यादा शुल्क वसूलने की इजाजत दे दी. झारखंड के सरकारी अकाउंटेंट कार्यालय से जारी ऑडिट रिपोर्ट में पाया गया है कि अडानी के साथ समझौता ‘तरजीही आचरण’ जैसा ही है, जिससे इस कंपनी को ‘बेजा लाभ’ मिलेगा. अडानियों और अंबानियों को ऋण-अदायगी की अंतिम समय सीमा में अनिश्चित विस्तार मिलते रहते हैं और उन्हें फायदा पहुंचाने के लिए ही नियम-कानून बनाए और बदले जाते हैं; जबकि नीरव मोदी और माल्या जैसे लोगों को सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की लूट करने, ऋण अदायगी में पूरी आनाकानी करने और इस बैंक-लूट की राशि के साथ देश से भाग जाने की सहज राह मुहैया करा दी जाती है.

मोदी सरकार में बिजली, कोयला व नवीकरणीय ऊर्जा राज्य मंत्री पीयूष गोयल ने अपने और अपनी पत्नी के स्वामित्व वाली एक कंपनी का समूचा शेयर उसके प्रकट मूल्य (फेस वैल्यू) के लगभग 1000 गुना कीमत पर एक गु्रप फर्म को बेच दिया जिसका मालिक अजय पिरामल है जो बिजली समेत बुनियादी ढांचा क्षेत्र में अरबों रुपये का निवेशकर्ता है. 2014-15 में एक मंत्री के बतौर प्रधान मंत्री कार्यालय को अपनी परिसंपत्ति व दायित्व से संबंधित दिये गए अपने अनिवार्य खुलासा वक्तव्य में गोयल ने अपनी उक्त कंपनी के शेयरों की बिक्री का कोई हवाला नहीं दिया.

स्टरलाइट तांबा संगलक संयंत्र और चेन्नै-सलेम ग्रीन एक्सप्रेस-वे जैसे प्रोजेक्ट भी संभावित भ्रष्टाचार के सवाल खड़े करते हैं: मोदी सरकार के क्रोनी समझे जाने वाले वेदांता, जिंदल और अडानी जैसे कारपोरेशनों को नियम-कानून तोड़ने और विनाशकारी प्रोजेक्ट लगाने की इजाजत क्यों मिल जाती है?

इस किस्म के खुल्लमखुल्ला क्रोनीवाद के उदाहरणों को प्रकाशित करने वाले पत्रकारों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा चलाने की धमकियां दी जाती हैं, जबकि अधिकांश मोदी मीडिया लोगों का ध्यान भटकाने की कार्यनीति अपनाते हैं; वे अल्पसंख्यकों, कार्यकर्ताओं और विपक्षी नेताओं के खिलाफ सांप्रदायिक पूर्वाग्रह और झूठी खबरें फैलाते हैं, और वे कभी भी भ्रष्टाचार के इन मामलों पर सरकार से जवाब-तलब का अपना कर्तव्य नहीं निभाते हैं.

भ्रष्टाचार के इन मामलों की जांच कौन करेगा ? मोदी शासन में केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए केंद्रीय निगरानी आयोग (सीवीसी) को यह लिखा कि ब्यूरो को ऐसे अफसर शामिल करने को कहा जा रहा है जो दागदार हैं और ‘ब्यूरो के द्वारा जांच किए जा रहे आपराधिक मामलों में संदिग्ध /अभियुक्त के बतौर जिनके खिलाफ सीबीआइ जांच चला रही है’! सीबीआइ ने बताया कि उसके दूसरे सबसे वरिष्ठ अधिकारी स्पेशल डायरेक्टर राकेश अस्थाना स्वयं अनेक मामलों में जांच के दायरे में हैं और इसीलिए डायरेक्टर आलोक वर्मा की अनुपस्थिति में ‘सीबीआइ में अफसरों को शामिल करने के लिए उनसे विचार-विमर्श नहीं किया जा सकता है.’ सवाल यह है - सरकार सीबीआई पर दबाव क्यों बना रही है कि वह आपराधिक मामलों के संदिग्धों/आरोपियों को अपने अफसरों के बतौर शामिल कर ले?

मेहनती और चौकस मीडिया के अभाव में भारत की जनता को ही मोदी सरकार के इस कंपनी राज का भंडाफोड़ और प्रतिरोध करना होगा, जो क्रोनीवाद और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गया है!