मोदी नामक तबाही से भारत को बचाओ! भारतीय लोकतंत्र का पुनर्निर्माण करो!

गणतंत्र दिवस 2019

भारत में संविधान को अस्तित्व में आये अब लगभग सत्तर वर्ष हो चले हैं. जब नरेन्द्र मोदी अपनी सरकार को इस बात का श्रेय देते हैं कि उन्होंने अपने कार्यकाल में ऐसे काम कर दिखाए हैं जिन्हें पिछले सत्तर सालों में इससे पहले की कोई भी सरकार नहीं कर सकी थी, तो वह एक मामले में बिल्कुल सही कह रहे हैं. इससे पहले कभी भी भारत के संविधान को उलटने की इतनी बेताब कोशिश कभी नहीं दिखाई पड़ी. यह सच है कि एक सौ से ज्यादा बार इसमें संशोधन किये जा चुके हैं, इसके प्रावधानों का इस्तेमाल बाहरी और आंतरिक आपातकाल के दौरों में संवैधानिक अधिकारों को स्थगित करने के लिये किया जा चुका है, कई राज्यों की चुनी हुई सरकारों का तख्ता पलटने के लिये संविधान की अंतरात्मा का उल्लंघन किया गया है, मगर इससे पहले कभी हमने किसी सरकार को संविधान पर इस कदर लगातार हमले चलाते नहीं देखा जैसा कि वर्तमान सरकार चला रही है.

नागरिकता संशोधन विधेयक, अगर उसको उलटा नहीं जाता है तो वह हमारी नागरिकता के मूलाधार को और हमारे गणतंत्र की प्रकृति को उलटने के समान होगा, क्योंकि उसमें धर्म के आधार पर भेदभाव को अंगीकार कर लिया जायेगा. आर्थिक आधार पर आरक्षण (और वह भी अच्छी-खासी आमदनी वालों और उल्लेखनीय मात्रा में कृषि योग्य जमीन के मालिकों को) लागू करने वाला विधेयक, जो उसी दिन नागरिकता संशोधन विधेयक के साथ-साथ पारित किया गया, संस्थाबद्ध सामाजिक उत्पीड़न और अन्याय के खिलाफ सकारात्मक कदम के रूप में आरक्षण की धारणा के मूलाधार पर ही कुठाराघात करता है. और हमारे गणतंत्र के मूल चरित्र और उसकी मूल दिशा पर किये जा रहे हमलों को और तीखा करने के लिये नागरिकों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से क्रमशः ज्यादा से ज्यादा वंचित किया जा रहा है, चाहे वह हमला किसी व्यक्ति को अकेले निशाना बनाकर हो या किसी समूह को संयुक्त रूप से.

2019 के चुनाव के अब महज चंद सप्ताह रह गये हैं और दिल्ली पुलिस ने जेएनयू के छात्रों के खिलाफ कोई तीन साल पहले तथाकथित आपत्तिजनक नारे लगाने के आरोप में औपनिवेशिक जमाने के राजद्रोह के कानून के तहत एफआईआर दाखिल कर दी है. जाने-माने असमिया लेखक प्रोफेसर हीरेन गोहांइ और किसान कार्यकर्ता अखिल गोगोइ पर नागरिकता संशोधन कानून का विरोध करने के चलते राजद्रोह का आरोप लगा दिया गया है. अधिवक्ता सुरेन्द्र गाडलिंग और सुधा भारद्वाज से लेकर लेखक गौतम नवलखा और अब आनंद तेलतुमड़े तक, सभी असहमति जाहिर करने वाले लोगों को अत्याचारी कानून यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून) के तहत जेल भेजा जा रहा है. और इसके अलावा, पिट्ठू पूंजीवाद की सत्ता घोटालों का पर्दाफाश होने से बचने के लिये बिना विचारे हर किसी पर मानहानि के अंधाधुंध मुकदमे ठोके जा रही है, जबकि वस्तुतः हर किस्म की सुविधा पाने के लिये आधार कार्ड की अनिवार्यता थोपने का नतीजा व्यक्ति की निजता के मूलभूत अधिकार का उल्लंघन कर रही है और दूसरी ओर बड़े पैमाने पर लोगों को सुविधा का लाभ उठाने से वंचित कर रही है.

