श्रमिकों का राष्ट्रीय सम्मेलन 8-9 जनवरी 2019 को दो दिन की देशव्यापी आम हड़ताल का ऐलान

देश के 10 केंद्रीय ट्रेड यूनियन संगठनों और स्वतंत्र फेडरेशनों के संयुक्त मंच के बैनर तले मजदूरों का राष्ट्रीय सम्मेलन 28 सितंबर 2018 (शहीद-ए-आजम भगत सिंह का जन्म दिवस) को मावलंकर हॉल, नई दिल्ली में आयोजित किया गया. सम्मेलन ने एक घोषणापत्र (देखें बाक्स) जारी किया. घोषणापत्र में मोदी सरकार की जन-विरोधी, मजदूर-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी नीतियों व कदमों, सरकार द्वारा मजदूरों की 12-सूत्री मांगों को नजरअंदाज करने और उनपर हमलों को निरंतर बढ़ाने के खिलाफ आंदोलन को और अधिक तेज करने के लिये 8 और 9 जनवरी 2019 को दो दिन की देशव्यापी आम हड़ताल का ऐलान किया.  

केंद्रीय ट्रेड यूनियन संगठनों में ऐक्टू, इंटक, एटक, एचएमएस, सीटू, एआईयूटीयूसी, टीयूसीसी, सेवा, यूटीयूसी और एलपीएफ शामिल थे. सम्मेलन में बैंक, बीमा, प्रतिरक्षा, रेलवे तथा केंद्रीय/राज्य सरकार के कर्मचारी सहित सभी क्षेत्रों और सेवा समूहों के स्वतंत्र राष्ट्रीय फेडरेशनों/संगठनों ने भी भागीदारी की. सम्मेलन को ऐक्टू महासचिव राजीव डिमरी, एटक महासचिव अमरजीत कौर, सीटू महासचिव तपन सेन, एचएमएस महासचिव हरभजन सिंह सिद्धू, इंटक महासचिव संजीवा रेड्डी, यूटीयूसी नेता अशोक घोष, एआईयूटीयूसी सचिव सत्यवान, टीयूसीसी महासचिव जी.आर. शिवशंकर, सेवा की सचिव सोनिया जार्ज, एलपीएफ नेता पेची मुथु ने संबोधित किया. अध्यक्षमंडल में ऐक्टू की ओर से राष्ट्रीय सचिव संतोष रॉय मौजूद थे.

सम्मेलन का घोषणापत्र

आज केंद्रीय ट्रेड यूनियनों, स्वतंत्र फेडरेशनों और एसोसिएशनों ने अपने सतत आंदोलनात्मक कार्यक्रमों को जारी रखते हुए कामगारों का राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया. इन संगठनों ने 8 अगस्त 2017 को तालकटोरा स्टेडियम में हुए कामगारों के राष्ट्रीय सम्मेलन में लिये गये निर्णयों को अंजाम दिया. कठिन संघर्षों से हासिल मजदूर अधिकारों और ट्रेड यूनियनों पर सरकार के हमलों के खिलाफ, कानूनों के मजदूर-विरोधी और मालिक-परस्त कोडीकरण और मौजूदा कानूनों के उल्लंघन के खिलाफ तथा आईएलओ कन्वेंशनों के उल्लंघन के खिलाफ तीन महीने के सतत देशव्यापी प्रचार के बाद 9-10-11 नवम्बर 2017 को तीन दिवसीय महापड़ाव का सफलतापूर्वक आयोजन किया गया. हमने सरकार से आवश्यक वस्तुओं के बढ़ते दामों को रोकने, नए सम्मानजनक रोजगारों के सृजन, सभी के लिए 18000रू. प्रतिमाह न्यूनतम वेतन और 6000रू. प्रति माह पेंशन तथा सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा के लिए, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों को बेचने की सभी तरकीबों तथा पी.पी.पी. और आऊटसोर्सिंग जैसे तरीकों से निजीकरण के खिलाफ मांगें बुलंद की थीं. महापड़ाव के बाद 17 जनवरी 2018 को स्कीम कर्मियों की राष्ट्रव्यापी हड़ताल आयोजित की गई और उसके बाद 23 जनवरी से 23 फरवरी 2018 तक अलग-अलग तारीखों में लगभग सभी राज्यों में सत्याग्रह और विरोध-प्रदर्शन किए गये.

