मोदी राज के पांच साल पुलवामा के नाम पर समाज में सांप्रदायिक नफरत और हिंसा फैलाने की घिनौनी चालों को नाकाम करें! ‘‘मोदी हटाओ - रोजी-रोटी, अधिकार बचाओ’’! ‘‘मोदी हटाओ - लोकतंत्र बचाओ, देश बचाओ’’! जन संघर्षों के मुद्दों को बुलंद करो!

(ऐक्टू के ‘‘मोदी हटाओ, देश बचाओ’’ अभियान (1 मार्च-31 मार्च) के माध्यम से देश के मेहनतकश अवाम के बीच ले जाया गया संदेश.)

लोकसभा चुनाव 2019 की उलटी गिनती शुरू हो गई है. मोदी सरकार के पांच साल का शासनकाल लूट, झूठ, बांटो और मेहनतकशों के जीवन में तबाही मचाने वाला राज साबित हुआ. अपने अंतिम बजट में भी मोदी सरकार ने मेहनतकशों और आम अवाम के सवालों को ठुकरा दिया, सिवाय कुछ झुनझुने पकड़ाने के.

अब मोदी सरकार और संघ ब्रिगेड पुलवामा के शहीद सैनिकों की शहादत पर सियासत कर रहे हैं, हमारे जवानों के बलिदान का इस्तेमाल जन भावनाएं भड़काने के लिये कर रहे हैं. जब आम जनता मोदी सरकार से उसकी पिछले पांच साल की नाकामियों और साथ ही पुलवामा की बेहद दुखद घटना पर जवाब मांग रही है तो वह पुलवामा के नाम पर सांप्रदायिक नफरत व उन्माद फैलाने और देश की जनता को बांटने का काम कर रही है, वोटों की फसल काटने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है. ऐसे में आपसी भाईचारे और एकता को बनाये रखना और मोदी सरकार की इन घिनौनी राजनीतिक चालों को नाकाम करना हम सब का फर्ज है.  

मोदी राज को देश के मेहनतकश अवाम की चुनौती!

देश के मेहनतकश अवाम - मजदूर, किसान और युवा, छात्र, दलित, आदिवासी, महिलाओं - ने साझा प्रतिरोध के जरिये - सड़कों के संघर्षों से लेकर चुनावी संघर्ष तक - मोदी सरकार को चुनौती दी. साल 2018 के जाते-जाते पांच विधानसभा चुनावों में जनता ने मोदी राज और भाजपा को करारा जवाब दिया. जहां पिछले साल का अंत मोदी की किसानों को तबाह करने वाली नीतियों के खिलाफ विशाल संख्या में किसानों की दिल्ली में (29-30 नवंबर) दस्तक से हुई, वहीं नए साल 2019 की शुरूआत मोदी की मजदूरों को तबाह करने वाली नीतियों के खिलाफ मजदूर वर्ग की दो दिवसीय देशव्यापी ऐतिहासिक हड़ताल (8-9 जनवरी) से हुई. अभी 7 फरवरी को भारी संख्या में देश के छात्रों-युवाओं ने मोदी की रोजगार और शिक्षा को तबाह करने वाली नीतियों के खिलाफ लाल किला से संसद तक एक जोशीली ‘यंग इंडिया अधिकार मार्च’ निकाली. देश के कोने-कोने में असंगठित क्षेत्र के मजदूर - मानदेय, ठेका, सफाई, निर्माण, खेत मजदूर, आदि - संघर्षों में उतरे हुए हैं; बिहार में मिड-डे मील कर्मियों ने 7 जनवरी से एक माह की सफल हड़ताल की, और इस हड़ताल के ठीक पहले इसी राज्य के आशा कर्मियों ने एक माह से अधिक की हड़ताल कर भाजपा समर्थित नीतिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. भाजपा शासित झारखंड में भी मिड-डे मील कर्मियों और पैरा शिक्षकों ने सरकारी दमन का सामना करते हुए बहादुराना संघर्ष चलाए.

