वर्ष 2018 को फासीवाद के खिलाफ जन एकता और प्रतिरोध का वर्ष बना दो!

वर्ष 2017 को मुसलमानों एवं ईसाई अल्पसंख्यकों पर, दलितों और मोदी शासन के आलोचकों पर, और भारत के संविधान तथा राज्य-प्रणाली के धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक चरित्र पर हुए कई बदतरीन हमलों के लिये याद किया जायेगा.

इस वर्ष क्रिस्मस आने से पहले ही ईसाइयों पर संघ गिरोह के गुंडों द्वारा हमलों का सिलसिला चल पड़ा है. क्रिस्मस से दस दिन पहले मध्य प्रदेश में कैरोल गायकों पर हमला किया गया और पुलिस थाने के परिसर में ही उनकी कार को आग के हवाले कर दिया गया. जैसा कि अब पूर्वानुमान योग्य दस्तूर बन चुका है, पुलिस ने हमलावरों को गिरफ्तार नहीं किया, उलटे उन्होंने कैरोल गायकों पर ही ‘जबरदस्ती धर्मान्तरण कराने’ का मुकदमा दर्ज कर लिया. कैरोल गायकों पर उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ में भी चाकू से हमला किया गया, जिसके चंद दिन पहले एक संघी संगठन हिंदू जागरण मंच ने अलीगढ़ के ईसाई स्कूलों को क्रिस्मस मनाने के खिलाफ चेतावनी देते हुए चिट्ठी भेजी थी और उन पर आरोप लगाया था कि वे इससे ‘हिंदू छात्रों को लोभ दिखाकर ईसाई धर्म की ओर खींचने की कोशिश कर रहे हैं’. उत्तर प्रदेश के ही मथुरा में एक घर के अंदर प्रार्थना कर रहे ईसाइयों को ‘जबर्दस्ती धर्मांतरण करने’ का आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया गया. दुनिया भर में ईसाइयों पर होने वाले हमलों के बारे में किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि वर्ष 2017 के पहले छह महीनों में भारत में ईसाइयों पर जितने हमले हुए हैं, उतने हमले तो 2016 के समूचे वर्ष में कुल मिलाकर हुए थे.

ठीक जिस तरह दलितों पर हुए हमलों की घटनाओं का विरोध करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं पर गुजरात में चुनाव के दौरान भाजपा द्वारा ‘जातिवाद’ का आरोप लगाया गया था, उसी तरह भाजपा नेतृत्व द्वारा धार्मिक अल्पसंख्यकों पर - उन पर हमला करने वालों पर नहीं - ‘साम्प्रदायिक’ होने का आरोप लगाया जा रहा है. ईसाइयों पर हो रहे इन हमलों का धूर्ततापूर्वक अनुमोदन का संदेश देते हुए भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने क्रिस्मस की पूर्वसंध्या पर कैरोल गायकों से गीत सुनने की परम्परा को जारी रखने से इन्कार कर दिया है. उन्होंने बहाना यह बनाया है कि उनका कैरोल सुनना इसलिये अनुचित होगा क्योंकि भारत एक ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ है. विडम्बना यह है कि जहां भारत के राष्ट्रपति ने क्रिस्मस के समारोह से किनारा करने के लिये ‘धर्मनिरपेक्षता’ का बहाना बनाया, वहीं उनके पार्टी सहयोगी केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने कर्नाटक में, जहां चुनाव होने वाले हैं, एक भाषण में उन लोगों को चेतावनी दी जो धर्म या जाति के आधार पर अपनी पहचान बताने की जगह खुद को ‘धर्मनिरपेक्ष’ बताते हैं, और कहा कि उन्हें ‘दिक्कतों का सामना करना होगा’ क्योंकि भाजपा ‘संविधान को बदलने के लिये ही सत्ता में आई है’.

