पुलवामा को मोदी के सत्ता के खेल का मोहरा न बनने दें! नफरत और जंगखोरी के संघी अभियान का प्रतिरोध करें!

जम्मू से श्रीनगर जा रहे सीआरपीएफ के रक्षक-दल पर उस भयावह हमले के बाद समूचा देश पुलवामा त्रासदी और उसके बाद की घटनाओं से उबरने की कोशिश अभी भी कर रहा है. इस हमले में मृतकों की संख्या 50 के करीब पहुंच चुकी है, और कई जवान अपने गंभीर जख्मों से अभी तक जूझ रहे हैं. इस हमले का दुस्साहस - लगभग तीन सौ किलोग्राम विस्फोटकों से लदी एक कार 78 वाहनों के रक्षा दल का रास्ता काट कर सीआरपीएफ जवानों से भरी एक बस से जा टकराती है - और, इस त्रासदी का बड़ा पैमाना जिसने आज तक के इतिहास में इस घाटी में सबसे ज्यादा सुरक्षा बलों की जान ली है, सचमुच सर चकराने वाला है. पूरे देश में इन मृतक जवानों के परिवारों के प्रति, जो अब कभी अपने उन प्रिय जन को नहीं पा सकेंगे, सहानुभूति की लहर साफ दिख रही है.

भारत अभी इस त्रासदी से जूझ ही रहा है, लेकिन संघ ब्रिगेड ने भाजपा के चुनावी हितों के लिए जनता की भावना का शोषण करने और उन जवानों के बलिदान का इस्तेमाल करने की एक संगठित मुहिम छेड़ दी है. देश के विभिन्न हिस्सों में कश्मीरी छात्रों, व्यापारियों और पेशाकर्मियों को प्रणालीगत ढंग से निशाना बनाया गया है, जो हमें इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक बाद सिख जनसंहार की कड़वी याद दिला रहा है. यहां तक कि स्कूली बच्चों को भी पाकिस्तान से बदला लेने और उसे विनष्ट कर डालने की मांग उठाने के लिए गोलबंद किया जा रहा है. पाकिस्तान के खिलाफ इस अंधराष्ट्रवादी चीख को कश्मीर और कश्मीरियों के खिलाफ, आम तौर पर मुस्लिम समुदाय के खिलाफ, जेएनयू व एएमयू जैसे विश्वविद्यालयों के छात्रों व शिक्षकों और वाम-उदारवादी धारा के खिलाफ मोड़ दिया जा रहा है; संक्षेप में, जो कोई भी नफरत और युद्ध की भाषा नहीं बोले और इसके बजाय शांति, सद्भाव और न्याय की वकालत करें, उसे पाकिस्तान का समर्थक और आतंकवाद का हिमायती करार दिया गया है.

मोदी सरकार को बरी करना तो दूर, पुलवामा त्रासदी ने दरअसल उसे और अधिक कठघरे में खड़ा कर दिया है. कश्मीर अभी सीधे केंद्र की देखरेख में चल रहा है. हाल-हाल तक भाजपा वहां पीडीपी के साथ मिलकर सरकार चला रही थी. स्पष्टतः, यह मोदी सरकार है जिसे जनता को यह जवाब देना होगा कि सुरक्षा में क्यों ऐसी भारी चूक हुई जिससे यह हमला हो सका. सभी संबंधित एजेंसियों और अधिकारियों को संभावित हमले के बारे में चेतावनी दी गई थी और उनसे सुरक्षा की रिपोर्ट देते रहने को कहा गया था. खुद सीआरपीएफ ने निवेदन किया था कि उनके जवानों को वायुयान से ले जाया जाए. फिर भी, 2500 जवानों के सीआरपीएफ बल को सड़क मार्ग से भेजा गया, और पुलवामा त्रासदी हो गई. सुरक्षा में इन स्पष्ट खामियों के बारे में हमें अभी तक सरकार की तरफ से कोई जवाब नहीं मिला है. इसके बजाय, भाजपा के नेतागण जनता की राष्ट्रवादी भावनाओं को नरेंद्र मोदी के लिए वोट में तबदील करने का आहृान किए जा रहे हैं.