रेल समेत केंद्र और राज्य के सरकारी कर्मचारी नई पेंशन नीति के खिलाफ सड़कों पर उतरे हुए हैं, जिनकी अगुवाई यहां की युवा पीढ़ी कर रही है. दूसरी तरफ, सार्वजनिक क्षेत्र को तबाह करने वाली मोदी सरकार की नीतियों के खिलाफ बैंक, बीमा, डिफेंस, कोयला, आदि के कर्मियों ने कई हड़तालें संगठित की हैं. मोदी सरकार द्वारा संविधान, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की तबाही और भय, आतंक व नफरत के माहौल के निर्माण के खिलाफ कई लोकतांत्रिक मंचों के जरिये आम अवाम अपनी आवाज बुलंद कर रहा है. साफ है कि मोदी राज के खिलाफ आम अवाम का हर हिस्सा प्रतिरोध में उतरा हुआ है और सब का साझा संदेश है - ‘‘मोदी हटाओ, देश बचाओ’’. इसी संदेश को आने वाले लोकसभा चुनाव में हकीकत में बदल देना होगा. संकेत साफ हैं कि मोदी राज की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है.

आइए, पिछले पांच साल के मोदी राज पर नजर दौड़ाएं.

मोदी राज के पांच साल - देश की जनता बेहाल!

‘अच्छे दिनों’ के चुनावी वादे के बरखिलाफ मेहनतकश अवाम के लिये बेहद बुरे दिन आए - मुंह से भात-रोटी छीन ली, रोजी छीन ली, जमीन छीन ली, गरीबों की सब्सिडि छीन ली, अधिकार छीन लिये. जहां कॉरपोरेट घरानों का कई लाख करोड़ रूपये का कर्जा माफ कर दिया गया, वहीं कर्ज में डूबे लाखों किसानों को खुदकुशी करने पर मजबूर किया गया. यहां तक कि अपने अंतिम बजट में भी मोदी सरकार ने इन किसानों समेत समस्त ग्रामीण आबादी के साथ क्रूर मजाक किया - एक किसान परिवार के एक व्यक्ति को 3रू. प्रतिदिन का आय सहयोग (कुल 6000रू. प्रति वर्ष प्रति परिवार) देने की घोषणा की गई, और यहां तक कि बटाईदारों, भूमिहीन किसानों और खेत मजदूरों को कोई भी आय सहयोग देने के बारे में चुप्पी साध ली गई.  

असमानता पिछले पांच सालों में अपने चरम की ओर है. आज शीर्ष पर बैठे 1 प्रतिशत लोगों का देश की 77 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा है जो कि चार साल पहले तक 49 प्रतिशत था. मुकेश अंबानी की अगुवाई में देश के सबसे 9 अमीरों के पास जितनी संपत्ति है वह उस कुल संपत्ति के बराबर है जो देश की आधी आबादी यानी लगभग 67 करोड़ लोगों के पास है. जबकि अधिकतर आबादी बड़ी मुश्किल से जिंदा है. हालात ये बन गये हैं कि देश की चिकित्सा व स्वास्थ्य पर खर्च मुकेश अंबानी की संपत्ति से भी कम है. चिकित्सा, सार्वजनिक स्वास्थ्य, स्वच्छता और जल आपूर्ति के मद में केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त राजस्व और पूंजीगत खर्च 2,08,166 करोड़ रूपये है, जो कि देश के सबसे अमीर व्यक्ति मुकेश अंबानी की कुल संपत्ति 2.80 लाख करोड़ रूपये से भी कम है.

भ्रष्टाचार के खिलाफ दहाड़ने वाला, ‘न खाऊंगा, न खाने दूंगा’ और खुद को ‘देश का चौकीदार’ कहने वाला मोदी, रफाल चोर और रफाल सौदे में अनिल अंबानी का एजेन्ट निकला; सरकारी बैंकों को कई हजार करोड़ रूपयों का चूना लगाने वाले विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चौकसी को देश से बाहर भगाने वाला निकला. साथ ही, मोदी सरकार के आने के बाद से भगवा ब्रिगेड, संघी गिरोहों का नंगा नाच चल रहा है; सांप्रदायिक नफरत, आतंक और बांटो का राज कायम हो रहा है. गौ-रक्षा के नाम पर दलितों और मुस्लिमों पर हमले किये जा रहे हैं, और बाकायदा मोदी सरकार और संघ परिवार की सरपरस्ती में भीड़ तंत्र द्वारा पीट-पीट कर हत्याएं की जा रही हैं. साफ है, मोदी शासन में अंबानी बंधुओं-अडानी सरीखे कॉरपोरेट घरानों और संघ परिवार व उसकी भगवा ब्रिगेड के ही अच्छे दिन आए हैं. ‘‘मोदी शासन के पांच साल और देश की जनता बेहाल’’ - यही असलियत मोदी सरकार की सामने आयी है.