दिसम्बर 2017 राजस्थान में बाकायदा वीडियोग्राफी करते हुए अफराजुल की वीभत्स हत्या के लिये भी जनता की स्मृति को झुलसाता रहेगा. अब यह स्पष्ट हो गया है कि हत्यारे शम्भू लाल का दिमाग संघी नफरत फैलाने वाले वीडियो टेपों से भरा हुआ था, और उसने अफराजुल की हत्या इसलिये की थी कि वह खुद इसी किस्म के एक वीडियो में हीरो बनकर सामने आना चाहता था और इस तरह फासीवादी नफरत फैलाने वाले ग्रुपों की नजरों में ‘हीरो’ बनना चाहता था. न सिर्फ उन ग्रुपों ने वीडियो को सोशल मीडिया पर सर्वत्र प्रचारित कर दिया; बल्कि पुलिस ने उन्हें प्रतिबंध के आदेशों का उल्लंघन करते हुए हत्यारे शम्भू लाल के समर्थन में हिंसक प्रदर्शन करने की इजाजत दे दी, इतना ही नहीं उन्हें उदयपुर की अदालत की छत पर चढ़कर ‘हिंदू राष्ट्र’ का भगवा झंडा फहराने भी दिया. जहां एक ओर काफी देर करने के बाद प्रतीकी तौर पर गिरफ्तारी करके इन अपराधियों को तुरंत जमानत पर रिहा कर दिया गया, वहीं हत्या का प्रतिवाद करने वाले मुसलमानों को गिरफ्तार करके जमानत पर रिहा करने से इनकार कर दिया गया और वामपंथी संगठनों को शांति मार्च करने की इजाजत तक नहीं दी गई!

अफराजुल की हत्या भाजपा-शासित राजस्थान में मुसलमानों की हत्याओं की शृंखला की महज एक कड़ी है - इनमें कई मुसलमान तो ‘गौरक्षा’ के नाम पर भीड़-गिरोहबंदियों द्वारा पीट-पीटकर मार डाले गये. और जब नया साल आने वाला है, तब राजस्थान के भाजपा विधायक ज्ञान देव अहूजा ने खुलेआम इन हत्याओं को जाएज ठहराते हुए चेतावनी दी है कि इस तरह की घटनाएं आगे भी घटित होती रहेंगीः ‘अगर तुम गायों की तस्करी करोगे या उनकी हत्या करोगे तो यकीनन तुम्हारी हत्या कर दी जायेगी’. इसी बीच उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने 298 मदरसों के स्टाफ का वेतन रोक दिया है और दावा किया है कि ये मदरसे अपेक्षित दस्तावेज दाखिल नहीं कर सके हैं. इसके अलावा दिसम्बर 2017 में तेलंगाना के एक भाजपा विधायक ने हिंदूओं का आहृान किया है कि जो कोई उनके हिंदू राष्ट्र के लक्ष्य के सामने बाधा बनकर आयेगा उसका ‘सफाया कर देने’ के लिये हिंदूओं को तलवार उठानी होगी.

उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में एक भाजपा नेता के नेतृत्व में एक शादी के समारोह पर इसलिये हमला किया गया क्योंकि भाजपा नेता का दावा था कि यह ‘लव जिहाद’ का मामला है, क्योंकि मुस्लिम दूल्हा और हिंदू दुल्हिन ने शादी के लिये भाजपा से इजाजत नहीं ली थी! वर्ष 2017 को इसलिये भी कुख्यात माना जायेगा क्योंकि इस वर्ष भारत की अदालतें महिलाओं की स्वायत्तता और उनकी अपना जीवन साथी चुनने की आजादी को बुलंद रखने में नाकाम साबित हुई हैं और इसके बजाए उन्होंने ‘लव जिहाद’ के जहरीले पितृसत्तात्मक और इस्लाम-विरोधी मिथक को ही वैधता प्रदान करना श्रेय समझा है.

2017 को पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता गौरी लंकेश की हत्या के लिये भी याद किया जायेगा. याद रखा जायेगा कि संघी कार्यकर्ताओं ने कैसे उनकी हत्या पर जश्न मनाया था, याद रखा जायेगा जुनैद की हत्या के लिये - और इन हृदयविदारक घटनाओं ने देश भर में नागरिकों के जिस विशाल प्रतिवाद को जन्म दिया, उसके लिये भी यह वर्ष याद रखा जायेगा.

