दिल्ली आशा कामगार यूनियन ने विधयकों को ज्ञापन सौंपे

ऐक्टू से संबद्ध ‘‘दिल्ली आशा कामगार यूनियन’’ आशा कर्मियों के अधिकारों को लेकर निरंतर संघर्षरत है. अपने संघर्ष के मौजूदा चरण में यूनियन दिल्ली विधान सभा के सभी विधायकों से मिलकर उन्हें आशा कर्मियों की मांगों को लेकर ज्ञापन दे रही है. ज्ञापन में मांग की गई है कि वे विधानसभा में इस प्रस्ताव को लेकर आयें कि आशा कर्मियों को न्यूनतम वेतन के बराबर वेतन दिया जाए, उनको सरकारी कर्मचारी का दर्जा दिया जाए और, चूंकि आशा कर्मियों के अधिकतर कार्य फील्ड संबंधी है, अतः उन्हें डीटीसी की बसों में बस पास की सुविधा दी जाए. दिल्ली के विभिन्न इलाकों जैसे खानपुर, डेरा, देवली, फतेहपुर बेरी, भाटी माइन्स, छतरपुर, महरौली, पालम, द्वारका, मुस्तफाबाद, नरेला तथा संगमविहर आदि स्थानों की आशा कर्मियों ने इस मुहीम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया. इस बीच 10 विधायकों से मिलकर दिल्ली आशा कामगार यूनियन का प्रतिनिधिमंडल ज्ञापन दे चुका है. आने वाले दिनों में दिल्ली सरकार तथा केंद्र सरकार के खिलाफ ये लडाई और तेज होगी.

ज्ञात हो कि केंद्र सरकार की योजनाओं के तहत काम करने के बावजूद स्कीम वर्कर्स को कर्मचारी का दर्जा नहीं दिया जा रहा है. आशा, आंगनवाडी, मिड-डे मील आदि योजनाओं में कार्यरत अधिकतर महिलाएं हैं जो ‘सेवा’ के नाम पर अमानवीय शोषण झेल झेल रही हैं, और इनके प्रति सरकार की नजरअंदाजगी जग-जाहिर है. 2018 के बजट में भी सरकार ने स्कीम वर्कर्स के लिए कोई बजट नहीं बढ़ाया. एक तरफ मोदी सरकार नफरत, हिंसा और बलात्कार की राजनीति फैला रही है तो दूसरी तरफ मजदूरों के हक-अधिकारों के सवाल पर चुप्पी साधे है. 45वें भारतीय श्रम सम्मेलन की सिफारिशों के अनुरूप सभी स्कीम वर्कर्स को श्रमिक का दर्जा मिलना चाहिए, वह अभी तक नहीं मिला है. और स्कीम योजनाओं में निजीकरण की कोशिशें लगातार बढ़ रही हैं. स्कीम वर्कर्स को बोनस, पीएफ, यात्रा भत्ता व खतरा भत्ता जो मिलना चाहिए, उसका कोई नामोनिशान नहीं है. अस्पतालों में आशाओं के साथ डॉक्टरों व अन्य कर्मचारियों द्वारा होने वाले अपमानजनक व्यवहार पर सरकार व प्रशासन चुप्पी साधे हुए है. ऐसे समय में व्यापक मजदूर एकता बनाने की जरुरत है ताकि मजदूर-वर्ग के मुद्दों की जीत हो और धर्म और जाति के नाम पर गरीब जनता को बांटने की साजिश पर लगाम लगे.

आज देश भर में लगभग 8 लाख के अधिक आशा कार्यरत है. आशाओं के बदौलत ही यह संभव हो पाया है कि आज जच्चा और बच्चा दोनों की मृत्युदर में गिरावट आयी है. माँ और बच्चे का सम्पूर्ण टीकाकरण संभव हो पाया है. समाज में एक पुल के रूप में आशाएं कार्यरत हैं लेकिन इनकी स्थिति सबसे अधिक दयनीय है. पूरा दिन खटने के बावजूद इनसेंटिव के रूप मे इन्हें तुच्छ राशि मिलती है. हमने देखा कि पूरे देश में जहाँ पर भी आशाएं संगठित होकर उतरी हैं, उन्होंने जीत हासिल की है. आज इस बात को मजबूती से उठाने की जरूरत है कि सिर्फ इन्सेन्टिव बढ़ा देने से काम नहीं चलेगा, पक्की नौकरी और पूरा वेतन की गारंटी करनी होगी.

आशाओं को सरकारी नौकरी का दर्जा देते हुए पक्का किया जाए; अलग-अलग राज्यों में जो असमान मानदेय लागू है, उसको समाप्त कर सातवें वेतन आयोग को लागू करते हुए सभी आशाओं को 18,000 रुपये वेतन दिया जाए, आदि इन सभी मुख्य मांगों के साथ पूरे देश में आशाएं संघर्षरत हैं.

- श्वेता