चौकीदार भांजता रहा, एक और चोर भाग निकला

लगता है कि हम एक नये किस्म का ‘भारत छोड़ो’ देख रहे हैं. ललित मोदी, विजय माल्या और नीरव मोदी भारतीय बैंकों को भारी रकम का चूना लगाकर चुपचाप देश छोड़कर कट ले रहे हैं. ताजातरीन घटना में पंजाब नेशनल बैंक, जो देश में भारतीय स्टेट बैंक के बाद सबसे बड़ा बैंक है, के साथ जालसाजी करके नीरव मोदी और उनके चाचा मेहुल चोकसी ने 11,394 करोड़ रुपये की भारी रकम का चूना लगा दिया है. मगर यह घोटाला तभी सार्वजनिक जानकारी के लिये सामने आया जब नीरव मोदी ने चुपके से अपने पूरे परिवार को (अपने बच्चों समेत, जो भारत में पढ़ाई कर रहे थे) विदेश में सुव्यवस्थित कर लिया, और अंतिम बार उसको दावोस में आयोजित विश्व आर्थिक मंच के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ देखा गया था. एक बार फिर स्वयम्भू ‘चौकीदार’ मजे से सो रहा था जबकि चोर थैला लेकर भाग निकला. इससे भी बदतर बात यह है कि इन चोरों के सुरक्षित रास्ते से भागने की गारंटी करने में शायद चौकीदार का भी अच्छा-खासा हाथ रहा है!

सरकार दावा कर रही है कि यह घोटाला 2011 में ही शुरू हो गया था जब यूपीए सत्तारूढ़ था. अगर यह बात सच हो, तो भी इससे वर्तमान सरकार को स्पष्टतः खुद अपने द्वारा किये गये अपराध से जरा भी बरी नहीं किया जा सकता. अधिकांश समझौता पत्र (लेटर्स ऑफ अंडरस्टैंडिंग) जिनके बल पर नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक को गारंटर बनाकर विदेशी बैंकों से उधार पर उधार लेता जा रहा था, स्पष्ट रूप से पिछले दो वर्षों के दौरान ही जारी किये गये थे. शुरूआत में सरकार ने पूरे घोटाले को सिर्फ पंजाब नेशनल बैंक की एक स्थानीय गलती तक सीमित करने की कोशिश की थी, जिसमें चंद कर्मचारियों को घपले के लिये दोषी ठहराया गया था. अब अरुण जेटली ने पूछा है कि इस पूरी अवधि में लेखा-परीक्षक (ऑडिटर्स) इस घपले का पता क्यों नहीं लगा पाये, जबकि उनके सहकर्मी पीयूष गोयल और निर्मला सीतारामन इस श्रेय का दावा कर रहे हैं कि उनकी सरकार ने तो इस जंजाल को ‘‘साफ’’ किया है.

अब सरकार चाहे इसकी जो सफाई दे, पंजाब नेशनल बैंक के घोटाले की पूरी जिम्मेवारी सीधे वर्तमान सरकार के कंधों पर जाती है. सरकार की जवाबदेही बस केवल बैंकों की डूबंत परिसम्पत्तियों की समस्या का समाधान करने में नाकामी तक सीमित नहीं है; उसकी जवाबदेही तो मुख्य रूप से इस बात में निहित है कि वह पिठ्ठू पूंजीवाद की खतरनाक परिघटना को बढ़ावा देने में मिलीभगत करती रही, जो बैंकों के संकट की जड़ है. जब हमें पता चलता है कि नीरव मोदी तो प्रधानमंत्री के साथ दावोस में शोभा बढ़ा रहे हैं, और देखते हैं कि प्रधानमंत्री जी अपने सरकारी आवास में एक समारोह में जमा लोगों के सामने बड़े दुलार से ‘मेहुल भाई’ का नाम ले रहे हैं, तो साफ जाहिर हो जाता है कि नीरव मोदी की इतनी जुर्रत कहां से आई कि वह अपने ‘ब्रांड’ की बदनामी करने के लिये पंजाब नेशनल बैंक पर इल्जाम लगाये, और धमकी दे कि इस बदनामी के चलते वह अपना कर्ज नहीं चुकायेगा!

