बिहार में विद्यालय रसोइयों की अनिश्चितकालीन हड़ताल जारी

बिहार में आशाकर्मियों के आंदोलन के सफल समापन के तुरंत बाद सरकारी विद्यालयों में मध्याह्न भोजन योजना से जुड़ी रसोइयों की जोरदार अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हो चुकी है. ऐक्टू से संबद्ध बिहार राज्य विद्यालय रसोईया संघ के साथ ही एटक, सीटू और एआईयूटीयूसी से संबद्ध- इन चार संघों के संयुक्त मंच ‘बिहार राज्य मध्याह्न भोजन रसोइया संयुक्त संघर्ष समिति’ के बैनर तले बिहार के 2.48 लाख विद्यालय रसोइया विगत 7 जनवरी से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं. 7 जनवरी से शुरू हुई इस हड़ताल में रसोईयों का पारिश्रमिक तुरंत बढ़ाने और उनका न्यूनतम वेतन 18 हजार रुपये करने की मुख्य मांग समेत सभी रसोइयों को सरकारी कर्मी का दर्जा, मातृत्व व विशेष मासिक अवकाश, ईपीएफ- ईएसआई-पेंशन तथा सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने समेत कुल 15 मांगें शामिल हैं. इससे पूर्व बिहार राज्य विद्यालय रसोइया संघ के नेतृत्व में पांच दिवसीय हड़ताल (5-9 अक्टूबर 2018) हुई थी.

रसोईया हड़ताल के पहले दिन पटना में रसोईया कर्मियों ने राजधानी पटना में प्रदर्शन किया. मुजफ्फरपुर के 13 प्रखंड मुख्यालयों पर बिहार राज्य विद्यालय रसोईया संघ के नेतृत्व में हजारों रसोईयों ने अपनी मांगों को लेकर प्रखंड मुख्यालयों पर जोशपूर्ण प्रदर्शन किया तथा सभा आयोजित की.

बिहार राज्य विद्यालय रसोईया संघ की राज्य अध्यक्ष सरोज चौबे ने फतुहा में हड़ताल का नेतृत्व किया. साथ ही बिहटा, आरा, बेगूसराय, भागलपुर, गया, पूर्वी चंपारण, मधुबनी, दरभंगा, छपरा, वैशाली, जमुई, मुंगेर, नालंदा, नवादा, जहानाबाद आदि जिलों में भी बिहार राज्य विद्यालय रसोईया संघ के नेतृत्व में रसोईया हड़ताल की शानदार शुरूआत हुई जो कि पूरे जोश-खरोश के साथ जारी है. रसोइयों ने 8-9 जनवरी की देशव्यापी आम हड़ताल में भी जोरदार भागीदारी की. हड़ताल के समर्थन में खेग्रामस (खेत व ग्रामीण मजदूर संगठन) ने 16 जनवरी को राज्य भर में प्रदर्शन/जुलूस संगठित करने का आहृान किया. रसोइयों की जारी अनिश्चितकालीन हड़ताल के 10 वें दिन यानी 17 जनवरी को डीएम पटना के कार्यालय परिसर का घेराव किया गया.

रसोइयों ने डाला महापड़ाव

अपने संघर्ष को और तीव्र करते हुये राज्य के कोने-कोने से आयी बीसीयों हज़ार विद्यालय रसोइयों ने 23-24 जनवरी को पटना के गर्दनीबाग में पहुंचकर दो दिवसीय महापड़ाव डाल दिया.

हड़ताल के 17वें दिन शुरू हुए महापड़ाव में शामिल रसोइया ‘नीतीश कुमार शर्म करो, रसोइयों को सम्मान दो’, ‘पूरे काम का पूरा दाम दो’, ‘12 सौ में दम नहीं, 18 हज़ार से कम नहीं’ का नारा लगा रही थीं.

बिहार राज्य विद्यालय रसोइया संघ की राज्य अध्यक्ष सरोज चौबे समेत संयुक्त संघर्ष समिति के चार सदस्यीय अध्यक्ष मंडल ने मुख्यमंत्री घेराव व महापड़ाव कार्यक्रम की अध्यक्षता की.

