‘‘दिल्ली में प्रदूषण और जन-परिवहन का हाल, हर नागरिक का ज्वलंत सवाल’’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन

दिल्ली के गांधी शांति प्रतिष्ठान में 19 जनवरी 2019 को “दिल्ली में प्रदूषण और जन-परिवहन का हाल, हर नागरिक का ज्वलंत सवाल“ विषय पर परिचर्चा आयोजित हुई.

परिचर्चा में भाग ले रहे प्रमुख विशेषज्ञ वक़्ता प्रोफ़ेसर दुनु रॉय, प्रोफ़ेसर गीतम तिवारी, प्रोफ़ेसर अनिता घई के साथ ही संतोष राय और कंवलप्रीत कौर ने पूरी परिचर्चा में इस महत्वपूर्ण मुद्दे को ना सिर्फ समझने में मदद की बल्कि इससे निकलने के संघर्ष में आम-जन की बृहत भूमिका को भी चिन्हित किया.

हज़ार्ड सेंटर (खतरा केंद्र) के निदेशक दुनु रॉय ने साफ कहा कि शहरों के विकास और निर्माण की दिशा में हमेशा एक ख़ास वर्ग को प्राथमिकता दी जाती रही है. विकास और टाउन प्लानिंग में पूंजी को इस तरह निवेश किया जा रहा है जिससे ख़ास वर्ग को आर्थिक लाभ तो होता है, लेकिन शहर में बसने वाला बड़ा वर्ग, आम लोगों के हिस्से सिर्फ परेशानियां आती हैं. उन्होंने अपने शोध के आधार पर बताया कि दिल्ली और आसपास सुबह और शाम के वक्त ख़तरनाक प्रदूषण होता है और दिन भर में इसमें उतार चढ़ाव होता रहता है, जो स्पष्टतः सड़कों पर वाहनों की मौजूद संख्या की तरफ इशारा करता है. उन्होंने कहा कि धूल कणों के अलावा हवा में मौजूद विभिन्न तरह की विषैली गैस दिल्ली के लोगों के लिये लगातार धीमे ज़हर का काम कर रहा है. उन्होंने इसका सीधा संबंध सड़क पर जन-परिवहनों की कमी और बढ़ते निजी वाहनों की संख्या से जोड़ कर देखा. बढ़ते प्रदूषण की मार सबसे अधिक बच्चों, बुज़ुर्गों और महिलाओं पर पड़ती है, एक शोध से यह भी पता चला कि 10 में से 8 बच्चों के फेफड़े कमजोर थे और इनमें से अधिकांश बच्चे पुनर्वास कॉलोनियों, बस्तियों में रहने वाले और सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले थे, लेकिन दिल्ली को प्रदूषित करने में इनका योगदान नहीं के बराबर है. प्रो0 दुनु रॉय ने 2002 मास्टर प्लान का भी जिक्र रखा, जिसकी अवधि 2021 में ख़त्म हो रही है, के अनुसार दिल्ली शहर और आसपास के 60 प्रतिशत लोग बस से, 18 प्रतिशत साइकल से और मात्र 17 प्रतिशत लोग निजी वाहन से शहर में यात्रा करने वाले थे, लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. दिल्ली में साईकल और पैदल चलने वाले लोग औरों के वाहनों के छोड़े धुंए से बीमार हो रहे हैं. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि इस विषय पर परिचर्चा सिर्फ स्कूल, कॉलेज या सभागारों तक सीमित ना रखी जाए बल्कि इसे पुनर्वास कॉलोनियों, बस्तियों और हर आम आदमी तक पहुंचाया जाना चाहिए और इस मुद्दे पर नीति-निर्धारकों के सामने डटने की जरूरत है.

ट्रिप आईआईटी, दिल्ली की प्रोफ़ेसर गीतम तिवारी ने कहा कि किसी भी शहर की परिवहन व्यवस्था शहर के नागरिक समाज और आर्थिक गति को प्रभावित करती है, नीति निर्धारण में अत्यंत सावधानी की जरूरत है, क्योंकि परिवहन व्यवस्था के दुष्परिणाम जैसे प्रदूषण, दुर्घटना और प्रदूषण से इतर होने वाली स्वास्थ्य समस्याएं अब विकराल रूप लेने लगी हैं. उन्होंने सरकारों की परिवहन नीतियों की चर्चा की और कहा कि नीतियां बनाने और उसे लागू करने में ही बड़ा फर्क होता है और जल्दबाजी में बग़ैर किसी शोध के ही लागू कर दिया जाता है. सीएनजी बसों के आने के बाद से हवा में नाइट्रोजन ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा की तरफ़ उन्होंने इशारा किया. उन्होंने लगातार नए निजी वाहनों के निर्माण और उसे बेचे जाने की नीतियों पर सवाल उठाया और किसी शहर की परिवहन व्यवस्था और प्रदूषण से निपटने की नीति निर्धारण में जन संगठनों, शोध संस्थानों, विशेषज्ञों और सरकारी संस्थाओं की भागीदारी को महत्वपूर्ण बताया. उन्होंने 2011 के एक सर्वे का हवाला देते हुए बताया कि मेट्रो के बावजूद दिल्ली के अधिकांश कामकाजी लोग बस, साईकिल या पैदल यात्रा करते हैं, ऐसे में सुविधाजनक बस को बेहतर जन-परिवहन के रूप में बढ़ाने की बेहद जरूरत है और उन्होंने सरकारों के उदासीन नजरिये का जिक्र करते हुए चिंता व्यक्त की. उन्होंने पैदल चलने वालों और साईकल चालन करने वालों के लिए दिल्ली सड़क व्यवस्था में कोई स्थान ना होने पर भी गंभीर चिंता व्यक्त करते हुए इससे बढ़ते सड़क हादसों की ओर इशारा किया.

