मोदी शासन-2: मजदूर वर्ग पर चौतरफा हमले- बढ़ते हमलों के खिलाफ और भी बड़े संघर्षों के लिये कमर कस लें!

श्रम कानूनों एवं भूमि अधिग्रहण कानूनों में संशोधन करना, और पब्लिक सेक्टर इकाइयों का निजीकरण करना मोदी शासन 2.0 के तीन प्रमुख एजेंडा हैं. इस प्रक्रिया को तेज़ करने वाली बैठक का संचालन खुद अमित शाह ने किया. बैठक से बाहर निकलते हुए श्रम मंत्री ने घोषणा की कि वे पहले वेज (वेतन) कोड संबंधित बिल और ऑक्यूपेशनल (पेशागत) सेफ्टी, हेल्थ एवं वर्किंग कंडीशन कोड संबधित बिल पास करेंगे तथा आईआर (औद्योगिक संबंध) और सोशल सिक्योरिटी एंड वेलफेयर कोड (सामाजिक सुरक्षा) बिल पर बाद में काम करेंगे. आरएसएस और भाजपा की मजदूर शाखा भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) भी इन प्रस्तावित कोड्स् के वर्तमान स्वरूप के खिलाफ आवाज़ उठा रहा है, क्योंकि उन्हें इस बात की चिन्ता है कि ईएसआई और पीएफ दोनों को प्रस्तावित सोशल सिक्योरिटी फंड में मिला दिया गया तो संगठित श्रमशक्ति के बीच उनका समर्थन गिर जायेगा. वे वेतन कोड पर तो पूरे दिल से समर्थन जाहिर करते दिख रहे हैं, लेकिन आईआर कोड की कुछ खास धाराओं के बारे में, और एक हद तक ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एवं वर्किंग कंडीशनस् के कोड पर भी उन्हे चिन्ता है. बीएमएस को छोड़कर, देश की सभी मान्यताप्राप्त ट्रेड यूनियनें इन चारों कोड्स् के पूरी तरह खिलाफ हैं और इसके विरोध में पिछले साल दो दिनों की अखिल भारतीय हड़ताल भी की गई थी.

श्रम कानूनों में संशोधन - झूठे और भ्रामक!

मोदी सरकार ने वर्तमान में लागू 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को खत्म करके, चार कोड्स् - वेतन, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा और कल्याण, और पेशागत सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्यस्थितियां -  को तैयार करने का फैसला किया, ताकि कॉरपोरेट और विदेशी पूंजी को ”ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस” की सुविधा दी जा सके. ये उन कानूनों पर खुला हमला है जो मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए बनाये गए थे.

भाजपा शासित राजस्थान उन कई बदलावों की प्रयोगशाला बना रहा जिन्हें मोदी सरकार अब इस्तेमाल कर रही है. राजस्थान ने औद्योगिक विवाद कानून में संशोधन किया ताकि मालिकों को उन कंपनियों में जिनमें 300 से कम मजदूर काम कर रहे हों, छंटनी के लिए या तालाबंदी के लिए राज्य सरकार से अनुमति ना लेनी पड़े. राजस्थान को श्रम सुधारों के आदर्श के बतौर प्रस्तुत किया गया. लेकिन, फिर भी कोई पूंजी नहीं आई. कड़वी सच्चाई यह है कि पूर्व श्रम सचिव को भी सीआईआई और नीति आयोग द्वारा आयोजित ”जॉब्स एंड लाइव्लीहुड क्रिएशन” पर आयोजित एक सम्मेलन में यह बात स्वीकार करनी पड़ी. लेकिन नीति आयोग के पंडित, बिना किसी तर्क के इसी बात पर अड़े हैं कि देश में पूंजी इसलिए नहीं आ रही है क्योंकि यहां श्रम कानून बहुत सख्त हैं. 