केन्द्रीय सरकार न केवल मजदूर वर्ग के संगठित आंदोलनों की वाजिब और वास्तविक मांगों पर चुप्पी साधे हुए है, बल्कि उसने मजदूरों, कर्मचारियों और ट्रेड यूनियनों पर हमला तेज कर दिया है. द्विपक्षीय व त्रिपक्षीय वार्ताओं को नजरअंदाज किया जा रहा है. सरकार द्विपक्षीय समझौतों में सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन पर और केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के लिए सातवें वेतन आयोग की विषमताओं पर बातचीत को टाल रही है. केन्द्रीय सरकार के कर्मचारियों द्वारा उठाए गए कई मुद्दों जैसे कि नई पेंशन स्कीम को रद्द करना, फिटमेंट फार्मुला और न्यूनतम वेतन पर पुनर्विचार, भत्तों को यथावत रखना और पेंशन फिटमेंट फार्मुला के रूप में विकल्प नं. 1 को चुनने का प्रावधान जैसी मांगों के समाधान के लिए सरकार ने चार उप-समितियों का गठन किया था. लेकिन हुआ कुछ नहीं.

रक्षा और रेल समेत केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों के संगठन सरकार के विश्वासघात के खिलाफ और नई पेंशन स्कीम को रद्द करने समेत अन्य वास्तविक मांगों के लिए संयुक्त आंदोलन की योजना बना रहे हैं. यह राष्ट्रीय सम्मेलन इनके संघर्षों का पूर्ण समर्थन और मांगों का अनुमोदन करता है.

जुलाई 2015 के बाद से अब तक भारतीय श्रम सम्मेलन (आईएलसी) का कोई सत्र बुलाया नहीं गया है, बल्कि आईएलसी की तय तारीखों को खारिज कर दिया गया. सरकार या उसके मंत्रियों के समूहों की ओर से ट्रेड यूनियनों के साथ कोई बातचीत नहीं गई.

यह सम्मेलन केंद्रीय सरकार द्वारा चलाई जा रही कॉरपोरेट-परस्त, राष्ट्र-विरोधी, जन-विरोधी नीतियों के चलते राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बिगड़ती हालत, जिससे देशभर के कामगारों की आजीविका बुरी तरह प्रभावित हो रही है, पर गंभीर चिंता व्यक्त करता है.

यह राष्ट्रीय सम्मेलन केंद्रीय सरकार द्वारा साजिशाना व निरंकुश तरीके से देश के सबसे बड़े मजदूर संगठन, इंटक को सभी त्रिपक्षीय व द्विपक्षीय मंचों से, अंतर्राष्ट्रीय मंच समेत, वंचित करने के निर्णय की कड़े शब्दों में निंदा करता है. यह कदम कुछ और नहीं बल्कि पूरे ट्रेड यूनियन आंदोलन के अधिकारों पर घोर हमला है. इसका मुकाबला सभी ट्रेड यूनियनें संयुक्त तौर पर करेंगी.

सम्मेलन इस बात पर घोर आक्रोश व्यक्त करता है कि सरकार देश के समस्त ट्रेड यूनियन आंदोलन द्वारा संयुक्त रूप से 12-सूत्री मांगपत्र पर देशभर में चलाये गए आंदोलनों को लगातार अक्खड़पन से अनदेखा कर रही है. इन मांगों में शामिल हैंः न्यूनतम मजदूरी, सामाजिक सुरक्षा, स्कीम वर्कर्स को श्रमिक का दर्जा एवं वेतन व सुविधाएं प्रदान करना; निजीकरण एवं बड़े पैमाने पर ठेकाकरण पर रोक लगाना और आईएलओ कन्वेंशन 87 और 98 का सरकार द्वारा अनुमोदन. होमवर्क और घरेलू काम पर आईएलओ कन्वेंशनों 177 एवं 189 की अभी तक पुष्टि नहीं की गई है. सरकार की मजदूर-विरोधी नीतियों के खिलाफ करोड़ों मजदूरों की सक्रिय भागीदारी के साथ आयोजित की गईं कई राष्ट्रव्यापी संयुक्त हड़तालों, जिनमें 2 सितम्बर 2015 और 2 सितम्बर 2016 की हड़तालें प्रमुख हैं, के बावजूद केन्द्रीय सरकार देश की कामगार जनता के अधिकारों और आजीविका पर हमले बढ़ाती जा रही है. संगठित और असंगठित क्षेत्र दोनों ही समान रूप से पीड़ित है.

