ऑर्डनेंस श्रमिकों की सफल हड़ताल ने आंदोलन की राह दिखाई

मोदी-शाह सरकार अपनी दूसरी पारी की पहली तिमाही पूरी कर रही है, और उसने पंजे मारने शुरू कर दिए हैं. यह सरकार तीन तलाक और कश्मीर मुद्दे पर अपने कदमों से लोगों को चाहे जितना भी खुश करने और उनके दिमाग से अन्य बातों को निकाल देने की कोशिश क्यों न करे, पूरे भारत के लोग अब आर्थिक मंदी के विनाशकारी असर के बारे में खुलकर चर्चा करने लगे हैं. वित्त मंत्री की देर से आई स्वीकारोक्ति और रिजर्व बैंक के अधिशेष से 1,76000 करोड़ रुपये केंद्र सरकार के कोष में डाल देने की घटना ने चरम आर्थिक संकट के बारे में आम जन की बढ़ती समझ को ही संपुष्ट किया है.

सरकार और निजी कॉरपोरेशनों के लिए मंदी का मतलब है धनिकों के लिए ‘बेल आउट’ (संकट मोचक) पैकेज तथा गरीबों के लिए कमखर्ची का चाबुक, सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों का निजीकरण और श्रम-अधिकारों में कटौतियां. इसीलिए, मेहनतकश अवाम को अपने अधिकारों व हितों के लिए और ज्यादा चौकस व संकल्पबद्ध होना पड़ेगा. ऑर्डनेंस (प्रतिरक्षा) कारखाना श्रमिकों की पांच-दिवसीय अभूतपूर्व संपूर्ण हड़ताल और इसके समर्थन में रेल उत्पादन इकाइयों के मजदूरों की दिन भर की एकतामूलक भूख हड़ताल ने मौजूदा संकट और जनता के कंधों पर संकट के बोझ को लाद देने की मोदी सरकार की कोशिशों के प्रति मजदूर वर्ग के जवाब की सही दिशा तय कर दी है.

भारत के प्रतिरक्षा उद्योग के संपूर्ण श्रमबल की 5-दिवसीय हड़ताल (20-24 अगस्त 2019) भारतीय मजदूर वर्ग आंदोलन में एक मील का पत्थर बनी रहेगी. प्रतिरक्षा क्षेत्र को 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) के लिए खोल देने तथा प्रतिरक्षा उत्पादन को एक निगम के अंतर्गत पुनर्गठित करने का सरकारी कदम इस सामरिक क्षेत्र के निजीकरण का स्पष्ट संकेतक है. भारत पहले ही दुनिया का सबसे बड़ा शस्त्र आयातक देश बन चुका है. अब एफडीआइ और निगमीकरण/निजीकरण मुहिम के चलते वैश्विक युद्ध अर्थतंत्र तथा सैन्य-औद्योगिक कंप्लेक्स के साथ भारत के एकीकरण की प्रक्रिया और तेज हो जाएगी. इस पृष्ठभूमि में, सरकार की इस खतरनाक योजना के खिलाफ प्रतिरक्षा उद्योग के श्रमिकों द्वारा एक महीने की हड़ताल की घोषणा सचमुच एक बड़ी बात थी.

इन श्रमिकों के गहरे विक्षोभ और लड़ाकू मानसिकता ने भाजपा-समर्थक बीएमएस समेत तमाम फेडरेशनों को हड़ताल में शामिल होने के लिए बाध्य कर दिया. इन फेडरेशनों और सरकार के बीच एक समझौते के बाद वापस ली गई इस पांच-दिवसीय हड़ताल में सभी 41 प्रतिरक्षा कारखानों और इनसे जुड़े कार्यालयों के समस्त कार्यबल की लगभग पूर्ण भागीदारी देखी गई.