अम्बेडकर यूनिवर्सिटी से प्रो0 अनिता घई ने किसी भी तरह के दिव्यांग (विकलांग) नागरिकों के प्रति दिल्ली-एनसीआर में लागू जन-परिवहन नीति को अमानवीय ही नहीं सम्मान को ठेस पहुंचाने वाला बताया. उन्होंने कहा कि किस तरह से बस व्हील चेयर वालों के लिये रैम्प खोलना नहीं चाहते, किस तरह बस-स्टॉपों पर सिर्फ खानापूर्ति के लिये रैम्प बने होते हैं, दिल्ली के अधिकांश बस स्टॉपों की हालत ख़राब है, सुन ना सकने और देख ना सकने वाले यात्री बिना किसी की मदद के जन-परिवहन का इस्तेमाल नहीं कर सकते. मुख्य सड़क से बस्तियों और कॉलोनियों के अंदर जाने वाली सड़कें ख़राब और संकरी है, ऐसा लगता है विकलांग लोगों को घर तक पहुंचाने की चिंता सरकारों की चिंता नहीं हैं. उन्होंने मेट्रो स्टेशनों से लास्ट स्टॉप कनेक्टिविटी पर चिंता जताई और कहा कि सरकारों और संस्थाओं की नीति निर्धारण के वक़्त विकलांगों के बारे में सोचा ही नहीं जाता. प्रोफ़ेसर अनिता ने शहर के नीति निर्धारकों और समाज, दोनों को विकलांग के प्रति ज़िम्मेदार और समानता का नज़रिया रखने की मांग की और कहा कि शहर पर, सड़कों पर, परिवहन व्यवस्था पर उनका भी समान अधिकार है.

डीटीसी वर्कर्स यूनिटी सेंटर (संबद्ध ऐक्टू) के अध्यक्ष संतोष राय ने प्रदूषण और दुर्घटनाओं में निजी वाहनों की भागीदारी का जिक्र तो किया ही, लेकिन दिल्ली के मुख्य जन-परिवहन डीटीसी बसों की हालत और उनके कर्मचारियों के प्रति सरकार के नजरिये को भी जमकर कोसा. उन्होंने दिल्ली सरकार द्वारा क्लस्टर बस सेवा चलाने को निजी कंपनियों के लिये मुनाफाखोरी का धंधा बताया और जल्द से जल्द दिल्ली के लिये 11,000 डीटीसी बसों की मांग की. उन्होंने बताया कि क्लस्टर और डीटीसी की लगभग 5,600 बसें हैं जिनमें से 10 प्रतिशत ब्रेक डाउन की शिकार होती हैं, इनमें से 21 प्रतिशत बसें अपनी उम्र के अंतिम पड़ाव में हैं. उन्होंने डीटीसी कर्मचारियों के सेवा शर्तों को ठीक करने, अनियमित कर्मचारियों को नियमित करने और ड्यूटी के घंटे मानवीय करने की बात रखी. उन्होंने दिल्ली निवासियों से अपील की और कहा कि अब वक़्त आ गया है कि दिल्ली के नागरिक “मेरी दिल्ली-मेरी डीटीसी“ का नारा अपनाएं और शहर में सुलभ, सस्ती यात्रा प्रदान करने और हर कोने में पहुंचाने के लिए डीटीसी बसों की संख्या बढ़ाने के लिये सरकार पर दबाव बनाने में साथ देने का आग्रह किया.

दिल्ली में छात्र संगठन आइसा की अध्यक्षा कंवलप्रीत कौर ने छात्र-छात्राओं के नजरिये से दिल्ली में उपलब्ध जन-परिवहन के हालात पर चर्चा की. यूनिवर्सिटी बसों की कमी, मेट्रो के बढ़ते किराये का जिक्र करते हुए कंवलप्रीत ने दिल्ली में छात्रों के लिए बस पास और मेट्रो किराये के खिलाफ छात्रों के संघर्ष का जिक्र किया, साथ ही जन-परिवहन और प्रदूषण पर दिल्ली के नागरिक समाज के बीच समझ के साथ काम करते हुए सरकारों पर दबाव बनाने की जरूरत पर बल दिया.

सभी वक्ताओं ने एआईपीएफ (ऑल इंडिया पीपुल्स फोरम) दिल्ली की इस पहल का स्वागत किया और जन-परिवहन और प्रदूषण के बेहतरी वाले आंदोलन को समर्थन का आश्वासन दिया. दिल्ली, एआईपीएफ आने वाले समय में जल्द ही नागरिक समाज, इस क्षेत्र में काम कर रहे संगठनों के साथ मिलकर जन परिवहन और प्रदूषण के सवाल को एक राजनैतिक सवाल के तौर पर स्थापित करने का हर संभव प्रयास करेगा.

परिचर्चा का संचालन एआईपीएफ, दिल्ली के संयोजक मनोज सिंह ने किया.