यहां तक की सर्वाधिक श्रम सघन क्षेत्रों में रोजगार सृजन के नकारात्मक होने के साथ बेरोजगारी की स्थिति लगातार बदतर हो रही है. उद्योगों की बंदी और कामबंदी का परिदृश्य और आईटी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर नौकरियों के खत्म होने की भविष्यवाणी आग में घी डालने का कम कर रही है. पेट्रोलियम उत्पादों, सार्वजनिक परिवहन, बिजली, दवाइयों समेत सभी बुनियादी वस्तुओं के दामों में वृद्धि आम तौर पर लोगों के रोजमर्रा जीवन पर बोझ के साथ-साथ खासतौर पर व्यापक रूप में दरिद्रता बढ़ा रही है. जीएसटी को लागू करने ने आग को और भड़काने का काम किया है. यहां तक की अनिवार्य और जीवनदायी दवाइयां भी भारी जीएसटी के दायरे में डाल दी गई हैं. सार्वजनिक क्षेत्र और कई कल्याणकारी योजनाओं के मद में सरकारी खर्च में हुई भारी कटौती ने असामान्य रूप से मजदूरों और खासतौर से असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत को और खराब बना दिया है. आधुनिक गुलामी की प्रथा को कायम करने के लिए सरकार ने पिछले दरवाजे से फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट (नियत अवधि नियोजन) शुरू किया है, पारिवारिक उद्यमों में 14 वर्ष से नीचे के बच्चों को काम पर रखने की अनुमति दे दी है और अप्रेंटिसशिप ऐक्ट में मालिक-परस्त बदलाव किए हैं.

पेट्रोल और डीजल के दामों में भारी वृद्धि के व्यापक प्रभाव के कारण तमाम रोजमर्रा के इस्तेमाल और खासतौर से खाद्य वस्तुओं के दामों में वृद्धि हुई है जिससे आम जनता प्रताड़ित हो रही है. सरकार की तेज रफ्तार नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से पैदा हुआ संकट नोटबंदी के बाद के असर और दोषपूर्ण जीएसटी से बुरी तरह से गहरा गया है. एक ओर रोजगार में कमी और दूसरी ओर छंटनी, काम छूटना, गैर-कानूनी बंदी साधारण परिवारों को भोजन, बच्चों की शिक्षा, बीमार और बूढ़ों के इलाज जैसी बुनियादी चीजों के लिए भी दयनीय स्थिति में डाल रही है. सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में बढ़ते काम के बोझ के बावजूद पिछले पांच सालों में कोई नए रोजगार सृजित नहीं किए गए. इसके विपरीत, अनिवार्य रूप से 3 प्रतिशत सरकारी पदों का समर्पण जारी है. इस सरकार के शासन में एसएसबी जैसे कई अन्य प्रतियोगी भर्ती परीक्षाओं में घोटालों ने शिक्षित बेरोजगारों के घावों पर नमक छिड़का है. निजी क्षेत्र में भी व्यापक पैमाने पर श्रम शक्ति को कम करना एक आम परिघटना बन गई है.

स्वतंत्र और नियोक्ता संगठनों द्वारा कराये गए सर्वेक्षणों के अनुसार नोटबंदी के पहले कुछ महीनों में लगभग 70 लाख नौकरियों का नुकसान हुआ, 2.34 लाख छोटी फैक्टरियां बंद हुईं. असंगठित अर्थव्यवस्था में 6 करोड़ लोगों की आजीविका को नुकसान और संगठित क्षेत्र में 17 लाख नौकरियों का खत्म होना दुखद जमीनी हकीकत को बयान करता है. इस तरह दयनीय नतीजों के सामने सरकार आंकड़ों का घालमेल कर तोड़-मरोड़ कर रोजगार सृजन के झूठे दावों को पेश करने में व्यस्त है. श्रम मंत्रालय द्वारा किए जाने वाले नियमित रोजगार सर्वेक्षण बंद कर दिए गए हैं.