महापड़ाव को उक्त नेताओं के अलावा केंद्रीय ट्रेड यूनियनों व राज्य संघों के नेताओं - ऐक्टू राज्य महासचिव आरएन ठाकुर, सचिव रणविजय कुमार, गणेश शंकर सिंह (सीटू), नारायण पूर्वे (एटक), प्रमोद कुमार (एआईयूटीयूसी), रामबली प्रसाद (ऑल इंडिया स्कीम वर्कर्स फेडरेशन), शशि यादव (बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ) और ऐपवा राष्ट्रीय महासचिव मीना तिवारी के साथ ही सोहिला गुप्ता (विद्यालय रसोइया संघ) तथा राज्य भर से आयी रसोइया नेताओं ने भी संबोधित किया. भाकपा-माले के तीनों विधायक महबूब आलम, सत्यदेव राम और सुदामा प्रसाद ने महापड़ाव स्थल पहुंच राज्य भर से पहुंची रसोईयों को सम्बोधित किया. उन्होंने कहा कि रसोईयों की मांगें पूरा करने के सवाल पर वे विधान सभा सत्र में सरकार को घेरेंगे और उनकी मांग को जोरशोर से उठाएंगे.

नेताओं ने नीतीश सरकार पर समाज के सबसे दबे-कुचले व सामाजिक न्याय की प्रबल दावेदार बिहार के ढाई लाख रसोइयों के साथ अन्याय करने तथा उनके हक-अधिकार की मांगों से भागने का आरोप लगाते हुए कानून का राज और महिला सशक्तीकरण का ढोंग बन्द करने को कहा. बिहार में कार्यरत विद्यालय रसोइया जिनमें करीब 95 प्रतिशत महिलाएँ हैं, समाज के कमजोर, दलित, अतिपिछड़ा समुदाय से आती हैं जिनमें बड़ी संख्या में विधवाएं है. उन्होंने कहा कि रसोइयों जैसा काम करनेवाले घरेलू कामगारों के लिए न्यूनतम 6109रु. मजदूरी लागू है जबकि मात्र 1250रु. मासिक दिया जा रहा है. वह भी साल में महज 10 माह के लिए. यह जीवनयापन के लिए जरूरी न्यूनतम राशि से भी बहुत कम है.

नेताओं ने नीतीश सरकार से लाखों गरीब बच्चों के हित में मांगें मानते हुये हड़ताल को समाप्त करने की पहल करने की मांग की. मांगें पूरी न होने पर आगामी 4 फरवरी को रेल, रोड सहित पूरे बिहार का चक्का जाम करने का ऐलान महापड़ाव ने किया.

28 जनवरी को बिहार राज्य रसोइया संघ (ऐक्टू) से जुड़े सैकड़ों रसोइयों ने संघ अध्यक्ष सरोज चौबे, ऑल इंडिया स्कीम वर्कर्स फेडरेशन अध्यक्ष रामबली प्रसाद और ऐक्टू राष्ट्रीय सचिव रणविजय कुमार के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद से मिलकर उन्हें 15 सूत्री मांगपत्र सौंपा.

इसी बीच एमडीएम निदेशक ने हड़ताली रसोईयों के खिलाफ उन्हें काम से हटाने का धमकीभरा आदेश जारी किया जिसे पूरे राज्य में जगह जगह रसोइयों द्वारा जलाया गया. बजट 2019 में केंद्र सरकार द्वारा रसोइयों को कुछ नहीं देने के खिलाफ 2 फरवरी को राज्यभर में प्रधानमंत्री के पुतले जलाये गये. राज्य में रसोइयों का संघर्ष जारी है.

एक मिड-डे मील (एमडीएम) कर्मी को कितना वेतन मिलता है?

केन्द्र सरकार ने 2009 से लेकर अब तक एमडीएम रसोइया के ”मानदेय” में कोई संशोधन नहीं किया है. बिहार में इन्हें सिर्फ 1250रु. प्रतिमाह दिए जाते हैं, जिसमें 1000रु. केन्द्र देता है और 250रु. राज्य सरकार वहन करती है. राजस्थान में यह राशि 1320रु. है और वह भी संघर्षों के चलते. इस तथाकथित वेतन में से भी ग्रीष्मावकाश, शीतकालीन अवकाशों और दिवाली की छुट्टी के पैसे काट लिए जाते हैं.

