रिजर्व बैंक और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की रक्षा करो

देश के सबसे महत्वपूर्ण आर्थिक संस्थान, भारत के केंद्रीय बैंक, भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की स्वायत्तता खतरे में है. और इसी से जुड़ा है सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का अस्तित्व. कॉरपोरेट-परस्त मोदी सरकार भारतीय रिजर्व बैंक को अपने इशारे पर चलाना चाहती है. मोदी सरकार का दबाव है कि केंद्रीय बैंक अपने रिजर्व फंड की एक तिहाई राशि यानी 3 लाख 20 हजार करोड़ रुपये सरकार के खजाने (ट्रेजरी) में डाल दे. अन्यथा भारतीय रिजर्व बैंक कानून की धारा लागू करके भारतीय रिजर्व बैंक गवर्नर की शक्ति क्षीण कर दी जाएगी. मोदी सरकार भारतीय रिजर्व बैंक के केंद्रीय बोर्ड द्वारा अपने पक्ष में फैसला करवाना चाहती है. केंद्रीय बोर्ड में उद्योगपतियों, सरकार और आरएसएस के प्रतिनिधि भरे पड़े हैं.

मोदी सरकार का आरबीआई को कमजोर करने का फैसला देश की जनता, सार्वजनिक बैंक और देश के लिए हानिकारक है. ऐक्टू इस फैसला का जोरदार विरोध करता है.
देश की अर्थव्यवस्था और बैंकों के बुरे दिनों से निपटने के लिए आरबीआई एक सुरक्षित कोष रखता है. अभी आरबीआई के पास रिजर्व फंड की अकूत राशि 9 लाख हजार करोड़ रुपये है जिसका एक तिहाई मोदी सरकार हड़प लेने को व्याकुल है.

भारतीय रिजर्व बैंक कानून की धारा 7 कहती है कि जनहित में सरकार अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है. सरकार की समस्या यह है कि जहां धारा 7 (2) बोर्ड को देख-रेख की शक्ति देती है वहीं धारा 7 (3) कहती है कि जब तक रिजर्व बैंक का केंद्रीय बोर्ड  विनियमन (रेगुलेशन) नहीं बनाता तब तक पूरी शक्ति गवर्नर के पास ही रहेगी. बस धारा को यदि आरबीआई ऐक्ट की धारा 58 से जोड़कर देखा जाए तो केंद्रीय बोर्ड प्रशासनिक मामलों के लिए विनियमन बना सकता है. बैंकिंग मामलों की देखरेख की शक्ति गवर्नर के पास ही रहेगी. फिर भी मोदी सरकार का दबाव जारी है. देश के केंद्रीय बैंक के इतिहास में पहली बार किसी सरकार द्वारा धारा 7 लागू करने की बात की जा रही है.

दरअसल, इस चुनावी वर्ष में मोदी सरकार को मतदाताओं को लुभाने के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसों की दरकार है; जबकि सरकार का खजाना संकट में है. मोदी सरकार भारतीय रिजर्व बैंक से दो काम करवाना चाहती है. पहला कि भारतीय रिजर्व बैंक 11 सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के ऋण देने के अधिकार पर लगी रोक को हटा ले. अभी हाल में सूक्ष्म, छोटे-मझोले उद्यमियों (एमएसएमई) को आकृष्ट करने के लिए नरेन्द्र मोदी ने 59 मिनट में एक करोड़ रुपये का कर्ज आबंटन करने की घोषणा की है, जिसे पूरा कर पाने में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इसी रोक की वजह से असमर्थ है. सरकार चाहती है कि कर्ज देने की प्रक्रिया आसान बना दी जाए, जिससे रिजर्व बैंक असहमत है. इससे बैंकों के बिगड़ते स्वास्थ्य को संभाल पाना मुश्किल होगा, जिसका देश की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ेगा. दूसरा यह कि चुनावी वर्ष में लोक लुभावन कार्यक्रमों के लिए भारतीय रिजर्व बैंक अपने सुरक्षित कोष का एक तिहाई हिस्सा सरकारी खजाने में डाल दे.

सच यह है कि मोदी जी के तुगलकी नोटबंदी और जीएसटी के फैसले, फिजूलखर्ची और गलत आर्थिक नीतियों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट में डाल दिया है. सरकारी खजाना संकट में है और चुनावी साल में बेहिसाब खर्च के लिए बेहिसाब दौलत की जरूरत है.

भारत का राजकोषीय घाटा (फिस्कल डेफिसिट) फिजूलखर्ची और कमतर राजस्व प्राप्ति की वजह से 2018-19 की पहली छमाही में ही वार्षिक लक्ष्य का 95.3 प्रतिशत हो चुका है. जिससे सकल घरेलू उत्पाद का 3.3 प्रतिशत राजकोषीय घाटे के लक्ष्य पर खतरा उत्पन्न हो गया है.

यहां तक कि अप्रत्यक्ष करों की वसूली घट गई है. जीएसटी का उदाहरण ही काफी है. जीएसटी की वसूली अनुमानित 1 लाख 25 हजार करोड़ रुपये के बदले औसतन मात्रा 90,000 करोड़ रुपये प्रतिमाह ही हो पा रहा है. सिर्फ जीएसटी में ही 50,000 करोड़ रुपये का घाटा. 2018 के सितंबर माह तक कुल आय प्राप्ति मात्र 7 लाख 9 हजार करोड़ रु. ही हो पायी; यानी बजट 2018 में अनुमानित 18.17 लाख करोड़ का मात्र 39 प्रतिशत. बजट में सार्वजनिक क्षेत्र की इक्विटीज (शेयर) बेचने से 80,000 करोड़ रुपये की प्राप्ति का अनुमान था, मगर सितंबर 2018 तक इस बिक्री से मात्र 15,289 करोड़ रुपये की राशि ही प्राप्त हो सकी है.

मोदी सरकार को आगामी लोकसभा चुनाव के लिए ज्यादा से ज्यादा धन की आवश्यकता है, जिससे एमएसएमइ योजना को लागू करने के साथ पेट्रोलियम, केरोसिन, खाद्य और खाद को थोड़ा सस्ता करने के लिए सब्सिडी का प्रावधान कर सके. सरकार का खजाना खाली हो रहा है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक और अन्य उद्यमों की अकूत धन राशि पर उनकी गिद्ध दृष्टि है. उनकी नजर आरबीआई के सुरक्षित कोष पर तो है ही, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों से विशेष अंशदान (स्पेशल डिवीडेंड) के नाम पर अतिरिक्त राशि की मांग की गई है.

ऐक्टू मोदी सरकार के इस कदम का घोर विरोध करता है और भारत के मजदूर वर्ग खासकर बैंक कर्मियों से अपील करता है कि देश हित, जनहित में सार्वजनिक क्षेत्र को बचाने के लिए मोदी सरकार के खिलाफ संघर्ष तेज करें और 8-9 जनवरी की देशव्यापी हड़ताल को जोरदार ढंग से सफल बनाएं.