खुद मोदी जनता का अरबों रुपया पानी में बहा पूरी दुनिया में घूमते रहे, लेकिन बताने लायक पूंजी निवेश करवाने में असफल रहे. यहां तक कि ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस इंडेक्स (2014) भी यही कहता है कि भारत में सर्वे का जवाब देने वाली कंपनियों का एक बटा दसवें से थोड़ा ही ज्यादा हिस्सा यह मानता है कि श्रम कानून कोई बड़ी बाधा हैं. 

धीमी वृद्धि एवं निवेश और बढ़ती बेरोजगारी के असली कारणों को संबोधित करने के बजाय, सरकार धीमी वृद्धि को मजदूरों के अधिकारों को खत्म करने और कॉरपोरेट घरानों को लूट और शोषण की खुली छूट देने के बहाने के तौर पर इस्तेमाल कर रही है. 

कैलोरी बनाम डाइट्, न्यूनतम वेतन बनाम फ्लोर वेतन’’

पिछली सरकार ने एक कमेटी का गठन किया था जिसे राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन या फ्लोर वेतन के बारे में फैसला करना था जो कि वो न्यूनतम वेतन होता जिसे देश के किसी भी हिस्से में भुगतान किया जा सकता था. कमेटी ने एक नई कार्यप्रणाली को आधार बना कर, 9,750 रु. प्रतिमाह या (375 रु. प्रतिदिन) की सिफारिश की, इस कार्यप्रणाली में प्रति मजदूर 2400 कैलोरी ऊर्जा बनाने के लिए मजदूर द्वारा ली जाने वाली कैलोरी को नजरअंदाज कर दिया गया. इस कार्यप्रणाली का कहना है कि उसका काम यह देखना कि मजदूर खाना खाए, कैलोरी गिनना उसका काम नहीं है. 

इसमें उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को भी तोड़ा-मरोड़ा गया है जिसके आधार पर मूल्य स्तर और उसी के आधार पर न्यूनतम वेतन की गणना की जाती है. इसी नजरिए से काम करते हुए कमेटी ने, सेक्टर, कौशल, पेशे और शहरी-ग्रामीण इलाकों की परवाह किए बगैर, यह सिफारिश की कि जुलाई 2018 से, रीजन-1, रीजन-2, रीजन-3, रीजन-4 और रीजन-5 के लिए राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन प्रतिदिन (प्रतिमाह) क्रमशः 342 रु. (8,892 रु.); 380 रु. (9880 रु.); 414 रु. (10764 रु.), 447 रु. (11622 रु.) और 386 रु. (10036 रु.) तय किया जाना चाहिए.

दुर्भाग्यवश, यह वही कमेटी थी जिसने जनवरी 2019 में यह रिपोर्ट दर्ज की थी, जबकि सरकार द्वारा स्थापित 7वें वेतन आयोग ने नवम्बर 2015 में यह रिपोर्ट दर्ज की थी कि किसी भी कामगार को, यहां तक कि ठेका मजदूर को भी 18000 रू. से कम वेतन नहीं दिया जाना चाहिए. अगर हम पिछले तीन सालों की बढ़ती महंगाई को इसमें शामिल करें तो आज यह न्यूनतम 20,000 रु. बनता है. 

सातवें वेतन आयोग की सिफारिश के अनुसार केन्द्र सरकार के किसी भी कर्मी को सबसे कम वेतन पाने वाले, निम्नतम श्रेणी के नियमित कर्मचारी के समान वेतन मिलना चाहिए, जो कि आज की तारीख में 25,000 से लेकर 45,000 रू. से कम नहीं है. 

कर्नाटक हाई कोर्ट ने मालिकों की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने राज्य सरकार द्वारा तय 15000 रु. न्यूनतम वेतन की अदायगी करने पर सवाल उठाया था. दिल्ली में भी हाई कोर्ट थोड़ा नर्म पड़ा (जिसकी वजह मजदूरों, खासतौर पर डीटीसी के कर्मचारियों का संघर्ष था) और उसने दिल्ली की ‘आप’ सरकार को न्यूनतम वेतन की समीक्षा करने और उसे बढ़ाने की अनुमति दे दी. 