मोदी राज के पांच साल - रोजगार का विनाश

मोदी ने हर साल दो करोड़ रोजगार देने का वादा किया था, लेकिन किया ठीक उलटा; काला धन निकाल कर जनता को देने और असमानता घटाने के नाम पर नोटबंदी को लागू किया जिसने व्यापक पैमाने पर रोजगार खत्म कर दिया. सन् 2018 में, जो मोदी सरकार के शासनकाल का चौथा साल था, भारत में 1 करोड़ 10 लाख रोजगार नष्ट हुए. बेरोजगारी की दर नोटबंदी के बाद 2 प्रतिशत से बढ़ कर 6.1 प्रतिशत हो गई है (15 से 29 आयुवर्ग के युवाओं में यह और भी ज्यादा बढ़ी है, 2011-12 में ग्रामीण पुरुषों के लिए 5 प्रतिशत से बढ़कर 2017-18 में 17.4 प्रतिशत, जबकि ग्रामीण महिलाओं के लिए 4.8 से बढ़ कर 13.6 प्रतिशत, और शहरी पुरुष व महिला युवाओं के बीच क्रमशः 18.7 और 27.2 प्रतिशत हो गई). केंद्र सरकार के 24 लाख सरकारी पद रिक्त पड़े हुए हैं. ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टार्टअप इंडिया’, ‘स्किल इंडिया’ समेत बड़ी-बड़ी योजनाएं रोजगार देने में फेल साबित हुईं. हाल में निकले आंकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी पिछले 45 वर्षों में अपने चरम पर पहुंच चुकी है. मोदी का विकास का मॉडल ‘‘रोजगार के विनाश का मॉडल’’ साबित हुआ. और इस पर, बेरोजगारों का मजाक उड़ाते हुए मोदी उन्हें पकौड़ा बेचने की सलाह देते हैं जो यह दर्शा देता है कि रोजगार देने की जिम्मेदारी से मोदी सरकार साफ इंकार कर रही है.

भारी पैमाने पर रोजगार नष्ट करने वाली मोदी सरकार अब चुनाव के ठीक पहले लोगों का ध्यान भटकाने के लिये ‘सामान्य कोटि’ के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों के लिये सरकारी उच्च शिक्षण संस्थाओं एवं सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण के प्रावधान वाला कानून ले आई है. अपने अंतिम बजट में भी रोजगार के सवाल पर चुप्पी साध बेहद बेशर्मी से मोदी सरकार ने कहा कि ‘भारत में रोजगार खोजने वाले अब रोजगार देने वाले बन गए हैं’. अंधाधुंध ठेकाकरण के चलते, जो कुछ रोजगार देश में हैं भी, वे आज हैं कल नहीं; और मजदूरी भी जिंदा रहने लायक नहीं. भारत में कुल रोजगार में वैतनिक नौकरियों का प्रतिशत केवल 21 है, जो कि दक्षिण एशिया में, यहां तक कि पड़ोसी देशों और सबसे गरीब देशों से भी कम है. चाय बागान बंद हो रहे हैं, जूट उद्योग बंद हो रहे हैं, जबकि इनमें काम करने वाले लाखों मजदूर और उनके परिवार कुपोषण, भुखमरी और बदहाली के शिकार हैं.