रेल उत्पादन इकाइयों के श्रमिक भी निगमीकरण व निजीकरण का ऐसा ही खतरा झेल रहे हैं और इसके खिलाफ आंदोलनरत हैं, इसीलिए वे लोग भी एक-दिवसीय एकतामूलक भूख हड़ताल में उतर पड़े. वित्तीय क्षेत्र के मजदूर और कर्मचारी तथा तमाम केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के कार्यकर्ता प्रतिरक्षा श्रमिकों की इस ऐतिहासिक हड़ताल के समर्थन में खड़े थे. जब सरकार इन श्रमिकों द्वारा उठाए गए तमाम सरोकारों पर गौर करने के लिए सहमत हुई तो उनके फेडरेशनों ने 5 दिन के बाद हड़ताल वापस कर लेना उचित समझा. हालांकि इस मसले का निपटारा होना अभी बाकी है, फिर भी मजदूर वर्ग ने मोदी सरकार की निजीकरण मुहिम का प्रतिरोध करने की अपनी तत्परता और संकल्पबद्धता साफ-साफ प्रदर्शित कर दी है.

प्रतिरक्षा श्रमिकों की इस हड़ताल को जिस चीज ने सचमुच ऐतहासिक बना दिया, वह है मौजूदा राजनीतिक परिस्थिति और गहराती आर्थिक मंदी. अपनी दूसरी पारी में मोदी-शाह सरकार पहले दिन से ही संसद और जनता पर प्रहार करने लगी है. धारा 370 को हटाने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित क्षेत्रों में तोड़ देने की चौंकाने वाली घोषणा इस चौतरफा हमले की पराकाष्ठा थी. संघ-भाजपा ब्रिगेड इस हमले पर नाच-गान कर रहा है, जबकि विपक्ष संसदीय अखाड़े में साफ-साफ विभाजित और हताश नजर आया. इस पृष्ठभूमि में यह प्रतिरक्षा हड़ताल जनता और संगठित मजदूर वर्ग के विपक्ष को सामने लाकर काफी महत्व धारण कर लेती है. 24 सितंबर की कोयला मजदूरों की हड़ताल इस संगठित मजदूर वर्ग विपक्ष को और अधिक मजबूत बनायेगी.

मोदी तंत्र राष्ट्रवाद के जुगालीभरे ईंधन से संचालित होता है और सरकार के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताकर खामोश कर देने की कोशिश की जाती है. विडंबना तो यह है कि राजनीति में राष्ट्रवाद का यह लगातार मंत्र-जाप आर्थिक क्षेत्र में राष्ट्रीयकरण तथा सार्वजनिक क्षेत्र के खिलाफ निरंतर युद्ध के साथ-साथ चल रहा है.

संघी-भाजपाई प्रचार मोदी को भारत के अब तक के सबसे शक्तिशाली प्रधान मंत्री के बतौर उछाल रहा है, जो भारत को मजबूती की नई ऊंचाइयों तक ले जा रहे हैं. लेकिन अर्थतंत्र पर गहरी निगाह डालने से हमें दिखता है कि रुपये की गिरती कीमत, आर्थिक वृद्धि व निर्यात में आ रही कमी तथा बढ़ती बेरोजगारी के साथ भारत सबसे कमजोर देश बनता जा रहा है. और, सामाजिक मोर्चे पर भी देश धीरे-धीरे खोखला होता जा रहा है, क्योंकि सांप्रदायिकता और जातीय उत्पीड़न के चलते इसका  सामाजिक तानाबाना छिन्न-विच्छिन्न हो रहा है तथा हमारी सांस्कृतिक विविधता व संघीय ढांचे को लगातार केंद्रीकृत होते राज्य और इसके संपूर्ण एकरूपीकरण (होमोजेनाइजेशन) एजेंडे के द्वारा रौंदा जा रहा है.

इस मोड़ पर जनता का शक्तिशाली प्रतिरोध ही भारत को बचा सकता है. और, भारत का प्रभुत्वशाली मीडिया रविदास मंदिर ध्वंस के खिलाफ दिल्ली में हुए प्रतिवादों, प्रतिरक्षा श्रमिकों की हड़ताल अथवा कश्मीर के प्रति देशव्यापी एकजुटता कार्रवाइयों की खबरों को चाहे जितना दबा ले, लेकिन सच तो यही है कि भारत की एक अरब से भी ज्यादा आजादी-पसंद और लोकतंत्र-पसंद जनता निश्चित प्रतिकार में उतर पड़ी है.