तमिलनाडु, महाराष्ट्र, आदि में औसत न्यूनतम वेतन 15,000 से 16,000 रु. के आसपास है. लेकिन, बदकिस्मती से, मोदी द्वारा बनाई गई कमेटी यह सलाह दे रही है कि राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन या ”फ्लोर वेतन” 10,000 रु. से कम होना चाहिए. 

बाजार मूल्य पर आधारित होने के चलते चूंकि न्यूनतम वेतन का स्तर कई राज्यों में लगातार बढ़ता रहता है, मोदी सरकार फ्लोर वेज या राष्ट्रीय न्यूनतम वेतन की ऐसी संकल्पना लाना चाहती है जो कई राज्यों के न्यूनतम वेतन से बहुत कम है. नीति अयोग ने फ्लोर वेज पर इस कमेटी की सिफारिशों की प्रशंसा की है. 

अब तक न्यूनतम वेतन का पालन करना अनिवार्य था - हालांकि देखा जाए तो बहुत ही कम नियोक्ता कानूनी न्यूनतम वेतन का भुगतान करते हैं. अब मोदी सरकार यह कोशिश कर रही है कि ”फ्लोर वेज” अनिवार्य हो जाएं और न्यूनतम वेतन पर बस जुबानी जमाखर्ची होती रहे और यह सवाल खुद-ब-खुद खत्म हो जाए. 

बेरोकटोक निजीकरण

केन्द्र सरकार और नीति आयोग ने पहले से ही 72 से ज्यादा पब्लिक सेक्टर इकाइयों को बंद करने के लिए चिन्हित कर लिया है. नीति आयोग ने 42 इकाइयों को तत्काल बंद करने की सिफारिश की है. 

एयर इंडिया को नष्ट करने की इजाजत दी जा रही है जबकि उड्डयन उद्योग फल-फूल रहा है. बीएसएनएल को 4-जी स्पेक्ट्रम की अनुमति नहीं दी गई है, जबकि टेलेकॉम इंडस्ट्री 5-जी की तरफ बढ़ रही है. टेलेकॉम इंडस्ट्री को वैसे भी अंबानी-अडानी को थाल में सजा कर पेश किया जा रहा है. एयरटेल और जीओ फल-फूल रहे हैं, जबकि बीएसएनएल अपने 54,000 कर्मचारियों की छंटनी करने की तैयारी कर रहा है. 

कहा जा रहा है कि सरकारी बैंक और बीमा कम्पनियों को सिर्फ इसलिए मर्ज (विलयन) किया जा रहा है, मिलाया जा रहा है ताकि उन्हें लाभप्रद बनाया जा सके और कॉरपोरेट घरानों द्वारा लिए गए भारी-भरकम कर्जों, जिन्हें चुकाया ही नहीं गया है, के बुरे प्रभाव को झेलने लायक बनाया जा सके. जो कहा नहीं जा रहा है वो ये है कि उन्हें निजी कॉरपोरेट घरानों को फौरन बिक्री के लिए लाभकारी कम्पनियों की तरह तैयार किया जा रहा है.  

रेलवेः 100 दिनों का ऐक्शन प्लान

रेलवे पुनर्गठन को लेकर बिबेक देबरॉय कमेटी, और साथ ही नीति आयोग ने, यह जोर दिया था कि सरकार अगले दस वर्षों में रेलवे में निजी भागीदारी पर विचार कर रही है और वह भी नॉन कोर कार्यवाहियों पर, जैसे - अस्पतालों, स्कूलों, उत्पादनों केंद्रों, वर्कशॉपों, रेलवे पुलिस, आदि. 