मोदी राज के पांच साल - देश के मजदूरों को बनाया गुलाम  

पांच साल पहले खुद को मजदूर न. 1 कहने वाले मोदी ने देश के मजदूरों को ‘‘नई गुलामी’’ में झोंक दिया है. और यह है मोदी सरकार के ‘ईज ऑफ डुईंग बिजनेस’ (देश में व्यापार करने को आसान बनाने) का नतीजा. मोदी सरकार ने श्रम कानूनों के पूरे ढांचे को तोड़-फोड़ कर मजदूरों के लिये गुलामी का पिंजरा तैयार कर दिया है, 150 साल पुरानी स्थितियां पैदा कर दी हैं. मजदूर वर्ग द्वारा लंबी लड़ाइयों और असीमित कुर्बानियों के जरिए अपने लिये हासिल किये गये श्रम कानूनों में मोदी सरकार ने व्यापक संशोधन कर इन कानूनों को बेकार बना दिया है. देश के 44 श्रम कानूनों को खत्म कर इन्हें 4 श्रम कोडों (संहिताओं) में बदल दिया है जो असल में मजदूरों को मालिकों की गुलामी करने के लिये मजबूर करने वाले कोड हैं. और अभी हाल में ‘फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट’ (नियत अवधि नियोजन), जो स्थाई व नियमित रोजगार के सवाल को और साथ ही ठेका मजदूरों के नियमितीकरण एवं समान काम के समान वेतन के सवाल को ही खत्म कर देता है, लाकर सबसे बड़ा हमला मजदूरों पर किया गया है. साथ ही, मोदी सरकार ने राज्य सरकारों को श्रम कानूनों में संशोधन करने की खुली छूट दे दी, जिससे कि राज्यों के स्तर पर इन कानूनों को खत्म किया जा सके.

मोदी सरकार के ये सारे कदम मजदूरों के अधिकतम हिस्सों को पहले से चल रहे श्रम कानूनों से वंचित कर देंगे. मजदूरों के ट्रेड यूनियन बनाने, ट्रेड यूनियन मान्यता पाने, सामूहिक सौदेबाजी और यहां तक कि हड़ताल करने के अधिकार को छीने लेंगे; मालिकों को मजदूरों को मनमर्जी से काम से निकालने की खुली छूट देंगे; सामाजिक सुरक्षा को खत्म कर देंगे; 12 घंटे के काम को कानूनी तरीके से नियम बना देंगे; मजदूर संगठनों से सलाह-मशविरे की प्रणाली खत्म कर देंगे; महिला श्रमिकों के शोषण और यौन उत्पीड़न को और बढ़ावा देंगे; और यही नहीं, अप्रेंटिस की श्रेणी में डालकर मजदूरों के एक बड़े हिस्से को ‘‘मजदूर’’ की श्रेणी से भी बाहर कर देंगे. यही नहीं, ट्रेड यूनियन ऐक्ट 1926 में बदलाव लाकर सरकार आम तौर पर केंद्रीय ट्रेड यूनियनों की मान्यता को खत्म करने और अपनी मनमर्जी से अपनी चहेती केंद्रीय ट्रेड यूनियनों, जैसे बीएमएस को, एकमात्र मान्यताप्राप्त यूनियन बनाने की साजिश रच रही है.

अपनी पसंदीदा ट्रेड यूनियन बनाने की मजदूरों की कोशिशों को जहां-तहां बर्बरता से कुचलने की प्रबंधन-प्रशासन-पुलिस को खुली छूट दी जा रही है, जहां-तहां विदेशी कंपनियों के टापू बनाये जा चुके हैं जो ट्रेड यूनियन-मुक्त जोन के बतौर विकसित किये जा रहे हैं. कुल मिलाकर मोदी सरकार ने कॉरपोरेट घरानों व विदेशी कंपनियों के मुनाफों के पहाड़ को और ऊंचा उठाने के उद्देश्य से मजदूरों के लिये गुलामी की मुकम्मल व्यवस्था की स्थापना कर दी है.

