भागवत उवाचः जब तक मौका है, चांदी काट लो

जैसे-जैसे वर्ष 2019 नजदीक आता जा रहा है, संघ-भाजपा संगठनों ने बड़े पैमाने पर हर किस्म के लोगों को अपने खेमे में बटोरने के लिये चौतरफा प्रयास शुरू कर दिये हैं. कुछ दिनों पहले हम रोज-ब-रोज नजारा देख रहे थे कि अमित शाह 2019 में समर्थन हासिल करने के लिये जाने-माने नागरिकों के दरवाजे खटखटा रहे हैं. हमने पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी को भी नागपुर में आरएसएस के प्रचारकों के एक समापन सत्र को सम्बोधित करने का नजारा देखा. और अब हमारे सामने चल रहा है आरएसएस का त्रिदिवसीय आयोजन उसी विज्ञान भवन में, जिस विज्ञान भवन को अब तक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों या फिर केन्द्र सरकार के किसी मंत्रालय द्वारा आयोजित किसी प्रमुख सरकारी आयोजन अथवा राष्ट्रपति, उप-राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री की उपस्थिति वाले किसी आयोजन के लिये सुरक्षित जाना जाता था. इस आयोजन को आरएसएस और भारत के भविष्य के बारे में आरएसएस के प्रमुख और नागरिक समाज के प्रख्यात प्रतिनिधियों के बीच अंतःक्रिया के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है.

इस आयोजन में आरएसएस के सरसंघचालक मोहन भागवत द्वारा की गई चंद टिप्पणियों का मीडिया में इस रूप में व्यापक प्रचार किया जा रहा है, कि यह आरएसएस की संकीर्णतावादी और फासिस्ट छवि के विपरीत उसके समेकित एवं लोकतांत्रिक संगठन बन जाने के आश्वस्तिजनक संकेत हैं. यह दावा खास तौर पर विज्ञान भवन में भागवत द्वारा दिये गये भाषण में से संकलित चार वक्तव्यों के इर्दगिर्द घूम रहा है: (1) कांग्रेस ने भारत के स्वाधीनता आंदोलन में महान भूमिका निभाई है और इस देश को कई प्रमुख हस्तियां दी हैं; (2) आरएसएस संविधान और राष्ट्रीय झंडे के कतई खिलाफ नहीं है; (3) आरएसएस मुसलमानों को बहिष्कृत नहीं करना चाहता, वास्तव में उसे मुसलमानों को स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं है; और (4) आरएसएस का सरकार को नियंत्रण करना तो दूर रहा, उससे कोई लेना-देना भी नहीं है, वह सिर्फ सरकार से कुछ विचारों का आदान-प्रदान करता है और उसकी कुछ कार्यवाहियों के साथ तालमेल बैठाकर चलता है. कुछेक टिप्पणीकार इन वक्तव्यों को भाजपा की चीख-पुकार भरी ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की लफ्फाजी या मोदी द्वारा नेहरू के खिलाफ किए गये लगातार और सनकभरे जबानी हमलों का बारीकी से किया गया खंडन या उसमें संशोधन के बतौर भी देख रहे हैं.

