अलविदा शमशेर दा!

अपना संपूर्ण जीवन इस शोषणकारी सत्ता के शोषण और दमन के खिलाफ आवाज बुलंद करते हुए 22 सितंबर 2018 को डा. शमशेर सिंह बिष्ट इस दुनिया से चले गए. वे शमशेर दा के नाम से प्रिय थे और उत्तराखंड के अल्मोड़ा शहर में रहते थे. उत्तराखंड के जनसरोकारों से जुड़े ढेर सारे क्षेत्रीय नेताओं से वे इस मायने में अलग थे कि शमशेर दा पहाड़ की जनता की बुनियादी समस्याओं के समाधान को देश की बुनियादी समस्याओं के समाधान के अंदर ही देखते थे. यही कारण था कि अपनी युवावस्था में सर्वोदय आंदोलन के प्रभाव के साथ ही वे मार्क्सवाद से भी प्रभावित हुए.

1982 में देश भर के तमाम जन आंदोलनों और जन संगठनों को समेटते हुए बने इंडियन पिपूल्स फ्रंट (आईपीएफ) के वे संस्थापक सदस्य और उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष रहे. उन्होंने देश भर में संघर्षरत तमाम संगठनों के साथ अपनी आंदोलनात्मक एकता बरकरार रखी. उत्तराखंड से बाहर देश व दुनिया में उत्तराखंड के तमाम जन आंदोलनों के प्रतिनिधि के तौर पर उनकी एक विशिष्ट पहचान थी.

राजनीतिक आंदोलनों में उनकी शुरूआत छात्र जीवन में ही सन् 1973-74 में उत्तराखंड में हो रही वनों की नीलामी के खिलाफ चले आंदोलनों से हुई, जो बाद में उत्तराखंड में चले हर जन आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी के साथ बनी रही. इसी दौर में उन्होंने उत्तराखंड छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी का गठन किया. बाद में यही संगठन उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी बना और अंत में वह एक क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टी उत्तराखंड लोक वाहिनी में तबदील हो गया. डा. शमशेर सिंह बिष्ट वर्तमान में उत्तराखंड लोक वाहिनी के अध्यक्ष थे. वन आंदोलन और 1984 में चले सुरा-शराब विरोधी ‘नशा नहीं, रोजगार दो’ आंदोलन में उनकी नेतृत्वकारी भूमिका स्मरणीय और नई पीढ़ी को ऊर्जा देने वाली बनी रहेगी. शमशेर दा पिछले कुछ वर्षों से किडनी की बीमारी से जूझ रहे थे और दिल्ली के एम्स से उनका इलाज चल रहा था.