सरकार का मजदूर विरोधी निरंकुश चरित्र तब और ज्यादा दिख रहा है जब वह समान काम के लिए समान वेतन और लाभ, 15वें भारतीय श्रम सम्मेलन तथा सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों के मानदंडों के अनुसार न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण; आंगनबाड़ी, मिड-डे-मिल और आशा आदि स्कीम कर्मियों, मनरेगा मजदूरों और घरेलू श्रमिकों को श्रमिक का दर्जा देने के संबंध में पिछले कई भारतीय श्रम सम्मेलनों की सर्वसम्मत अनुशंसाओं (जिनमें सरकार स्वयं एक पक्ष थी) को लागू करने से इनकार कर रही है. हैरानी की बात है कि मौजूदा सरकार यहां तक कि “समान काम के लिए समान वेतन और लाभ“ और ईपीएस 1995 जैसे वास्तविक मुद्दों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों को लागू करने से इनकार कर रही है.

निर्माण क्षेत्र जहां कि भारी संख्या में असंगठित कार्यबल लगा है वहां भी सरकार निर्माण मजदूरों के हितों और सुविधाओं के लिए बने निर्माण मजदूर सेस फंड के इस्तेमाल के लिए सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर समुचित कार्यवाही नहीं कर रही है. सरकार निर्णय लेने वाले तंत्रो में केन्द्रीय और राज्य ट्रेड यूनियनों को अनदेखा कर रही है. किसी भी शहार की लगभग 2.5 प्रतिशत आबादी फेरी-खोमचे वाली है. स्ट्रीट वेंडिग (आजीविका का संरक्षण और फेरी-खोमचे विनियमन), 2014 अधिनियम को व्यवस्थित तरीके से विफल किया जा रहा है. जीएसटी के लागू किए जाने से बीड़ी मजदूरों का रोजगार और कल्याण भी खतरे में है, वहीं बीड़ी कारोबारी मानने से इंकार कर रहे हैं कि मालिक-मजदूर संबंध खराब हालत में हैं.

देश की सभी ट्रेड यूनियनों, चाहे वे किसी से भी संबद्ध हों, के विरोध के बावजूद सरकार आक्रामक रूप से मालिक-परस्त और धुर मजदूर-विरोधी श्रम कानून सुधारों को आगे बढ़ा रही है जिसका असल मकसद कामगार अवाम पर गुलामी की हालत थोपना है. संघर्षों के बल पर हासिल किए गए 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को सरकार ने ‘आसानी से बिजनेस करने’, ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्ट अप’ आदि के नाम पर मजदूरों को ‘हायर एंड फायर’ करने के लिए 4 मजदूर-विरोधी, मालिक-परस्त श्रम कोडों में बदल दिया है. सरकार का सबसे ताजातरीन हमला है ईपीएफ, कोल माइन्स प्रोविडेन्ट फंड और ईएसआइसी और कई अनेक कल्याणकारी अधिनियमों के तहत मौजूदा वैधानिक सामाजिक सुरक्षा ढांचे को विघटित और विखंडित कर सामाजिक सुरक्षा कोड को लाने की ओर बढ़ना. सरकार ऐसा करते हुए इन विभिन्न भविष्य निधि कोषों में मजदूरों के अंशदान से बने 24 लाख करोड़ रू. से अधिक के विशाल सामाजिक सुरक्षा कोष को हड़प कर सबसे कपट और छल भरे ‘सर्वव्यापी सामाजिक सुरक्षा’ के नाम पर शेयर बाजार में सट्टेबाजी के लिए उपलब्ध कराना चाहती है. व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य पर प्रस्तावित कोड फैक्टरी ओर सर्विस सेक्टर के मजदूरों के कल्याण समेत व्यावसायिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के लिये खतरनाक कदम है.