भागवत ने बड़े स्पष्ट रूप से आरएसएस के इतिहास में तोड़-मरोड़ करने की कोशिश की है और आरएसएस की केन्द्रीय स्वप्नदृष्टि और उद्देश्यों को ऐसे शब्दों में सजाने की कोशिश की है ताकि वे संसदीय लोकतंत्र के संवैधानिक ढांचे के साथ संगतिपूर्ण लगें. लेकिन सौभाग्यवश भागवत की पहेली सुलझाने के लिये हमें हेडगेवार और गोलवलकर की रचनाओं तक उतनी दूर नहीं जाना होगा, अगर हम सिर्फ दस दिन पहले शिकागो में आयोजित विश्व हिंदू सम्मेलन में भागवत द्वारा दिये गये एक और भाषण को पढ़ लें तो इतना ही उनकी कोड भाषा की गुत्थी सुलझाने के लिये पर्याप्त और बहुत शिक्षाप्रद होगा. शिकागो में यह सम्मेलन स्वामी विवेकानंद द्वारा सर्व धर्म संसद में दिये गये ऐतिहासिक भाषण की 125वीं वर्षगांठ मनाने के लिये आयोजित किया गया था. और सबसे पहला अंतर ही संभवतः इससे ज्यादा प्रत्यक्ष नहीं हो सकता. जहां विवेकानंद ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधियों के एक सम्मेलन में हिंदू धर्म की एक व्याख्या प्रस्तुत की थी, वहीं भागवत ने मुख्यतः अपने समर्थकों की एक संकुचित गोष्ठी को सम्बोधित किया था, जहां विदेशों में निवास करने वाले भारतीय मूल के लोगों ने उनके खिलाफ असहमति की आवाज उठाई थी, जो सोच रहे थे कि आरएसएस हिंदू धर्म के लिये एक बोझ बन गया है और भारत में लोगों को बर्बरतापूर्वक चुप कराया जा रहा है.

विवेकानंद ने 1893 में औपनिवेशिक अधीनता के जुए तले पिस रहे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व किया था, मगर वे दुनिया के सामने समेकित मानवतावाद और आत्मविश्वास भरे स्वागत-संदेश से लैस भारत की छवि लेकर गये थे. विवेकानंद ने अपने ऐतिहासिक भाषण में पुरजोर आवाज में कहा था: ‘मुझे एक ऐसे राष्ट्र का सदस्य होने में गर्व महसूस होता है, जिसने दुनिया के तमाम धर्मों और तमाम राष्ट्रों के सताये हुए और शरणार्थी बन कर आये लोगों को पनाह दी है’. उन्होंने सहनशीलता को सम्मान के स्तर पर ऊंचा उठा दिया: ‘हम न सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में यकीन करते हैं, बल्कि समस्त धर्मों को सत्य के बतौर स्वीकार करते हैं.’ और परस्पर सम्मान के इसी आधार पर उन्होंने धार्मिक कट्टरपंथ और उग्र धर्मोन्माद के खिलाफ उदात्त आहृान किया थाः ‘संकीर्णतावाद, धार्मिक कट्टरपंथ, और उसके विकराल उत्पाद उग्र धर्मोन्माद ने लम्बे अरसे से इस सुन्दर पृथ्वी को अपने आगोश में जकड़ रखा है... उसने धरती को हिंसा से भर दिया है, बारम्बार धरती को मानव रक्त से सराबोर कर दिया है, सभ्यताओं का विनाश कर दिया है और कई राष्ट्रों को हताशा के कगार पर ठेल दिया है.. और मैं पूरी शिद्दत से उम्मीद करता हूं कि इस सम्मेलन के स्वागत में सबेरे जो घंटियां बजी हैं वे तमाम किस्म के उग्र धर्मोन्माद की मौत की घंटी साबित होंगी.’

अब आप 2018 में आइये और हम देखते हैं कि भागवत हिंदू धर्म के युद्धभूमि में खड़े होने की बातें कर रहे हैं. वहां हिंदू धर्म के लिये वे जिस प्रतीक का इस्तेमाल करते हैं वह है अकेला खड़ा सिंह - कोई सोच सकता है कि क्या गाय का मित्रवत् प्रतीक सिर्फ उन आतंकवादियों की सुविधा के लिये घर पर ही छोड़ दिया गया है जो अपने इर्दगिर्द पागल जंगली कुत्तों का झुंड लिये गौरक्षकों के वेश में घूम रहे हैं. इस सम्मेलन में अंतर्धार्मिक विवाहों को हिंदुओं का मौन जनसंहार के रूप में पेश किया गया है. सम्मेलन ने हिंदुओं के लिये एक और प्रतीक का इस्तेमाल किया है और वह है भगवा लड्डू, मगर संघ की धारणा है कि वर्तमान स्थिति में यह लड्डू बहुत छोटा और मुलायम है, इसलिये आहृान किया गया है कि उसे बड़ा और कठोर बनाना है. अल्पसंख्यकों के बारे में क्या कहा गया है? इसका जवाब एक और झीने पर्दे में छिपी उपमा से मिलता है, जिसे सीधे फासीवाद के शास्त्रीय ग्रंथों से उठाकर लाया गया हैः पारम्परिक हिंदू कृषि में कीटनाशकों की जरूरत ही नहीं पड़ती है क्योंकि वे कीड़ों को मारते नहीं बल्कि उन पर नियंत्रण करना और उनको इस्तेमाल में लाना जानते हैं.