मोदी राज के पांच साल - सामाजिक कल्याण व सुरक्षा योजनाओं का विनाश

ऐसे में जब खाद्य वस्तुओं एवं अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें आसमान छूती जा रही हैं, कुपोषण और भूख से मौतें आम हैं और मानवीय विकास के हर मामले में भारत दुनिया में सबसे निचले पायदान पर खड़ा है; तब सामाजिक कल्याण एवं सुरक्षा में लगातार व्यय घटाया जा रहा है. सरकार के हालिया बजट में भी ग्रामीण विकास, समाज कल्याण और तमाम केन्द्रीय योजनाओं में आवंटन में और अधिक कमी की गई है (जो 2018-19 में क्रमशः 5.5 प्रतिशत, 1.89 प्रतिशत और 12.41 प्रतिशत था, अब 2019-20 में घटा कर 4.99 प्रतिशत, 1.77 प्रतिशत और 11.77 प्रतिशत कर दिया गया है), जबकि रक्षा बजट को लगातार बढ़ाया जा रहा है. कल्याणकारी योजनाओं से गरीबों को बाहर निकालने के लिए ‘आधार’ और ‘बीपीएल’ सूची का इस्तेमाल किया जा रहा है.

गरीब जनता की मानवीय हालत को कुछ बेहतर बनाने वाली सामाजिक कल्याण योजनाओं - आंगनबाड़ी (आईसीडीएस), आशा (राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन), मिड-डे मील आदि को व्यय में कटौती और निजीकरण एवं एनजीओ के हवाले करने के जरिये खत्म करने की कगार पर पहुंचाया जा रहा है. इन योजनाओं के मुख्य स्तंभ - मानदेय/प्रोत्साहन कर्मियों - आशा, आंगनबाड़ी व मिड-डे मील कर्मियों और पैरा शिक्षकों, आदि की विशाल फौज को 8-10 घंटे मानदेय व प्रोत्साहन राशि जैसी गुलामी की प्रथा पर खटाया जा रहा है. इस तबके को सरकारी कर्मचारी का दर्जा देने की लंबित मांग पूरा करने की बात तो दूर, इन्हें श्रमिक का दर्जा और न्यूनतम मजदूरी से भी वंचित रखा जा रहा है.

जहां ‘सामाजिक सुरक्षा कोड’ लाकर सरकार सामाजिक सुरक्षा से जुड़े तमाम कानूनों को खत्म कर रही है, पीएफ और पेंशन जैसी बुढ़ापे की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं को, नई पेंशन नीति समेत तमाम तरीकों से, मजदूरों-कर्मचारियों से छीन कर इन्हें पूंजीपतियों/निजी बीमा कंपनियों के हित में बाजार के हवाले कर रही है; वहीं अपने हालिया बजट में सरकार ने असंगठित मजदूरों को, वो भी एक छोटे से हिस्से के लिये, 60 साल की आयु के बाद प्रतिमाह 3000रू. पेंशन का झुनझुना थमा दिया है. यानी 18 साल का एक मजदूर अगले 42 साल तक अपनी छोटी सी कमाई से हर माह 55रू. सरकार के पास जमा करेगा और फिर उसे 3000रू. पेंशन मिलेगी जिसकी कीमत कौड़ी की भी नहीं होगी. साफ है, यह मजदूरों की खून पसीने की कमाई पर डाका डालना है, एक छलावा है. करोड़ों मजदूरों से अरबों-खरबों रूपये जमा किये जायेंगे जो कॉरपोरेट घरानों को कर्जा देने के काम आयेंगे. यही हमने निर्माण मजदूरों के कल्याण बोर्डों के मामले में देखा, जहां जमा अरबों रूपयों के सेस को मजदूरों के हित में इस्तेमाल ना कर इसकी निजी हितों के लिये सरकारी लूट हो रही है.

जब सरकार 18,000रू. न्यूनतम मजदूरी से इंकार कर रही है और मानदेय एवं ठेका जैसी गुलामी की प्रथाओं को धड़ल्ले से चला रही है, तब ‘सार्विक बुनियादी आय’ (युनिवर्सल बेसिक इंकम-यूबीआई), जो अभी हवा में है, के जरिये हर निम्नवर्गीय भारतीय के लिये एक छोटी नगद राशि (मोदी का सबसे पुराना जुमला-15 लाख रुपया नहीं) की गारंटी भी एक जुमला है, मजदूरों के साथ एक भद्दा मजाक है. असल में तो, केंद्र व राज्य सरकारों की मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं को पूरी तरह खत्म करने की मोदी सरकार की दूरगामी योजना का ही एक हिस्सा यूबीआई है जिसके तहत मौजूदा कल्याणकारी योजनाओं के बदले एक छोटी सी राशि दे दी जायेगी.