वित्तीय बिल के अनुमोदन के माध्यम से सरकारी नीति के रूप में फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट का लाना रोजगार सुरक्षा के खात्मे की पूर्वसूचना होगा. सरकार का सबसे ताजा हमला टेªड यूनियन ऐक्ट 1926 पर हुआ है, जिसमें सरकार अनुच्छेद 28 ए और 29 में प्रस्तावित संशोधन के द्वारा केंद्र और राज्य की यूनियनों की परिभाषा में बदलाव करना चाहती है. इसकी दुर्भावनापूर्ण मंशा ट्रेड यूनियनों की कार्यवाहियों में सरकारी दखल और यूनियन के आंतरिक मामलों को अपने इशारों पर चलाने के लिये यूनियन के अधिकारों को हड़पना है. यह ‘हायर एंड फायर’ को आसान बनाने के लिये ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ ओर ‘स्टार्ट अप’ आदि जैसे नामों से किया गया है. ऐसा लगता है कि यह केंद्र और राज्य स्तर की मजदूर-पक्षीय यूनियनों के मान्यता के दर्जे को अमान्य करने की एक चाल है. श्रम मंत्रालय द्वारा श्रम कानूनों में संशोधन पर त्रिपक्षीय परामर्श बुलाना एक दिखावा है और यह बस परामर्श के बाबत दस्तावेजों का अंबार खड़ा करना है जिसका केंद्रीय ट्रेड यूनियनों ने लगातार बहिष्कार किया है.  

सरकार दिन प्रतिदिन सभी सामरिक महत्व के सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों को, जिसमें प्रतिरक्षा (डिफेंस) उत्पादन, बैंक, बीमा, रेलवे, सार्वजनिक सड़क परिवहन, तेल, ऊर्जा, इस्पात, कोयला आदि शामिल हैं, का विनिवेशीकरण, सामरिक बिक्री, आऊटसोर्सिंग एवं 100 फीसदी एफडीआई के माध्यम से निजी क्षेत्र के हवाले कर रही है. इसके अलावा सरकार नगदी से समृद्ध सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के निवेश वाले नगद रिजर्व को एकदम खाली कर रही है. वास्तव में प्रतिरक्षा क्षेत्र के निजीकरण का असली मकसद देश द्वारा पिछले छः दशकों से ज्यादा समय में विकसित की गई निर्माण क्षमता और रिसर्च पहलों को नष्ट करना है. सबसे बुरी और संदिग्ध योजना है रक्षा के हथियारों और संवेदनशील उपकरणों, जो कि रक्षा कारखाने स्वयं निर्मित कर रहें हैं, उनके 50 प्रतिशत उत्पादों को आऊटसोर्स करना. ऑर्डिनेन्स फैक्टरियों द्वारा उत्पादित 250 से ज्यादा वस्तुओं को नान-कोर (गैर-बुनियादी) की सूची में डाल दिया गया है. इनमें से कुछ वस्तुओं की सप्लाई के लिये निजी कंपनियों को आर्डर दिये गये हैं, सरकार उन 5 ऑर्डिनेंस कारखानों को बंद करने के लिये तत्पर है जो उन वस्तुओं का उत्पादन कर ही हैं जिनका इस्तेमाल हमारे सैनिक और अधिकारी कर रहे हैं. यह 1600 महिला दर्जियों समेत हजारों मजदूरों को काम से बाहर कर देगा. काम के आर्डर के मामले में प्रतिरक्षा क्षेत्र की सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों और पोतगाहों के साथ भेद-भाव किया जा रहा है जबकि निजी कंपनियों को सरकार प्रतिरक्षा खरीद सौदेबाजी में संरक्षण दे रही है.

रेलवे का कदम-ब-कदम पूरा निजीकरण हो रहा है. रेलवे द्वारा बनाए गए रेलवे ट्रैकों पर निजी ट्रेनों को चलाए जाने की अनुमति दी गई है. यही नहीं, निजी रेल ऑपरेटरों को उनके डिब्बों, वैगनों और इंजनों के रखरखाव के लिए मुफ्त में रेल यार्ड, शेड और वर्कशाप की पेशकश की गई है. विभिन्न मेट्रो शहरों में 23 रेलवे स्टेशनों को निजीकरण के लिए चुना गया है. 600 रेलवे स्टेशनों को उनकी जमीनों सहित निजी कंपनियों द्वारा विकसित करने के लिये चुना गया है, और यह सब हो रहा है ‘रेलवे स्टेशनों और उनके आस-पास की जमीनों के पुनर्विकास’ के लिये. यह वित्त मंत्री के बजटीय भाषण का हिस्सा था. रेलवे कर्मचारी रोजगार सुरक्षा, जनतांत्रिक ट्रेड यूनियन अधिकारों और वेतन, भत्ते, सामाजिक सुरक्षा आदि में हासिल की गई उपलब्धियों को बचाने के संदर्भ में निजीकरण के सबसे बड़े शिकार होंगे. सेन्ट्रल इलेक्ट्रिसिटी रेगुलेटरी अथॉरिटी (सीईआरसी) की तरह एक रेलवे डेवलपमेंट अथॉरिटी (आरडीए) बनाई गई है. जैसा कि सीईआरसी ने बिजली के भाड़ों में बेतहाशा वृद्धि की है, उसी तरह आरडीए के तहत रेल भाड़े और माल ढुलाई के भाड़े में बढ़ोतरी होगी जो कि आम आदमी को और कष्ट ओर निजी ऑपरेटरों को फायदा पहुंचाएगा.