आइये, अब हम मोहन भागवत के विज्ञान भवन के भाषण में तथाकथित समेकन और उदारपंथ की बातों पर वापस आयें. भागवत समूचे भारतीय समाज को हिंदू कहते हैं और तब कहते हैं कि आरएसएस विविधता का सम्मान करता है और हमें मुसलमानों को स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं है. वे सोचते हैं कि संविधान को मानने का दावा करके वे हमें बड़ी भारी छूट दे रहे हैं, जबकि असली मामला है रोजमर्रा के जीवन में आरएसएस द्वारा प्रेरित गुंडा गिरोहों द्वारा संविधान का खुल्लमखुल्ला उल्लंघन और यहां तक कि आरक्षण और सामाजिक न्याय की विरोधी मनुवादी शक्तियों द्वारा संसद मार्ग पर संविधान को सचमुच जला दिया जाना! इसी प्रकार, कांग्रेस एवं स्वाधीनता आंदोलन की अन्य प्रमुख धाराओं की ऐतिहासिक भूमिका को मंजूर करना अर्थहीन हो जाता है जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वस्तुतः एक ऐसे उद्योग का संचालन कर रहा है जो लगातार झूठ बोलने, इतिहास और ऐतिहासिक प्रतीकों व हस्तियों की गलत व्याख्या करने और उसको गलत चित्रित करके हड़प लेने में महारत हासिल कर रही है. सचमुच, सम्मेलन स्थल विज्ञान भवन के इर्दगिर्द जो ढेर सारे पोस्टर और बैनर टंगे हुए थे, उनमें एक वक्तव्य रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम से था जिसमें कहा गया था कि भारत हमेशा से एक हिंदू राष्ट्र रहा है, जो कि संघ की झूठ फैक्टरी में तैयार किया गया एक और झूठा उद्धरण था.

भागवत द्वारा दिया गया सबसे बेलगाम वक्तव्य यह दावा था कि संघ का मोदी सरकार से कोई आंगिक समर्पक नहीं है और वह नीति निर्माण अथवा उनको लागू करने में कोई भूमिका नहीं अदा करता, जबकि समूची दुनिया अच्छी तरह जानती है कि मोदी की शासन चलाने की पूरी प्रणाली आरएसएस द्वारा बड़ी बारीकी से बनाए गये नक्शे पर चलती है और उससे परिभाषित होती है. क्या यह आरएसएस-भाजपा के बीच सम्बन्ध के बारे में जनता को धोखा देने का एक और प्रयास था या फिर आरएसएस द्वारा बड़ी चतुराई से खुद को विनाश के कगार पर खड़ी मोदी सरकार और उसके सामने खड़ी हार से दूर रखने का बहाना था? इन अर्थों में, आरएसएस ने वही दिशा अपनाई है जिसको भारत के ताजातरीन कारोबार सम्राट बाबा रामदेव ने कुछ दिन पहले अपने इस कथन के जरिये व्यक्त किया था कि वे 2019 में भाजपा के पक्ष में प्रचार नहीं करेंगे. वह संगठन जिसे गांधी की हत्या के बाद से अब तक तीन-तीन बार प्रतिबंधित किया जा चुका है, वह अब नई दिल्ली स्थित सरकार के सर्वप्रमुख सम्मेलन केन्द्र से अपना धर्मोपदेश जारी कर रहा है. यही वह सफर है जिसे आरएसएस ने अब तक तय किया है और वह कोशिश कर रहा है कि जब तक मौका हाथ में है, तब तक जितना ज्यादा-से-ज्यादा हो सके, चांदी काट ले.