पंजाब नेशनल बैंक घोटाला तो उस बीमारी का महज एक और उदाहरण है जो आज भारत में बैंकिंग सेक्टर को दीमक की तरह खा रही है. अभी हम नीरव मोदी द्वारा किये गये विशालकाय रकम के घोटाले और उसकी स्तब्ध कर देने वाली जुर्रत को पचा भी नहीं पाये थे कि मीडिया में रोटोमैक के 3,695 करोड़ रुपये के घोटाले की खबरें छाने लगीं. खबर है कि कानपुर केन्द्रित बड़े कारोबारी विक्रम कोठारी, जो पान पराग और रोटोमैक पेन जैसे ब्रांडों के जरिये विख्यात हैं, सात बैंकों से विशाल धनराशि कर्ज पर लिये हुए हैं. सिर चकरा देने वाली बात यह है कि जब इनमें से एक बैंक ऑफ बड़ौदा ने उनको जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाला आसामी घोषित किया तो उन्होंने इलाहाबाद हाइकोर्ट में उसको चुनौती दी और इस मामले में सफलता भी हासिल कर ली! विजय माल्या, नीरव मोदी और विक्रम कोठारी जैसे लोगों के मामले, जो समय-समय पर सामने आते रहे हैं, बैंकों की डूबंत परिसम्पत्ति (एनपीए) कहलाने वाली विशाल समुद्री चट्टान का महज दिखने वाला छोटा सा हिस्सा हैं. पिछले कुछेक वर्षों के दौरान भारत के बैंकों में 7.34 लाख करोड़ रुपये की डूबंत परिसम्पत्तियां जमा हो चुकी हैं (यह जून 2017 का आंकड़ा है) और कुल डूबंत परिसम्पत्तियों का एक-चैथाई हिस्सा केवल 12 कम्पनियों द्वारा लिया गया कर्ज है. भारत में बैंकों की 9.9 प्रतिशत पूंजी डूबंत परिसम्पत्तियों में जा चुकी है और दुनिया भर में डूबंत परिसम्पत्ति से सर्वाधिक पीड़ित देशों की सूची में भारत का पांचवां स्थान है - ग्रीस (36.37 प्रतिशत), इटली (16.35 प्रतिशत), पुर्तगाल (15.52 प्रतिशत) और आयरलैंड (11.85 प्रतिशत) के बाद.

केन्द्र में सिलसिलेवार ढंग से सत्तारूढ़ होने वाली सभी सरकारों ने इस समस्या का निदान करने का कोई प्रयास नहीं किया है. हाल के वर्षों में रघुराम राजन रिजर्व बैंक के एकमात्र ऐसे गवर्नर रहे हैं जिन्होंने इस समस्या के बारे में सार्वजनिक रूप से बयान देना शुरू किया और नियंत्रण और सख्त करने की जरूरत पर बल दिया है. मोदी सरकार को तो चिंता इस बात की है कि कर्ज न चुकाने वाले आसामियों की निजता की रक्षा कैसे हो, उनका नाम जाहिर होने से कैसे बचे और वे सुरक्षित रास्ते से देश छोड़कर विदेशी पनाहगाहों में बस जायें, ताकि भारत में उनको किसी प्रकार से न्याय के कठघरे में खड़ा न किया जा सके. बैंक समय-समय पर नियमित रूप से इन डूबंत कर्जों को बट्टे खाते में डालते रहे हैं, और सरकार लोगों को यह ‘व्याख्या देने’ में व्यस्त है कि इस प्रकार ‘बट्टे खाते में डालना’ केवल बही-खाता लिखने की एक पद्धति है, इसका अर्थ कर्ज मार्फ करना कत्तई नहीं है! बैंकों को कारोबार चलाते रहने में समर्थ बनाने के लिये बैंकों में भारी मात्रा में रकम डाली जा रही है, नोटबंदी ने भारत की जनता को मजबूर किया कि वह अपनी लगभग सम्पूर्ण रकम को बैंकों में जमा कर दे, और बैंक अपने जमाकर्ताओं को, अगर उनकी जमा राशि एक निश्चित मात्रा से नीचे चली जाये, तो इसकी सजा देते हुए जुर्माना काट लेता है, और अब वित्तीय समाधान एवं जमा बीमा विधेयक (एफआरडीआई बिल) बैंकों को यह प्राधिकार देने की कोशिश कर रहा है कि वे लोगों द्वारा जमा की गई राशि के एक हिस्से को अपने बैंक की पूंजी में बदल लें!

