मोदी राज भीड़तंत्र का शासन बन चुका है भारत को मोदी के गिरोहों से बचाओ

20 जुलाई को मोदी सरकार ने पहली बार संसद में अपने खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया. यद्यपि सरकार ने मतदान में अच्छे-खासे बहुमत से विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव को हरा दिया, फिर भी बहस के दौरान सरकार बुरी तरह से बेनकाब हो गई. यहां तक कि मतदान के पैटर्न ने मोदी सरकार के लिये शक्तियों के एक प्रतिकूल पुनर्संयोजन का इशारा दिया. अविश्वास प्रस्ताव तेलगू देशम पार्टी की ओर से पेश किया गया था जो हाल के अरसे तक भाजपा की एक बड़ी सहयोगी पार्टी थी. एनडीए के एक और लम्बे अरसे से घटक रहे दल शिव सेना ने भी मोदी सरकार के पक्ष में वोट देने की अपेक्षा संसद से बहिर्गमन करना पसंद किया और इस तरह आगामी चुनाव में एनडीए से अपना गठबंधन तोड़ लेने की धमकी दी. जरूर, दो पार्टियां, जो 2014 के आम चुनाव के समय एनडीए का अंग नहीं थीं - बिहार की जद(यू) और तमिलनाडु की एआईडीएमके - वे अब भाजपा के साथ हैं, मगर भाजपा इस बात को अच्छी तरह जानती है कि ये दोनों पार्टियां अपने-अपने राज्यों में अपनी साख बुरी तरह खो बैठी हैं, और वर्तमान में असली चुनावी हिसाब से उनकी कीमत अब ज्यादा नहीं रह गई है.

राहुल गांधी और चंद अन्य विपक्षी वक्ताओं ने सरकार के नकारापन और उसकी वादाखिलाफी से सम्बंधित ढेर सारे महत्वपूर्ण सवाल उठाये, जिनमें बेशर्मीभरा पिट्ठू (क्रोनी) पूंजीवाद और नई-नई ऊंचाइयां छूता भ्रष्टाचार तथा बेरोजगारी, गहराता कृषि संकट और अनिष्टकारी गिरोहों द्वारा पीट-पीटकर की गई हत्याएं आदि के मामले शामिल थे. मगर सरकार के पास इन ठोस मुद्दों से जुड़े सवालों का कोई जवाब नहीं था. राहुल गांधी के अप्रत्याशित आलिंगन से सकते में आये मोदी ने अपने भाषण का अधिकांश समय विपक्ष और राहुल गांधी, उनके आलिंगन और उसके बाद मारी गई आंख, और यहां तक कि सोनिया गांधी के लहजे की नकल उतारते हुए खिल्ली उड़ाने पर खर्च किया, उसे संसदीय बहसों के इतिहास में सबसे निम्न स्तर का मानना होगा.

मोदी ने अविश्वास प्रस्ताव को, जो संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष के हाथों वाद-विवाद का एक मुख्य हथियार होता है, विपक्ष के द्वारा किया गया अहंकारपूर्ण कृत्य बताया. उन्होंने यहां तक कि भगवान से प्रार्थना की कि वह विपक्ष को 2024 में एक और अविश्वास प्रस्ताव लाने की शक्ति प्रदान करे. सरकार को जवाबदेह ठहराने का कर्तव्य निभाने के लिये विपक्ष पर अहंकार प्रदर्शन का आरोप लगाना खुद सरकार की ओर से अहंकार की असंदिग्ध अभिव्यक्ति है. इसी किस्म के आदतन अहंकार प्रदर्शन के चलते मोदी ने अब तक अपने कार्यकाल में कभी एक भी प्रेस कान्फ्रेंस नहीं आयोजित की है, न ही उन्होंने संसद में उपस्थित होने और उन सवालों का जवाब देने का कष्ट उठाया है जिनके जवाब देश उनसे सुनना चाहता है. वास्तव में, अकसर उन्होंने कैबिनेट को भी दरकिनार करके एकमात्र निर्णयकारी प्राधिकार के बतौर अपने कार्यालय का इस्तेमाल किया है, यहां तक कि नोटबंदी जैसे विनाशकारी प्रयोगों के मामले में भी.

अविश्वास प्रस्ताव पर यह बहस सिलसिलेवार ढंग से होने वाली गिरोह-हत्याओं के कांडों के साये तले हो रही थी. समूचे देश ने यह सर्वाधिक कष्टदायक तस्वीर देखी कि हापुड़ में कैसे पीट-पीटकर हत्या करने वाले गिरोह के साथ पुलिसवाले भी खुलेआम साझीदार हैं, जहां एक किसान मुहम्मद कासिम को अपने खेत की रखवाली करते समय पीट-पीटकर मार डाला गया और सड़क पर उसकी लाश को घसीटते हुए लाकर पुलिस वैन में डाल दिया गया. पश्चिम बंगाल के मेदिनीपुर में प्रधानमंत्री की एक रैली में हमने देखा कि कैसे भीड़ एक वर्दीधारी पुलिसवाले को पीट रही है. और संसद में बहस के मात्र दो दिन पहले, जब सर्वोच्च न्यायालय ने पीटकर की जाने वाली हत्याओं व हमलों की बढ़ती घटनाओं पर गंभीर रूप से चिंता जाहिर करते हुए सरकारों से इस किस्म की हत्याओं पर रोक लगाने का निर्देश दिया, तो हमने देखा कि शासक पार्टी की युवा शाखा के सदस्यों ने अस्सी वर्षीय स्वामी अग्निवेश को पकड़ कर उनकी पिटाई कर दी.