भाजपा के नेतृत्व में चल रही केंद्र की एनडीए सरकार के भ्रष्टाचार के कई मामलों का पर्दाफाश सत्ताधारियों के असली चेहरे को उजागर करता है और रफाल सौदा तो सबसे बड़े घोटाले के रूप में परत दर परत सामने आ रहा है.

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर वैधानिक तथा कार्यकारी निर्देशों के जरिये हमले हो रहे हैं. सरकार का एकमात्र उद्देश्य निजीकरण है और उन्हीं निजी कॉरपोरेट बेईमानों को नाजाएज लाभ पहुंचाना है जिन्होंने बैंकों से लिया कर्ज अदा नहीं किया जिसके चलते बैंक क्षेत्र काफी मुश्किलों में है. एनपीए की समस्या को हल करने के बजाए, कॉरपोरेट घरानों की लूट को जाएज बनाने के लिए सरकार बैंकों के विलय (मर्जर) करने की नीति लेकर आगे बढ़ रही है जिससे वास्तव में बहुत से बैंक ब्रांच बंद हो रहे हैं, कर्मचारियों की नौकरियां खत्म हो रही हैं तथा सार्वजनिक बैंकों की आम जनता तक पहुंच को कम किया जा रहा है. एनपीए 13 लाख करोड़ रुपये पार कर चुका है. विजय माल्या के बाद, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी भी भारतीय व्यवस्था को धोखा देते हुए भारतीय जनता के पैसे को लूट कर भाग गए हैं. सरकार एफआरडीआई बिल लेकर आई, लेकिन ट्रेड यूनियनों और साथ ही समाज के कई अन्य हिस्सों के सख्त विरोध के चलते सरकार को यह बिल वापस लेना पड़ा. लेकिन अब सरकार इन्सोलवैंसी और बैंकरप्सी कोड लेकर आ गई है जिसका मकसद है कि जो कॉरपोरेट घराने कर्जा नहीं चुका रहे हैं उनको इस लूट में से अधिकांश हिस्सा लेकर भागने का मौका मिले, इस बहाने से कि हम कर्जा चुकाने के हल की प्रक्रिया चला रहें हैं. इसके चलते बैंको को केवल 30 प्रतिशत ही उस कर्जें में से राशि वापस लौटेगी. यह एक बहुत बड़े घोटाले का रास्ता है जिसके चलते देश की संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था पर और गहरा आघात लगेगा. बैंकों और टेलीकॉम में नियोजित ठेका कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है. बीमा सेक्टर भी इसी तरह के हमलों से जूझ रहा है. देश के प्रमुख बंदरगाहों के निजीकरण के लिए भी वैधानिक प्रावधान अंतिम चरण में है. केन्द्रीय सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों के प्रमुख और सामरिक महत्व के सेक्टर जैसे ऊर्जा, पेट्रोलियम, टेलीकॉम, धातु, खनन, मशीन निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक एवं डिजिटल, सड़क, वायु और जल परिवहन, बंदरगाह व गोदी और कई अन्य सरकार की चौतरफा निजीकरण की मुहिम का शिकार हैं. जम्मू-कश्मीर में एक ही सार्वजनिक क्षेत्र का प्रतिष्ठान आईटीआई लि0 है और सरकार इसकी जमीन और उत्पादन की बिल्डिंग को एनएसजी हब बनाने के नाम पर हड़पने की तैयारी में है. लेकिन दूसरी ओर, सरकारी सेवा क्षेत्र के कर्मी एकताबद्ध होकर इन नीतियों का प्रतिरोध कर रहे हैं जिनमें स्कीम कर्मी, घरेलू कामगार, प्रवासी मजदूर व अन्य असंगठित क्षेत्र के मजदूर भी शामिल हैं. यह सम्मेलन इन संघर्षों को अपना पूर्ण समर्थन देता है. सम्मेलन यह भी मांग करता है कि प्रतिरक्षा क्षेत्र में एक रैंक एक पेंशन जो कुछ के लिये घोषित की गई है, सभी कर्मचारियों को एक समान उपलब्ध होनी चाहिये.