पांच वर्ष पहले जब नरेंद्र मोदी सत्ता में आए थे, तो राष्ट्रीय सुरक्षा उनका एक प्रमुख एजेंडा था. उनके एक बहु-प्रदर्शित वीडियो क्लिप में मोदी को सीमा पार के आतंकवाद के बारे में मनमोहन सिंह से सवाल पर सवाल दागते दिखाया गया है. मोदी सवाल करते हैं कि केंद्र सरकार कब अपने सुरक्षा बल के जरिये सीमा की चौकसी करती है, कब वह आतंकियों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले धन और सूचनाओं के प्रवाह पर काबू पा सकेगी, कब वह पाकिस्तान की धरती से संचालन करने वाले आतंकियों को भारत के हाथों सौंपने के लिए पाकिस्तान पर दबाव बना पाएगी, मनमोहन सिंह की सरकार आतंकवाद को रोकने में विफल क्यों है, आदि, आदि. आज, पुलवामा ने ये सारे सवाल खुद मोदी की ओर घुमा दिए हैं. और बात सिर्फ पुलवामा की नहीं है, उनका पूरा पांच साल का शासन काल सिलसिलेवार हमलों और मुठभेड़ों से तार-तार हो चुका है - पुलवामा के पहले पठानकोट और उरी की घटनाएं हो चुकी हैं और हर लिहाज से पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में मोदी शासन के दौरान भारतीय सुरक्षा बलों को कहीं ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा है.

सत्ता के गलियारे में यह शोर बढ़ता जा रहा है कि पाकिस्तान के साथ युद्ध किया जाए और कश्मीर में और कठोर दमन चलाया जाए. दूसरे शब्दों में, सरकार अब तक अपनी जिस तथाकथित कश्मीर नीति पर चल रही थी, उसे ही और तीव्र बनाने की सोच रही है. लेकिन तमाम तथ्य क्या यही संकेत नहीं दे रहे हैं कि इन उपायों ने कश्मीर में टकराव को कम करने और वहां हालात को सामान्य बनाने के लिहाज से कोई सकारात्मक नतीजे नहीं दिए हैं? चुनी हुई विधान सभा भंग कर दी गई, और हाल के चुनावों में इस घाटी में लगभग पूर्ण बहिष्कार दिखा है और अब सरकार कश्मीरी नेताओं को प्रदत्त तमाम सुरक्षा वापस ले रही है. कश्मीर में हर प्रतिवाद और विरोध को दबाने के लिए छर्रों और गोलियों के इस्तेमाल की नीति ने कश्मीर को एक वास्तविक पुलिस राज्य में तबदील कर दिया है. भाजपा ही वह एकमात्र पार्टी है जो जम्मू कश्मीर में राजनीतिक स्वतंत्रता का उपभोग कर रही है, और वह इसका पूरा इस्तेमाल सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को तेज करने और कठुआ में आठ साल की आसिफा के बलात्कार व हत्या की तरफदारी करने में कर रही है.

मोदी सरकार के पांच साल के शासन ने कश्मीर की हालत काफी बिगाड़ दी है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि कश्मीर में मारे गए लोगों की संख्या (जिसमें नागरिकों के साथ-साथ सरकार व सुरक्षा बलों द्वारा घोषित आतंकवादी/उग्रवादी/विद्रोही भी शामिल हैं) 2014 से लगातार बढ़ती गई है और पिछले दो वर्षों में तो काफी तेजी से बढ़ी है. 5 फरवरी 2019 को संसद में गृह राज्य मंत्री हंसराज गंगाराम अहिर द्वारा पेश आंकड़ों के अनुसार 2018 में खत्म हुए पिछले पांच वर्षों में 1708 आतंकी घटनाएं हुई हैं, 2018 में सबसे ज्यादा 614 घटनाएं हुई हैं. सरकार दावा करती है कि इस अवधि में 838 कथित आतंकवादी मारे गए हैं - अकेले 2018 में 257 - जबकि सुरक्षा बलों ने अपने 339 सदस्य खोये हैं, यह संख्या 2014 में 47 से बढ़कर 2018 में 91 हो गई. और 2019 में अभी ही यह संख्या 50 हो गई है. केंद्र व राज्य प्रशासन की सूचनाओं के मुताबिक उग्रवादी समूहों में शामिल होने वाले नौजवानों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है.