संवैधानिक लोकतंत्र के इस तरह गिरोहतंत्र में पतन के खिलाफ भारत की जनता को ऐसे में कम से कम सत्ताधारियों से किसी किस्म के आश्वासन की जरूरत तो थी ही. मगर इसके बजाय केन्द्रीय गृहमंत्री द्वारा संसदीय विपक्ष के खिलाफ एक और निहितार्थ भरी ‘आपके शासन के दौरान तो ऐसा हुआ था’ की दलील के अलावा हमारे देश को कोई जवाब नहीं मिला. गृहमंत्री ने हमें याद दिलाया कि भीड़-गिरोहों द्वारा हत्याएं तो पहले भी होती रही हैं और 1984 में सिख-विरोधी दंगा इस किस्म की भीड़-हत्या का सबसे बड़ा नमूना था. पहले भी हमने 1984 को 2002 के गुजरात जनसंहार के साथ एक श्रेणी में रखे जाते देखा है और यकीनन दोनों घटनाएं न सिर्फ भीड़-गिरोह द्वारा हिंसा की घटनाएं थीं बल्कि वस्तुतः राज्य द्वारा प्रायोजित जनसंहार थे जिनमें आज तक हमको नहीं के बराबर न्याय मिला है. अब तो हम देख रहे हैं कि भीड़-गिरोह हत्या की महामारी छा गई है, भीड़-गिरोह हत्या का राष्ट्रीय खेलकूद की तरह सामान्यीकरण कर दिया गया है जो साल भर सारे देश में खेला जाता है और जिसमें किसी भी नागरिक को घेरकर किसी भी बहाने से मार दिया जा सकता है, जिसमें मुसलमान, दलित, गरीब महिलाएं और जानी-मानी असहमति की आवाजें सबसे पसंदीदा और सबसे उपयुक्त पीट-पीटकर मारे जाने वाले शिकार बने हैं. और ये गिरोह किसी शून्य में अपनी कारसाजी नहीं दिखाते, उनकी कारगुजारियां बिना किसी दंड-भय के आश्वासन के बल पर होती हैं क्योंकि हमारे पास एक ऐसी सरकार है जो भीड़-हत्या को सुगम भी बनाती है और हत्यारों का अभिनंदन भी करती है.

राजनाथ सिंह ने संसद से जो कुछ कहा उसमें भीड़-हत्याओं को रोकने का कोई आश्वासन नहीं दिया गया था, बल्कि उसमें हड्डियां कंपकंपा देने वाली धमकी भरी थी कि हमको इस किस्म की भीड़ हत्याओं को तब तक गिनते जाना होगा जब तक यह गिनती 1984 के आंकड़े के समतुल्य नहीं हो जाती. कोई आश्चर्य नहीं कि संसद में बहस के तुरंत बाद ही हमें भाजपा-शासित राजस्थान में पीट-पीटकर मारे जाने की एक और बर्बर घटना सुनने को मिल गई, जिस पर मोदी के मंत्री मेघवाल ने इन हत्याओं की बढ़ती घटनाओं का सबब मोदी की बढ़ती लोकप्रियता के खिलाफ प्रतिक्रिया को बताया, और इस तरह मानो यह बतलाने की कोशिश की कि पीट-पीटकर हत्या की घटनाओं को मोदी पर लांछन लगाने के लिये बेहद बढ़ा-चढ़ाकर दिखलाया जा रहा है!

भारत और भारतीय लोकतंत्र के लिये दिलासे की बात यह है कि जनता इस हमले को सिर झुकाकर नहीं सहन कर रही है. जब संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर बहस चल रही थी, उसी समय पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा से हजारों किसानों ने आकर दिल्ली के संसद मार्ग पर मोदी सरकार के खिलाफ अपना अविश्वास प्रस्ताव पारित किया और मोदी के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की लफ्फाजियों का पर्दाफाश कर दिया. उसी दिन दिल्ली में भी मजदूरों ने भी हड़ताल की और न्यूनतम मजदूरी, स्थायी रोजगार और सामाजिक सुरक्षा की मांग करते हुए सड़कों पर मार्च किया. जब आगामी चुनाव में आर-पार की लड़ाई के लिये रंगमंच सज गया है तो देश को मोदी शासन नामक विपदा का खात्मा करने के लिये एक बार फिर से 1977 जैसा जनादेश सुनाने के लिये कमर कस लेना होगा.