कई राज्य सरकारों की ओर से निजी कंपनियों को रूट-परमिट देने के माध्यम से सार्वजनिक क्षेत्र के सड़क परिवहन को विखंडित करने के प्रयास जारी हैं. केंद्र सरकार का भी इरादा है कि नया मोटर वहिकल (अमेंडमेंट) बिल, 2017 (मोटर वाहन (संशोधन) अधिनियम) किसी प्रकार लोकसभा में पारित कर ले, जो कि पूरी तरह से सड़क परिवहन के निजीकरण का रास्ता खोल देगा और निजी समेत तमाम ट्रांसपोर्ट कर्मियों पर सेवा की भंयकर शर्तें थोप देगा. यह सम्मेलन ट्रांसपोर्ट कर्मियों के आंदोलनों का संज्ञान लेते हुए परिवहन क्षेत्र में राज्य सरकारों और केन्द्रीय सरकार के जन-विरोधी और मजदूर-विरोधी कदमों की भर्त्सना करता है. इस बिल से पहले सरकार ने रोड ट्रांसपोर्ट एंड सेफ्टी बिल, 2014 पेश किया था, जिसके खिलाफ ‘राजस्थान रोड ट्रांसपोर्ट वर्कर्स यूनियन’ अन्य यूनियनों को साथ लेकर संघर्ष की अगवाई कर रही है. आज भी वे 16 सितंबर 2018 से अनिश्चितकालीन हड़ताल पर हैं क्योंकि राजस्थान के ट्रांसपोर्ट मंत्री ने उन्हें जो आश्वासन दिये थे, उन से मंत्री मुकर रहे हैं, और कई डिपो निजी ट्रांसपोर्ट कंपनियों को देने की कोशिश कर रहे हैं. सम्मेलन ऐसे सभी संघर्षों का स्वागत करता है, खास कर महाराष्ट्र के ट्रांसपोर्ट कर्मियों को सलाम करता है. सरकारी दमन और कुछ हड़ताल विरोधी तत्वों द्वारा पैदा की गई बाधाओं को धता बतलाकर अपनी मांगों के समर्थन में उन्होंने चार दिन की जुझारू सफल हड़ताल की जो उन की चट्टानी एकता, परस्पर संपर्क करने की कुशलता और लगन को दर्शाता है. सम्मेलन ट्रांसपोर्ट कर्मियों की देशव्यापी शानदार हड़ताल, जो 7 अगस्त 2018 को संपन्न हुई, का भी खास तौर पर संज्ञान लेता है. हड़ताल मोटर वहिकल अमेंडमेंट बिल के विरोध में थी और मजदूरों ने व्यापक रूप से उस में भागीदारी की. सम्मेलन राज्य सरकारों-खासकर हरियाणा और राजस्थान की सरकारों और केंद्र सरकार- के ट्रांसपोर्ट सेक्टर के प्रति जन-विरोधी और मजदूर-विरोधी रवैये की कड़े शब्दों में निंदा करता है.