दूसरे शब्दों में, जहां मोदी सरकार की राजनीतिक रणनीति अनेक मोड़ लेती रही है - पीडीपी के साथ सत्ता में हिस्सेदारी से लेकर विधान सभा भंग करने और कश्मीरी नेताओं को मिलने वाली सुरक्षा वापस लेने तक - और इस घाटी में न्याय व लोकतंत्र के मुद्दे पर कभी ध्यान नहीं दिया गया; वहीं सैन्य रणनीति भी कोई काम नहीं कर रही है, बल्कि वह उल्टे नतीजे ही दे रही है. यह भी काफी विडंबनापूर्ण है कि पुलवामा हमले की जिम्मेदारी स्वीकार करने वाले पाकिस्तान-आधारित आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद का मुखिया वही मसूद अजहर है जिसे 1999 में अगवा किए गए भारतीय वायुयान के यात्रियों को लौटाने के बदले वाजपेई सरकार के द्वारा भारतीय जेल से रिहा किया गया था, और जिस वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने उन तीन पाकिस्तानी कैदियों को भारतीय जेल से कंधार तक सुरक्षित पहुंचाया था, वह अजीत डोभाल ही थे जो आज नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बने हुए हैं.

लोकसभा चुनाव होने के बस, चंद सप्ताह पहले मोदी सरकार अपनी कश्मीर नीति की समीक्षा करने या रास्ता सुधारने अथवा भारत-पाक रिश्तों को संभालने के लिए नहीं, बल्कि अपनी तमाम नाकामियों और वादाखिलाफियों के चलते लोगों के मन में सरकार के खिलाफ उपजे गुस्से से खुद की हिफाजत करने में पुलवामा त्रासदी का इस्तेमाल कर रही है. वह हताशोन्मत्त होकर भारत को युद्ध जैसे माहौल में धकेल देने की कोशिश कर रही है जो चुनावों में पूरी तरह से छा जाए और अन्यथा पूर्णतः साख खो चुकी सरकार को एक बार फिर जीत दिला सके. मोदी सरकार के सांप्रदायिक और कॉरपोरेट हमले के सम्मुख संविधान की साहसपूर्वक रक्षा करने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने वाली भारतीय जनता को संघ-भाजपा प्रतिष्ठान के इस अंतिम हताशोन्तत्त साजिश को भी ध्वस्त कर देना होगा. किसी भी हालत में मोदी सरकार को अपने अंतिम हथियार के बतौर पुलवामा त्रासदी का इस्तेमाल नहीं करने देना होगा. इसके बजाय सरकार को इस भारी विफलता के लिए कठघरे में खड़ा करना होगा. यूं कहिए कि पुलवामा को इस विनाशकारी शासन के ताबूत में अंतिम कील बना देना होगा.

पुलवामा और नहीं! भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध और नहीं!

14 फरवरी को पुलवामा में जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग पर सीआरपीएफ के काफिले पर हुए हमले, जिसकी जिम्मेदारी पाकिस्तान आधारित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने ली थी, और भारतीय वायु सेना द्वारा 26 फरवरी को पाकिस्तान के भीतर किये गये जवाबी हमले से भारत और पाकिस्तान के बीच के संबंध लगभग युद्ध के कगार पर पहुंच गए हैं. भारत सरकार के विदेश सचिव ने भारतीय प्रतिक्रिया को आतंकवादी हमले के जवाब में की गई ’प्रि-एम्प्टिव’ (बचाव के लिए की गई पूर्व कार्यवाही) बताया है. दूसरी तरफ पाकिस्तान ने आकस्मिक हमला कर बदले की कार्रवाई करने की घोषणा की है. तमाम संकेतों से जाहिर होता है कि भारत और पाकिस्तान एक बार फिर एक और युद्ध के कगार पर खड़े हो गए हैं.