आज जहां फासिस्ट शक्तियां संविधान को क्षतिग्रस्त करने के जरिये अपनी शक्ति को सुदृढ़ करने की कोशिश कर रही हैं, वहीं लोकतांत्रिक शक्तियां संविधान के इर्दगिर्द गोलबंद होकर जवाबी मुकाबला कर रही हैं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में, जहां योगी सरकार ने संविधान को ताक पर रख कर अंधाधुंध इनकाउंटर राज लागू कर रखा है और इस तरह ‘हिंदू राष्ट्र’ का प्रायोगिक मॉडल पेश किया है, वहां जनता कानून के शासन पर आधारित शासन की वापसी के लिये जोरदार आवाज बुलंद कर रही है. सचमुच, ‘संविधान बचाओ, भारत बचाओ’ का नारा न्याय, अधिकार और सद्भावना के लिये लड़ी जाने वाली हर लड़ाई का साझा युद्धघोष बन गया है. स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे की स्वप्नदृष्टि के साथ संविधान को ही अनिवार्य रूप से 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव में जनता का बुनियादी घोषणापत्र बनना होगा.

1990 के दशक से अब तक उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों पर लगातार अमल ने आर्थिक मोर्चे पर तबाही बरपा दी है. मोदी के आर्थिक कदमों (मोदीनॉमिक्स) ने नोटबंदी थोपने, अत्यंत पेंचीदा और बहु-स्तरीय जीएसटी लागू करने तथा कॉरपोरेट हितों को बेलगाम बढ़ावा देने जैसे अत्यंत विनाशकारी कदमों के जरिये इस आग में घी डालने का काम किया है. परिणामस्वरूप, आम आदमी स्थायी कृषि संकट, आसमान छूती महंगाई और लगातार बढ़ती बेरोजगारी के बोझ तले कराह रहा है जबकि दूसरी ओर हम पिट्ठू पुंजीवाद में घिनौनी बढ़ोत्तरी और चौंकाने वाली गैर-बराबरी को लगातार बढ़ता देख रहे हैं. अर्थतंत्र इस कदर बुरी हालत में है कि जहां अधिकांश लोगों के लिये अपने अस्तित्व की रक्षा ही इतनी बड़ी चिंता का विषय बन गया है कि संघ ब्रिगेड के लिये लोगों का ध्यान अर्थतंत्र की समस्याओं से भटकाना बड़ा मुश्किल होता जा रहा है. हाल के अरसे में हुए उप-चुनावों और विधानसभा चुनावों के नतीजों ने इसी बुनियादी यथार्थ स्थिति को प्रतिबिम्बित किया है.

2019 का लोकसभा चुनाव स्वतंत्र भारत के समूचे इतिहास में सर्वाधिक चुनौतीभरी चुनावी लड़ाई साबित होने जा रहा है. यह चुनाव 1977 के चुनाव की तुलना में भी कहीं ज्यादा निर्णायक होने जा रहा है, जिसका कारण यह सीधा सा तथ्य है कि जहां 1977 में चुनाव होने से पहले ही इमरजेन्सी हटा ली गई थी, वहीं 2019 का चुनाव मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा लादी गई अघोषित इमरजेन्सी के साये तले होने जा रहे हैं. इस चुनाव का मुख्य मुद्दा है संविधान को बुलंद करना और लोकतंत्र की रक्षा करना. इसका मकसद महज मोदी सरकार द्वारा लाई तबाही का खात्मा करना ही नहीं बल्कि भारतीय लोकतंत्र को और अधिक पुख्ता बुनियाद पर खड़ा करने की दिशा में निर्णायक कदम बढ़ाना भी है.

2019 के चुनाव के विमर्श में जनता के विभिन्न तबकों द्वारा लगातार चलाये जा रहे संघर्षों की सशक्त अनुगूंज अवश्य ही सुनाई पड़नी चाहिये. जो मांगें 29-30 नवम्बर 2018 को देश भर के किसान संगठनों के संसद मार्च द्वारा, 8-9 जनवरी 2019 को मेहनतकश लोगों की अखिल भारतीय हड़ताल द्वारा उठाई गई हैं, और साथ ही जो मांगें 7 फरवरी 2019 को आयोजित होने वाले यंग इंडिया अधिकार मार्च में उठाई जा रही हैं, उन मांगों को ही 2019 के चुनाव में जनता के चुनाव घोषणापत्र का बुनियादी बिंदु बनाना होगा. नागरिकता कानून में संशोधन नहीं करने देना होगा और कठिन लड़ाइयों के बल पर हासिल जनता के सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से वंचित तबकों के लिये आरक्षण के अधिकार से सरकारों को खिलवाड़ करने की इजाजत नहीं दी जा सकती. जोर-जुल्म के बल पर चलाये जा रहे शासन का अंत करने के साथ-साथ असहमति का दमन करने के लिये इस्तेमाल किये जाने वाले अत्याचारी कानूनों का अवश्य ही खात्मा करना होगा और भारत में स्वतंत्रता, समानता और भाईचारे के केन्द्रीय संवैधानिक आधार पर लोकतंत्र को विकसित करने की राह विकसित करनी होगी. _____________________________________________________________