मजदूरों का राष्ट्रीय सम्मेलन विभिन्न राज्यों में संघर्षशील किसानों और साथ ही किसान संगठनों के संयुक्त राष्ट्रीय मंच के साथ अपनी एकजुटता व्यक्त करता है. साथ ही आदिवासी जनता द्वारा फॉरेस्ट राईट्स ऐक्ट 2006 को लागू करवाने के लिए चलाये जा रहे संघर्ष का पुरजोर समर्थन करता है. कृषि क्षेत्र जो कि अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा रोजगार देने वाला क्षेत्र है, में ऐसी ही कॉरपोरेट-परस्त, जमींदार-परस्त नीतियों को बढ़ाया जा रहा जिनकी वजह से कृषि क्षेत्र में गंभीर संकट बना हुआ और किसानों द्वारा आत्महत्याओं में निरंतर वृद्धि हो रही है. खेती की लागत का डेढ़ गुना दाम के बतौर न्यूनतम समर्थन मूल्य का वाद पूरा करना तो दूर रहा, न्यूनतम समर्थन मूल्य को लेकर जो घोषणाएं की गईं वह फर्जीवाड़ा है और किसानों के साथ खिलवाड़ है.

मजदूरों का राष्ट्रीय सम्मेलन वर्तमान सरकार के तहत सरकारी मशीनरी के संरक्षण में समाज में चलाए जा रहे साम्प्रदायिक और विभाजक षड़यंत्रों की सख्त निंदा करता है. भाजपा की सरकारें विरोधी मत और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खिलाफ एनएसए, यूएपीए जैसे घिनौने कानूनों का तथा सीबीई, एनआईए, आईटी जैसी एजेंसियों का खुलेआम इस्तेमाल कर रही हैं. देश में अमन पसंद, धर्मनिरपेक्ष लोग सभी जगह आतंक और असुरक्षा की कठोर परिस्थिति का सामना कर रहे हैं. साम्प्रदायिक ताकतें बेवजह के सवालों पर समाज में तनाव का माहौल तैयार पैदा कर रही हैं. यह माहौल आमतौर पर मजदूरों और मेहनतकश अवाम की एकता में बाधा पैदा कर रहा है, जो एकता 12 सूत्रीय मांगपत्र को आगे बढ़ाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. मजदूर वर्ग को इन साम्प्रदायिक विभाजक शक्तियों के खिलाफ अपनी मजबूत आवाज उठानी होगी.

इस सरकार की जन-विरोधी, मजदूर-विरोधी तथा राष्ट्र-विरोधी नीतियां न सिर्फ श्रमिकों पर मुसीबतों का बोझ डाल रही है, बल्कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उनके चमचे भारत के कॉरपोरेट घरानों के हित में देश की अर्थव्यवस्था की नींव ही उखाड़ रही हैं, अपने देश की उत्पादन क्षमता को ही खत्म कर रही हैं. हर क्षेत्र में जनहित की नीतियों को सामने लाने के लिए, इन जन-विरोधी और राष्ट्र-विरोधी नीतियों को चलाने वाली सरकार को हर कीमत पर शिकस्त देनी होगी. और इसलिए जरूरी है कि, मजदूर वर्ग के इस एकताबद्ध मंच को अपने संघर्ष अधिक तीव्र करने होंगे.

केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और स्वतंत्र राष्ट्रीय फेडरेशनों के संयुक्त मंच के सामने यह कार्यभार है कि विभिन्न सेक्टरों में उठ रहे संघर्षों को राष्ट्रीय स्तर पर संगठित एकताबद्ध आंदोलनों और लामबंदी के जरिये अधिक तीव्र किया जाए. साथ ही सभी सेक्टरों के संघर्षों को सुदृढ़ करने और इनको चरम अवस्था में ले जाने के बतौर देशव्यापी हड़ताल की ओर बढ़ा जाए.

अतः मजदूरों का यह राष्ट्रीय सम्मेलन निम्नलिखित कार्यक्रमों को अपनाता हैः

  • अक्टूबर-नवंबर 2018 के बीच राज्य, जिला और उद्योग/सेक्टर के स्तर पर संयुक्त कन्वेंशनों का आयोजन;
  •  उद्योग-स्तर पर संयुक्त सभाएं, रैली (नवंबर-दिसंबर, 2018 के बीच);
  • 17-22 दिसंबर, 2018 के बीच प्रदर्शन करते हुए हड़ताल का नोटिस देना; और
  • 8 और 9 जनवरी 2019 को दो दिन की देशव्यापी हड़ताल.

यह राष्ट्रीय कन्वेंशन समस्त श्रमिक अवाम से अपील करता है कि वे किसी भी संगठन से जुड़े हों, किसी भी क्षेत्र या राज्य के हों, एक साथ मिलकर इन कार्यक्रमों को सफल बनाएं. ु