मोदी का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ - एक और जुमला

मोदी का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ भी एक और जुमला निकला जो कि स्वच्छ भारत की रीढ़ सफाई मजदूरों, जो अधिकांश दलित समुदाय से आते हैं, की गटरों में हो रही मौतों और उनकी अमानवीय और अपमानजनक जीवन व कार्य स्थितियों के बारे में एक शब्द नहीं कहता है. असल में ‘स्वच्छ भारत अभियान’ घोर दलित-विरोधी, महिला-विरोधी साबित हुआ है. दो साल पहले राजस्थान के प्रतापगढ़ में ऐक्टू के निर्माण मजदूर नेता जफर हुसैन की तब हत्या कर दी गई जब ‘स्वच्छ भारत अभियान’ की आड़ में महिलाओं से की जा रही बदतमीजी का उन्होंने विरोध किया.

यही नहीं, हाल में कुंभ नहाने गये प्रधानमंत्री ने अपने स्वच्छ भारत अभियान के साथ कुंभ को जोड़ते हुए उसे ‘स्वच्छ कुंभ’ का नाम दिया और कुछ सफाई कर्मचारियों के पैर धोने का पाखंड किया. जबकि असलियत यह है कि इसी कुंभ की तैयारियों और आयोजन के दौरान ठंड से कई सफाई कर्मी मारे गये, जैसे बांदा जिला का सफाई कर्मी ‘‘जगुआ’’, फतेहपुर का ‘‘ननकाई’’, आदि. इन मृत सफाई कर्मियों के परिवारों को आज तक प्रशासन से कोई मदद नहीं मिली है. इसी तरह, एक सफाई कर्मी आशादीन का तब एक साधु ने हाथ तोड़ दिया जब उसने साधु की बाल्टी छू ली. यही हालात देशभर में सफाई कर्मियों के हैं. मोदी का चुनाव के समय यह पाखंड सफाई कर्मियों का अपमान है.       

‘मेक इन इंडिया’ -सार्वजनिक क्षेत्र के विनाश का नुस्खा

‘रोजगार और विकास’ के नाम पर लायी गई मोदी की बहुचर्चित योजना ‘मेक इन इंडिया’ असल में सार्वजनिक क्षेत्र के विनाश का नुस्खा साबित हुई जिसके तहत मोदी सरकार ने रेलवे, डिफेंस, दवा-बनाने, सिंगल ब्रांड खुदरा व्यापार समेत 15 प्रमुख व रणनीतिक महत्व वाले क्षेत्रों को 100 प्रतिशत एफडीआई (विदेशी निवेश) यानी अंबानी-अडानी और विदेशी कंपनियों के गठजोड़ के लिये खोल दिया है. कोयला खनन क्षेत्र में निजी कंपनियों के लिये वाणिज्यिक खनन की छूट दे दी गई है जो कि इस सेक्टर के राष्ट्रीयकृत चरित्र को ही खत्म कर देगा. अपने हालिया प्रस्ताव में सरकार तेल और गैस भंडार के 97 इलाकों को निजी कंपनियों के हवाले करने जा रही है. कुल मिलाकर ‘मेक इन इंडिया’ की नीति के तहत देश के संसाधनों की निजी लूट, अंधाधुंध निजीकरण एवं ठेकेदारी प्रथा का राज स्थापित किया गया है.

