चार दशक पहले इन्दिरा इमरजेन्सी की तरह मोदी इमरजेन्सी को भी निर्णायक शिकस्त दो!

जैसे-जैसे 2019 के चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, मोदी सरकार तमाम किस्म की असहमति जाहिर करने वाली शख्सियतों को, जिनमें भारत के सर्वाधिक विश्वसनीय और सम्मानित मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं सार्वजनिक ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवी भी शामिल हैं, बड़े पैमाने की धरपकड़ और दमन के शिकंजे में कसती जा रही है. मानवाधिकार कार्यकर्ता एवं अधिवक्ता सुरेन्द्र गडलिंग, दलित अधिकार कार्यकर्ता एवं पत्रकार सुधीर ढावले, प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास के अध्येता महेश रावत, नागपुर विश्वविद्यालय की प्रोफेसर शोमा सेन और मानवाधिकार कार्यकर्ता रोना विल्सन को गिरफ्तार करने के लगभग दो महीने बाद अब पुणे पुलिस ने 28 अगस्त 2018 को एक साथ कई जगह छापेमारियों और गिरफ्तारियों का दूसरा चक्र चलाया है.

गिरफ्तार कार्यकर्ताओं की ताजातरीन सूची में शामिल हैं छत्तीसगढ़ में कार्यरत सुविख्यात ट्रेड यूनियन नेता एवं आदिवासी अधिकारों की प्रवक्ता सुधा भारद्वाज (जिन्हें  फरीदाबाद से गिरफ्तार किया गया), जाने-माने लेखक-कवि वरवर राव (इनकी गिरफ्तारी हैदराबाद में हुई), कार्यकर्ता अरुण परीरा (जिन्होंने झूठे आरोपों पर जेल में बिताये पांच वर्षों के अनुभव पर एक किताब लिखी है) और वर्नन गांेजाल्वेज (इनको मुंबई में गिरफ्तार किया गया) और लम्बे अरसे से मानवाधिकारों की लड़ाई लड़ रहे गौतम नवलखा (जिनको दिल्ली स्थित अपने आवास से गिरफ्तार किया गया है, लेकिन हाई कोर्ट ने उनको पुलिस द्वारा रिमांड पर पुणे ले जाने पर स्थगनादेश लगा दिया है). जिनके घरों पर छापे पड़े हैं उनमें शामिल हैं रांची निवासी फादर स्टेन स्वामी (जो झारखंड में काॅरपोरेट भूमि हड़प और संघी हिंसा का विरोध करते रहे हैं और हाल ही में उन पर ‘राजद्रोह’ का आरोप भी लगाया गया है), पत्रकार क्रांति टेकुला, अधिवक्ता सूजन अब्राहम, जो सुरेन्द्र गाडलिंग एवं अन्य लोगों के पक्ष से मुकदमा लड़ रही हैं, लेखक एवं प्रोफेसर आनंद तेलतुमड़े, तथा अनला एवं के.वी. कूर्मनाथ (जो वरवर राव की क्रमशः बेटी और दामाद हैं)

यह बड़ी साजिशाना बात है कि महाराष्ट्र सरकार और पुणे पुलिस इस धरपकड़ की योजना बनाने की पृष्ठभूमि के बतौर इस वर्ष 1 जनवरी को हुई भीमा कोरेगांव की हिंसक घटना का इस्तेमाल कर रही है. भीमा कोरेगांव में हुई लड़ाई में पेशवाओं को परास्त किये जाने की घटना के इस वर्ष दो सौ साल पूरे हुए (इस लड़ाई में ब्रिटिश फौज के बतौर लड़ते हुए दलितों ने पेशवा की सेना को हराया था और इसे वे अपनी विजय का प्रतीक मानते हैं), और इसी अवसर पर आयोजित समारोह में दलित बड़ी संख्या में एकत्र हुए थे, जिन पर दक्षिणपंथी जातिवादी ताकतों ने हमला चलाया. इन हमलावरों - जिनमें दो प्रमुख आरोपी हैं संभाजी भिडे और मिलिन्द एकबोटे - के खिलाफ कोई कार्रवाई करने के बजाय - इनमें संभाजी को तो गिरफ्तार ही नहीं किया गया और मिलिंद को काफी देरी से अप्रैल में गिरफ्तार करने के बाद फौरन जमानत पर छोड़ दिया गया - सरकार अब 31 दिसम्बर 2017 को पुणे में हुई एलगार परिषद के तथाकथित आयोजकों को आरोपी बनाकर धरपकड़ कर रही है. इसके बाद इस कांड को नरेन्द्र मोदी की ‘राजीव गांधी शैली में हत्या करने’ के तथाकथित माओवादी षडयंत्र और ‘शहरी नक्सलवाद’ के व्यापक आख्यान के खिलाफ छेड़ी गई जंग के साथ जोड़ दिया गया है. यह एक ऐसा हौवा खड़ा किया गया है जो जेएनयू, जादवपुर, हैदराबाद जैसे विश्वविद्यालयों पर संघ-भाजपा के जारी हमलों को और सरकार की काॅरपोरेट-परस्त नीतियों एवं संघ के साम्प्रदायिक फासीवादी अभियान के खिलाफ असहमति की हर अभिव्यक्ति पर हमले को खुराक देता रहता है.