मगर 2017 की समाप्ति एक रुपहली किरण के साथ हुई है - गुजरात में मतदाताओं ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के खिलाफ उल्लेखनीय संघर्ष किया है और बेरोजगारी तथा कृषि संकट के मुद्दों को रेखांकित किया है. अगर 2017 किसानों पर गोलीबारी का वर्ष रहा, तो यह विभाजनकारी हिंसा के खिलाफ किसानों और मजदूरों के एकता प्रदर्शन, जवाबी लड़ाई, और अपने मुद्दों को राजनीति के केन्द्रीय रंगमंच पर वापस लाने का भी वर्ष बना, अगर 2017 में सहारनपुर में मुसलमानों के खिलाफ साम्प्रदायिक हिंसा का पैदल सिपाही बनने से इन्कार करने वाले दलितों पर भाजपा-समर्थित भीड़-गिरोहबंदी द्वारा हमला किया गया, तो इसी साल दलित युवकों के एक प्रेरणादायक आंदोलन के रूप में भीम आर्मी का उदय भी देखा गया. अत्याचारी कानूनों के तहत असम में किसान नेता अखिल गोगोई और भीम आर्मी के नेता चन्द्रशेखर आजाद रावण की गिरफ्तारी, और पटना में कर्मचारी यूनियन नेताओं की उस समय गिरफ्तारी जब वे स्वास्थ्यकर्मियों के मुद्दों को लेकर सरकार द्वारा वार्ता के निमंत्रण पर मिलने गये थे, और सरकार पर उंगली उठाने वाली खोजी पत्रकारिता को ठंडा करने के लिये हत्याओं से लेकर मानहानि के मुकदमों तक का इस्तेमाल करने की बारम्बार कोशिशें - ये सारी चीजें लोकतंत्र पर ऐसे हमलों का संकेत दे रही हैं जो इमरजेन्सी की शर्मनाक विरासत से भी आगे बढ़ गये हैं.

वर्ष 2017 ने मोदी सरकार के भ्रष्टाचार को खत्म करने के सारे लम्बे-चौड़े दावों की भी हवा निकाल दी है. टू-जी घोटाले में आरोपी सारे अभियुक्तों को बरी कर दिये जाने का मुख्य कारण सीधे-सीधे सीबीआई द्वारा सोची-समझी लापरवाही है, क्योंकि मोदी शासन में भी सीबीआई ‘पिंजड़े का तोता’ ही है, जिसने अनिल अम्बानी जैसे लोगों की रक्षा करने में मदद की. जिस तरह से जगन्नाथ मिश्र (जो अब भाजपा की छत्रछाया में चले गये हैं) को चारा घोटाले में बरी कर दिया गया, जबकि विपक्ष के नेता लालू यादव को सजा सुना दी गई, उससे साफ पता चलता है कि कैसे भाजपा सरकार द्वारा जांच एजेन्सियों और भ्रष्टाचार के मामलों का इस्तेमाल राजनीतिक हथियार के बतौर किया जा रहा है और उन्हें चुनिंदा निशानों की ओर लक्षित किया जा रहा है. इसी बीच, अमित शाह के बेटे जय शाह और अजीत डोभाल के बेटे शौर्य डोभाल के खिलाफ भारी पैमाने के भ्रष्टाचार और हितों के टकराव के जो मामले सामने आये हैं, और साथ ही जस्टिस लोया की संदिग्ध परिस्थितियों में मौत, जो अमित शाह हो हिरासत में हत्या के मामले में बरी करने में बड़ी सुविधाजनक साबित हुई - इन सारी घटनाओं को किसी जांच के उपयुक्त ही नहीं समझा गया.

जैसे-जैसे दिन गुजर रहे हैं, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने के मोदी शासन के दावों का ज्यादा से ज्यादा पर्दाफाश होता जा रहा है. मोदी ने पिछले साल दावा किया था कि नोटबंदी काले धन के अर्थतंत्र को समाप्त कर देगी क्योंकि सारा काला धन बड़े नोटों (500 रु. और 1000 रु. के नोटों) में संचित किया गया है. एक साल बाद दिसम्बर 2017 में अब बिल्कुल स्पष्ट हो चला है कि यह दावा झूठा था. आज जितनी कुल मुद्रा परिचलन में है, उसका कम से कम 93 प्रतिशत हिस्सा बड़े नोटों में है - जो नोटबंदी के पहले के आंकड़े से कहीं ज्यादा है - नोटबंदी के पहले यह आंकड़ा 86.4 प्रतिशत था. वास्तव में पिछले पन्द्रह वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है कि बड़े नोटों में संचित मुद्रा का हिस्सा 90 प्रतिशत को पार कर गया हो!

भारत में फासिस्ट-विरोधी योद्धागण वर्ष 2018 में एक नए संकल्प और आत्मविश्वास की भावना से लैस होकर प्रवेश कर रहे हैं. यह जाहिर है कि गोदी मीडिया घरानों द्वारा मोदी की व्यक्तिगत प्रचार मशीनरी के बतौर काम करने के बावजूद, साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा के अनवरत अभियान के बावजूद, मोदी का कद घटता जा रहा है और वह भारतीय जनता के लगभग हर हिस्से के प्रतिरोध का सामना कर रहे हैं. आइये, हम आने वाले वर्ष को फासीवादियों के खिलाफ और तीव्र एकता और प्रतिरोध का वर्ष बना दें.