परमाणु अस्त्रों से लैस भारत और पाकिस्तान जैसे दो देशों के बीच युद्ध, भले ही वह सीमित या थोड़े समय के लिए हो, भारत, पाकिस्तान और समूचे दक्षिण एशिया की जनता के लिए गंभीर खतरे का पूर्वाभास है. हम भारत के लोग एक और पुलवामा नहीं चाहते. और न ही भारत और पाकिस्तान के बीच एक और युद्ध चाहते हैं. हम भारत-पाकिस्तान की सरकारों से अपील करते हैं कि वे संयम बरतें, परिस्थितियों को और बिगड़ने से रोकें और आतंकवाद व युद्ध को रोकने के लिए तथा भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थायी शान्ति सुनिश्चित करने के लिए कूटनीतिक प्रयासों को तेज करें. हम दोनों देशों की शांतिप्रिय जनता से अपील करते हैं कि वे अपने-अपने मीडिया में हो रहे प्रतिस्पर्धात्मक युद्धोन्मादी शोर को खारिज करें और शांति की संभावनाओं को मजबूत करें.

पुलवामा के शहीदों के परिजन क्या कहते हैं

पुलवामा में शहीद एक जवान बबलू सांतरा की पत्नी ने कहा है कि ‘‘हमें युद्ध नहीं चाहिये. इससे तो मेरे जैसी कई और महिलायें अपने पतियों को खो देंगी. मेरी बेटियों की तरह कई और बेटियां अपने पिताओं को खो देंगी. लेकिन मैं चाहती हूं कि जो इसके लिए जिम्मेदार हैं उन्हें सजा जरूर मिले’’
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एक और शहीद अजीत कुमार के भाई का कहना है कि ‘‘जब सभी एकसाथ मिल कर शहीदों के परिवारों का दुख कम करने की कोशिश कर रहे हैं, तब ऐसे में कुछ नेता हमें बांटने की कोशिशों में क्यों लगे हैं? मोदी चुनाव इसलिये जीते क्योंकि उन्होंने कहा था कि सभी पिछली सरकारें खराब थीं, लेकिन अब मेरी राय है कि पिछले साढ़े चार साल आजाद भारत के सबसे बुरे दिन रहे हैं और हम सब जानते हैं कि इसके लिए कौन जिम्मेदार है. सरकार अपने प्रचार पर बेतहाशा पैसे खर्च कर रही है लेकिन सैनिकों के कल्याण पर नहीं. सेना और सिपाहियों के ऊपर राजनीति क्यों खेली जा रही है? मैं देख रहा हूं कि शहीदों की शवयात्राओं में भी शर्मनाक रूप से राजनीति चल रही है.’’

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पुलवामा में शहीद हुए भागलपुर के जवान रतन सिंह के पिता दिवाकर सिंह का कहना है कि ‘‘अगर सरकार ने देश की सुरक्षा की वास्तव में चिंता की होती तो आज मेरा बेटा जिन्दा होता. ऐसे हमलों में गरीबों के बेटे ही मारे जाते हैं- अमीर परिवारों से कोई सेना में सिपाही नहीं बनता. गरीबों के बेटे कब तक इस प्रकार बलिदान होते रहेंगे?’’ शहीद रतन सिंह के ससुर कमलाकान्त ठाकुर की चिंता है कि ‘‘हमारे बेटों के बलिदान का इस्तेमाल नफरत और हिंसा भड़काने के लिये हो रहा है. हमारे बेटे सत्ता के खेल की बलि चढ़ गये. अब इसका अंत होना चाहिए-ऐसी नफरत मत भड़काओ जिससे आतंकवाद पैदा होता हो.’’

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