भाजपा 1975 में लगी इमरजेन्सी और 1984 में हुए सिख-विरोधी दंगे जैसे काले अध्यायों की याद दिलाना कभी नहीं भूलती, मगर 2002 में हुए गुजरात के जनसंहार और आजकल चल रहे साम्प्रदायिक भीड़-हत्या के शासन के बारे में या तो चुप्पी साधे रहती है या फिर सक्रियतापूर्वक उसका पक्षपोषण करती है. विडम्बना यह है कि इन मानवाधिकार हस्तियों में से अधिकांश वे लोग हैं जिन्होंने इमरजेन्सी के खिलाफ कठिन लड़ाई लड़ी थी और 1984 के दंगे का डटकर विरोध किया था. उदाहरणार्थ, गौतम नवलखा पीपुल्स यूनियन फाॅर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) के एक प्रमुख संगठक थे, जिसने पीपुल्स यूनियन फाॅर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) के साथ कंधे से कंधा मिलाकर राजनीतिक बंदियों की रिहाई के लिये लड़ा था और 1984 के सिख-विरोधी दंगों के बारे में सबसे ज्यादा विश्वसनीय तथ्यपरक जांच रिपोर्ट जारी की थी. इमरजेन्सी के दौर में लोकतांत्रिक संस्थाओं और अधिकारों का जो हनन हुआ था, उसके खिलाफ प्रतिरोध के अनुभव से उपजने वाले मानवाधिकार आंदोलन पर आज ‘शहरी नक्सलवादी परियोजना’ का ठप्पा लगाया जा रहा है. वास्तव में जो एक दलित-विरोधी हिंसा की घटना थी, उसे तोड़-मरोड़कर दलित अधिकार कार्यकर्ताओं पर दमन ढाने के लिये इस्तेमाल किया जा रहा है. जहां सनातन संस्था जैसे आतंकवादी संगठन एकदम बिना किसी दंड-भय के खुलेआम लोगों को धमकियां देते फिरते हैं और संविधान द्वारा गारंटी प्राप्त भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को उलट देने का आह्नान करते हैं, जहां अधिवक्ताओं, लेखकों, कवियों एवं सार्वजनिक ख्यातिप्राप्त बुद्धिजीवियों  को प्रधानमंत्री की हत्या की योजना बनाने जैसे अजीब किस्म के आरोपों में फंसाया जा रहा है. घटनाक्रम से, अतीत में भी ऐसे कई अजीबो-गरीब किस्म के आरोपों का इस्तेमाल गुजरात में गैर-न्यायिक हत्याओं को अंजाम देने के लिये किया जा चुका है.

इन तमाम छापेमारियों और गिरफ्तारियों तथा राजद्रोह के आरोप थोपना एवं यूएपीए (गैर-कानूनी गतिविधि निरोधक अधिनियम) जैसे जालिम कानूनों का इस्तेमाल करने जैसी तमाम कसरतों का मकसद है भारतीय गणराज्य को डर के साम्राज्य में बदल देना. और राजसत्ता इस काम को किराये पर पाले गये हत्यारों एवं गुंडा गिरोहों के साथ साझेदारी में अंजाम दे रही है, जिनका इस्तेमाल असहमति जाहिर करने वाले बुद्धिजीवियों की हत्या करने एवं बेकसूर लोगांे की भीड़-हत्या करने में किया जा रहा है. दाभोलकर, पानसरे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याएं तथा उमर खालिद की हत्या का असफल प्रयास, स्वमी अग्निवेश पर किये गये बार-बार हमले तथा मानवाधिकार के प्रवक्ताओं पर जारी दमन-उत्पीड़न - ये सारी चीजें असहमति जाहिर करने वालों को जबर्दस्ती खामोश कराने और लोकतंत्र को डर एवं दमन, नफरत और झूठ के फासीवादी शासन के मातहत चलाने की उसी रणनीति का अंग हैं. जब जनता के लिये लड़ने वाले अधिवक्ताओं और लेखकों पर हमले हो रहे हैं और उन्हें गिरफ्तार किया जा रहा है, तब जनता को उनके पक्ष में अवश्य ही डटकर खड़ा होना होगा और उनकी बिनाशर्त रिहाई के लिये लड़ना होगा. अगर सरकार लोकसभा चुनाव की पूर्ववेला में चैतरफा दमन ढा रही है, तो इससे शासकों का हताशाजनित उन्माद ही दिख रहा है और अब वे आगामी चुनाव में निर्णायक शिकस्त के अलावा और कुछ मिलने के हकदार नहीं रहे. घोषित हो या अघोषित, भारत अभी पूरे तौर पर लागू मोदी इमरजेन्सी को भलीभांति महसूस कर रहा है, और इससे उसी रास्ते से निपटना होगा जैसे जनता ने 1977 में इन्दिरा इमरजेन्सी से निपटा था.