प्रिकोल मजदूरों के संबंध में मद्रास हाईकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला पुष्टि करता है कि श्रमिक अधिकार मौलिक अधिकार हैं

कोयम्बतूर स्थित प्रिकोल कंपनी के मजदूरों के एक मामले में श्रम कानूनों की पुष्टि करता हुआ तमिलनाडु हाईकोर्ट का एक हालिया फैसला ट्रेड यूनियन आंदोलन और कार्यकर्ताओं के लिए एक दुर्लभ एवं स्वागतयोग्य राहत बन कर आया है. यह फैसला इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि हाल के वर्षों में विभिन्न न्यायालयों में मजदूर-विरोधी फैसलों की बाढ़ सी आ गई है. तमिलनाडु हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति वी. परथिबन ने यह फैसला दिया कि मजदूरों के यूनियन बनाने के अधिकार का उल्लंघन करना और मजदूरों को उनके बकाया देने में देरी करने के बहाने करना, संविधान में दिए गए मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का मामला बनता है.

फैसले में प्रिकोल मजदूर यूनियन (कोवई मवात्ता प्रिकोल थोजिलालर ओट्रूमाई संगम, केएमपीटीओएस-संबद्ध ऐक्टू) के मामले में संविधान की धारा 226 का इस्तेमाल किया गया; यह यूनियन 294 मजदूरों की ग़ैरकानूनी और मनमानी छंटनी के खिलाफ फैक्टरी में और कानूनी रूप से भी लड़ाई लड़ रही है. यहां इस बात पर ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है कि ये बड़ी संख्या में मजदूरों के साथ हुए अन्याय के खिलाफ जनहित में मजदूरों के अधिकारों की रक्षा का मामला है.

ज्ञात हो, प्रिकोल मजदूर यूनियन ने जनवरी 2018 में प्रबंधन को नए वेतन समझौते के लिए एक मांगपत्र दिया था, जो कि एक नियमित किस्म का मामला था, लेकिन प्रबंधन ने 16 अगस्त 2018 को 144 मजदूरों की आंशिक तालाबंदी (यानी छंटनी)  करके इसका जवाब दिया. यूनियन का उद्देश्य सिर्फ पुराने वेतन समझौते और सेवा शर्तों का नवीकरण करना था जो जून 2018 में समाप्त होने वाला था. इस ‘शत्रुतापूर्ण भेदभाव’ के खिलाफ यूनियन ने 21 अगस्त 2018 को हड़ताल कर दी जो लगभग 100 दिन चली, जब तक कि राज्य सरकार हरकत में नहीं आई और उसने एक त्रिपक्षीय समाधान वार्ता की शुरुआत नहीं की, और नवम्बर के अंत में प्रबंधन और यूनियन के बीच एक सौहार्दपूर्ण समझौता हुआ. लेकिन सभी को निराश करते हुए प्रबंधन ना सिर्फ इस समझौते से पलट गया बल्कि जब 302 मजदूर 3 दिसम्बर को काम पर पहुंचे तो उन्हें ग़ैरकानूनी ‘ट्रांसफर’ ऑर्डर थमा दिए गए. ये ट्रांसफर ऑर्डर असल में प्रबंधन द्वारा मजदूरों को प्रताड़ित करने और अन्यायपूर्ण श्रम व्यवहार का खुलेआम इस्तेमाल ही था. यूनियन एक बार फिर औद्योगिक विवाद कानून के इस खुलेआम उल्लंघन के खिलाफ जिलाधिकारी, श्रम विभाग और सरकार के अधिकारियों के पास पहुंची. लेकिन श्रम विभाग के साथ बातचीत करने के बाद प्रबंधन ने 294 मजदूरों को काम से निकाल दिया.

हाईकोर्ट ने इन 294 मजदूरों के खिलाफ जारी बरखास्तगी आदेश पर स्टे का अंतरिम आदेश पास किया, जिसमें यह टिप्पणी भी थी कि ”औद्योगिक विवाद कानून के प्रावधानों के अंतर्गत प्रबंधन का एक सार्वजनिक कर्तव्य भी है” क्योंकि इस तरह इतने सारे लोगों को एक साथ बरखास्त कर देना ”किसी भी तरीके के कानूनी मानकों में निजी विवाद नहीं माना जा सकता.”

फैसले में कहा गया कि, ”कोर्ट को नागरिकों की मौलिक अपेक्षाओं पर खरा उतरना आवश्यक होता है, और न्यायिक प्रक्रिया के शुरु होने से पहले ही कुछ खास वर्ग के नागरिकों के उत्पीड़न के खिलाफ सुरक्षा के लिये हाथ बढ़ाना होता है” इसमें आगे यह भी जोड़ा गया है कि ‘‘कई सालों तक औद्योगिक विवाद को कानूनी जामें में लंबित रखने से प्रबंधन द्वारा मजदूरों को कमजोर करने में मदद होती है. इस तरह के विवादों के निपटारे में होने वाली देरी से, जब इस तरह के विवाद कानूनी तंत्र में फंस जाएं, प्रबंधन द्वारा उनके खिलाफ होने वाले अन्याय के खिलाफ लड़ाई में मजदूरों का संबल कमजोर होता है, उसे बहुत नुकसान होता है. इस तरह का विवाद जो इस तरह की दीर्घकालिक कानूनी कार्यवाही में शामिल होता है, कमजोर पक्ष को, इस मामले में मजदूरों को असहायता और निराशा की कगार पर ले जाता है, चाहे औद्योगिक कानूनों में कितना ही संरक्षण शामिल हो.”

पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से प्रिकोल कोयम्बतूर मजदूर अपने मूलभूत ट्रेड यूनियन अधिकारों और आजीविका पर निरंतर दमन और भेदभाव के खिलाफ हर तरह की मुश्किलों का सामना करते हुए भी बहादुराना संघर्ष कर रहे हैं. उनके आठ नेताओं को, निचली अदालत द्वारा दोहरा आजीवन कारावास दिया जा चुका है, लेकिन इनमें से छः साथियों के लिए हाईकोर्ट ने इस फैसले को उलट दिया था, जबकि दो नेता अब भी जेल में हैं. प्रशासनिक और कानूनी दायरे में प्रबंधन और मजदूरों के बीच ये बहुत ही असमान संघर्ष है, लेकिन मजदूरों के जोशिले उत्साह और एकजुटता के मामले में यह एक अनूठा संघर्ष भी है.

मजदूरों के पक्ष में सबसे नया न्यायिक फैसला बहुत ही समयोचित और बहुप्रतिक्षित राहत है, लेकिन असली संघर्ष इस फैसले के बाद भी जारी है जो समझौता अधिकारियों को आठ हफ्ते के भीतर आदेश मानने और कानून के अनुसार संदर्भित आदेश जारी करने का निर्देश देता है. बहुत संभव है कि यह न्यायिक आदेश भी आमतौर पर लंबे समय तक चलने वाली कानूनी प्रक्रिया के चलते किसी कानूनी जाल और तंत्र में फंस जाए (जैसा कि फैसले में ही कहा गया है), लेकिन यह प्रक्रिया किसी भी हाल में ‘‘मजदूरों का मनोबल नहीं डिगा सकती’’ - क्योंकि प्रिकोल कोयम्बतूर के मजदूर आंदोलन ने पिछले एक दशक में यह दिखा दिया है कि वो आसानी से झुकने वाले नहीं हैं. ु