छत्तीसगढ़ में यह राशि 1200रु. है, प. बंगाल में 1500रु., उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में 1000रु., ओडीशा में 1400रु. और तेलंगाना में 1200रु. है. गुजरात में, संचालक को 1600रु. मिलते हैं जबकि खाना बनाने वालों को 1400रु. मानदेय मिलता है और सहायक के मानदेय का हिसाब बच्चों की संख्या के अनुसार लगाया जाता है जो प्रतिमाह 800 से 1000रु. तक होता है.

केरल में एमडीएम के तहत कुक-कम-हेल्पर (यानी खाना बनाने वाले का सहायक) को 150 बच्चों की संख्या के हिसाब से हर कार्यकारी दिन में 400 रु. दिए जाते हैं. अगर बच्चों की संख्या 150 से ऊपर हो तो उसे प्रति बच्चा 25 पैसा दिया जाता है, जो कि 475रु. के वेतन से अधिक नहीं होता है. तो औसतन हर खाना पकाने वाली महिला को प्रतिमाह 9000 रु. की राशि प्राप्त होती है. कर्नाटक में मुख्य रसोइया को 2600रु. मिलते हैं और उसके सहायक को 2500 रु. मिलते हैं. तमिलनाडु में यह राशि 6000रु. है.

सच्चाई तो यह है कि उन राज्यों में भी जिनमें ये राशि ज्यादा है, ये न्यूनतम वेतन से बहुत कम है और इन कर्मचारियों को सरकारी कर्मचारी नहीं माना जाता और उन्हें पेंशन, मातृत्व अवकाश और अन्य लाभ नहीं मिलते. 45वें और 46वें भारतीय श्रमिक सम्मेलन ने ये सिफारिश की थीं कि स्कूल में खाना बनाने वालों को श्रमिक का दर्जा दिया जाए और उन्हें पेंशन, ईएसआई, पीएफ और अन्य लाभ दिए जाएं. आखिर सरकार इन सिफारिशों को लागू करने से क्यूं कतरा रही है?

इसके बजाय मोदी सरकार ने 2015 में गर्म बने हुए खाने की जगह पेप्सी कंपनी द्वारा दिए जाने वाले पैक्ड खाना देने पर विचार किया था! हरसिमरत कौर बादल जो खाद्य एवं प्रसंस्करण मंत्रालय में मंत्री थीं, ने पेप्सी की चेयरपर्सन और सीईओ इंदिरा नूयी से इस बारे में मुलाकात की थी. गर्म खाने की जगह ”फोर्टिफाइड बिस्कुट” देने के ऐसे ही प्रस्ताव यूपीए के शासनकाल में भी लाए गए थे. भाजपा सरकार के अंतर्गत अंडे - जो कि प्रोटीन और अन्य पोषक तत्वों के बेहतरीन स्रोत हैं - को स्कूल के एमडीएम की खाद्य सूची से ही हटा दिया गया.

ग्रामीण भारत में शिक्षा के स्तर और पोषण और स्वास्थ्य सूचकों को बेहतर बनाने में स्कूल के खाने के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता. हमें अन्य देशों के उदाहरणों से सीख लेनी चाहिए. इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण जापान है, जहां हर बच्चे को स्कूल में गर्म, स्वादिष्ट और संतुलित खाना मिलता है, और स्कूल का दोपहर का भोजन इतना स्वादिष्ट होता है कि अकसर अभिभावक उसे बनाने की विधि मांगते हैं.

जापान के एक स्कूल स्वास्थ्य शिक्षा के निदेशक ने 2013 में वाशिंगटन पोस्ट को बताया कि, ”जापान में ये नज़रिया है कि स्कूल का दोपहर का भोजन शिक्षा का हिस्सा है, उससे अलग नहीं है. मेरे लिए ये बताना बहुत मुश्किल है कि अगर हम ऐसा कर सकते हैं तो दूसरे देश ऐसा क्यों नहीं कर सकते.” इस स्कूल के दोपहर के भोजन के चलते ही जापान में ग़रीबी के चलते होने वाला कुपोषण लगभग खत्म हो गया है.

मोदी जापान की बुलेट ट्रेन को भारत लाने और बनारस को क्योटो बनाने की शेखी बघारते हैं. तो आखिर उनकी सरकार जापान की इस प्रशंसनीय मिड-डे मील स्कीम को भारत लाने की कोशिश क्यों नहीं करती, जो बच्चों के बीच वैसे ही बहुत लोकप्रिय है.