अगर माल्या और मोदी जैसे लोग भारतीय बैंकों को लूटकर विदेश भाग जा रहे हैं, तो यकीनन हमें भारत में कारगर बैंकिंग नियंत्रण के अभाव पर सवाल उठाना होगा, और पिठ्ठू पूंजीवाद के साये तले पनपते कारोबार व राजनीति के गठजोड़ को, जिसकी वजह से हमारे देश के कानूनों का इस कदर खुल्लमखुल्ला उल्लंघन और तबाही हो रही है, सवालों के घेरे में लाना होगा. लेकिन मोदी सरकार और निजीकरण के पैरोकार इस संकट को बैंकिंग क्षेत्र के निजीकरण के लिये बहाने के बतौर इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहे हैं. इसी बीच सरकार की नीतियों में निजी और विदेशी बैंकों की उल्लेखनीय रूप से वृद्धि की इजाजत दे दी गई है, जबकि निजी क्षेत्र के बैंक डूबंत परिसम्पत्तियों के पहाड़ के बोझ तले पिस कर चक्कर खा रहे हैं. बैंकों के निजीकरण का अर्थ होगा देश के वित्तीय संसाधनों और आम नागरिकों की बचत को पूरापूरी निजी हाथों में सौंप देना, और हमारे देश में और समकालीन विश्व में भी बैंकिंग का इतिहास हमें स्पष्ट रूप से बता रहा है कि निजी वित्तीय संस्थाएं भी संकटग्रस्त और दिवालिया होने के मामले में कोई कम कमजोर शिकार नहीं साबित होतीं. वैश्विक बैंकिंग एवं वित्तीय सेवाओं में निजी क्षेत्र के एक विशालकाय खिलाड़ी लेहमन ब्रदर्स के भहरा कर गिरने के फलस्वरूप ही तो 2007 के वैश्विक वित्तीय संकट की शुरूआत हुई थी. नीरव मोदी घोटाले की जिम्मेवारी तय करने के साथ-साथ हमें बैंकिंग सेक्टर के निजीकरण पर दिये जा रहे विनाशकारी जोर का अवश्य ही डटकर प्रतिरोध करना होगा.

ललित मोदी और विजय माल्या से लेकर नीरव मोदी और मेहुल चोकसी के प्रकरण तक मोदी सरकार ने अतीत की किसी भी सरकार की तुलना में खुद कोई कम भ्रष्ट नहीं होने का सबूत दे दिया है. हालांकि यह सरकार मुख्यतः भ्रष्टाचार का विरोध करने के मुद्दे पर सत्ता में आई थी, मगर सत्ता में आने के बाद से उसके राज में एक-के-बाद-एक अंतहीन रूप से घोटालों का सिलसिला चल पड़ा है. और सरकार इनमें से हर घोटाले के मामले में किसी भी किस्म की न्यायिक जांच और संसदीय जवाबदेही से दूर भागने की कोशिश कर रही है. बल्कि जो पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता इन घोटालों का पर्दाफाश कर रहे हैं और जवाबदेही की मांग कर रहे हैं, उन्हें मानहानि का मुकदमा और उससे भी बदतर धमकियां देकर चुप कराने की कोशिश की जा रही है. अगर हम बैंकों और उनकी डूबंत परिसम्पत्तियों की समस्या हल करना चाहते हैं तो हमें ऐसे शासन से छुटकारा पाना होगा जो खुद भारत के संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में सबसे बड़ा घोटाला और काला धब्बा बन गई है.