मोदी राज के पांच साल - संविधान और लोकतंत्र का विनाश

पिछले 5 साल देश में अघोषित इमरजेंसी का दौर साबित हुआ है. 5 साल से चल रहे मोदी राज ने साफ कर दिया है कि देश में मौजूदा संविधान व जनवादी संस्थाएं और लोकतंत्र संघ परिवार (आरएसएस)-भाजपा की आंखों में किरकिरी हैं; मौजूदा संविधान और लोकतंत्र का खात्मा, और इसकी जगह ब्राह्मणवाद और अंबानी-अडानी सरीखे कॉरपोरेट घरानों द्वारा शासित मनू स्मृति पर आधारित हिंदू राष्ट्र को लाना इन ताकतों का असल उद्देश्य है. इसी उद्देश्य को आगे बढ़ाने की कड़ी में धर्म को नागरिकता का आधार बनाया जा रहा है. मोदी सरकार की नीतियों और कदमों के खिलाफ हर विरोध यहां तक कि असहमति की आवाज को भी देशद्रोह प्रचारित किया गया; जेएनयू समेत कई विश्वविद्यालयों के छात्रों से लेकर ट्रेड यूनियन और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं (सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुमड़े आदि) पर मोदी सरकार की तानाशाही और लोकतंत्र पर हमलों के खिलाफ आवाज उठाने के लिये देशद्रोह के मुकदमे दर्ज किये गये और उन्हें जेलों में डाला गया, और लोकसभा चुनाव से पहले इन हमलों में और तेजी आ गई है. देश की तमाम संस्थाओं का भगवाकरण और उन पर सीधा सरकारी कब्जा एक आम बात बन गई है, जिसकी सबसे ताजा मिसाल रिजर्व बैंक और सीबीआई है. योजना आयोग को नीति आयोग बना दिया गया जिसका एकमात्र काम कॉरपोरेट घरानों के हित में नीतियां बनाना है.

जन संघर्षों के मुद्दों को बुलंद करो! ‘‘बांटो और राज करो’’ की साजिश का करारा जवाब दो! मोदी राज को ध्वस्त करो!

अब, जब आम अवाम की नजर में मोदी सरकार एक विनाशकारी और देश के साथ भयानक हादसा साबित हो चुकी है और लोकसभा चुनाव नजदीक हैं, मोदी-अमित शाह-योगी की तिगड़ी अपने चुनावी अभियान में सांप्रदायिक नफरत का जहर और हिंसा फैलाने, उन्माद भड़काने की हताशा भरी कोशिशें करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ेगी. राम मंदिर के निर्माण और गौ-रक्षा से लेकर ट्रेड यूनियन एवं नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को ‘शहरी नक्सल’ घोषित करने, आदि को राजनैतिक मुद्दों के रूप में जोरशोर से उछाला जा रहा है और लगातार उछाला जाएगा. ऐसे में, जनता के विभिन्न तबकों को एकताबद्ध होकर 2019 के चुनावी अभियान में पिछले 5 सालों से जारी जन संघर्षों के मुद्दों को बुलंद करना होगा, इन मुद्दों को ही 2019 के चुनाव में जनता के चुनाव घोषणापत्र का बुनियादी बिंदु बनाना होगा और संविधान, लोकतंत्र व धर्मनिरपेक्षता को बुलंद करते हुए मोदी सरकार की बांटो, झूठ और नफरत फैलाने की सांप्रदायिक साजिश को करारा जवाब देना होगा.

1990 के दशक से अब तक जारी आर्थिक नीतियों यानी उदारीकरण, निजीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों पर लगातार अमल ने मेहनतकश अवाम समेत समूची आम जनता के जीवन में तबाही बरपा दी है. मोदी राज इन्हीं नीतियों का चरम रूप है. ये कॉरपोरेट-परस्त नीतियां कांग्रेस पार्टी द्वारा लाई गईं थीं और विभिन्न रंगों की पार्टियों की सरकारों की सहमति से ये चल रही हैं. लेकिन, इन नीतियों ने मोदी राज में हिटलरशाही यानी मोदीशाही का रूप ले लिया है, अघोषित इमरजेन्सी का रूप ले लिया है. मेहनतकश अवाम का संघर्ष इन विनाशकारी आर्थिक/सामाजिक नीतियों को उलटने का है, और इस संघर्ष को आगे बढ़ाने के लिये आज सबसे जरूरी एवं फौरी काम है मोदी राज को उखाड़ फेंकना.

आइए, स्वतंत्र भारत के समूचे इतिहास में सर्वाधिक चुनौतीभरी चुनावी लड़ाई, यानी 2019 के लोकसभा चुनाव में, मेहनतकशों के मुद्दों को बुलंद करते हुए मोदी राज को ध्वस्त करें और इन विनाशकारी नीतियों को उलटने के संघर्ष को नई ऊंचाइयों तक ले जाएं.