लेकिन, अपनी विशाल जीत से आक्रामक होते हुए, मोदी-2 शासन 100 दिनों का ऐक्शन कार्यक्रम ले आया है जो लाभ कमाने वाली राजधानी और शताब्दी ट्रेनों जैसी पैसेंजर गाड़ियों को निजी कंपनियों के हवाले करने का प्रस्ताव लेकर आ रहा है, यानी मुनाफे का निजीकरण. ट्रेनें, ट्रैक, स्कूल, अस्पताल, आदि निजी कंपनियों के हवाले कर दिये जायेंगे और टिकट का दाम दोगुना कर दिया जायेगा. सरकार यात्रियों को टिकटों पर सब्सिडी छोड़ने के लिये भी प्रोत्साहित कर रही हैः ‘‘गिव इट अप’’ (सब्सिडी त्याग दें) का अभियान चलाया जा रहा है. हर बार आप जब टिकट बुक करेंगे, आपकी यात्रा का किराया स्वतः दोगुना हो जायेगा जब तक कि आप सब्सिडी का विकल्प नहीं चुनेंगे. भारतीय रेल - भारत जैसे विशाल देश में जनता का सबसे लोकप्रिय और सुलभ परिवहन का साधन - अमीरों के लिये सुरक्षित और गरीबों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है.    

भारतीय रेल की सातों प्रोडक्शन यूनिटों - चितरंजन लोकोमोटिव वर्क्स (सीएलडब्ल्यू-प. बंगाल), इंटीग्रल कोच फैक्ट्री (आईसीएफ-चेन्नई), डीजल लोकोमोटिव वर्क्स (डीएलडब्ल्यू-बनारस), रेल कोच फैक्ट्री (आरसीएफ-कपूरथला, पंजाब), डीजल मॉडर्नाइजेशन वर्क्स (डीएमडब्ल्यू), व्हील एंड एक्सल प्लांट (बंगलुरु), और मॉडर्न कोच फैक्ट्री (एमसीएफ-रायबरेली) के निगमीकरण के माध्यम से निजीकरण की योजना तैयार हो रही है. प्रोडक्शन इकाइयों का उनसे जुड़ी वर्कशॉपों समेत एक दूसरे में विलय कर दिया जायेगा और फिर ‘‘इंडियन रेलवे रोलिंग स्टॉक कंपनी’’ नाम से एक नयी व्यवस्था चालू की जायेगी. फिर इस कंपनी को बाद में निजी कंपनियों को सौंप दिया जायेगा - तब जब जनता का सारा पैसा इसे मुनाफे की कंपनी में बदल देने के लिये स्वाहा कर दिया जायेगा. मॉडर्न कोच फैक्ट्री (एमसीएफ-रायबरेली) के सीईओ को निर्णय लेने के अधिकार दे दिये जायेंगे, इसके बाद सरकार और रेलवे बोर्ड को किनारे कर फेज वाइज अन्य उत्पादन इकाइयों का भी निजीकरण किया जाएगा.

माल गाड़ियों को रोक कर यात्री गाड़ियों को हरी बत्ती दिखाने और उन्हें पास करने की प्रथा को उलट दिया जायेगा और अब माल गाड़ियों को प्राथमिकता दी जायेगी - और यह शुरू भी हो चुका है. पूरब और पश्चिम में डेडिकेटेड फ्रेट कॉरीडोर तैयार किये जा रहे हैं जिससे कि माल गाड़ियों की आवाजाही बढ़ाई जा सके. न केवल गायों का दर्जा मनुष्य की तुलना में बढ़ा दिया गया है, अब यात्रियों की तुलना में माल की आवाजाही का दर्जा भी बढ़ा दिया जायेगा.

इन 100 दिनों में, 50 रेलवे स्टेशनों को ‘पुनर्विकास’ और ‘विश्व स्तरीय सेवाओं’ के नाम पर निजीकरण के लिये चिन्हित किया जायेगा. सब जानते हैं कि हमारे देश में रेलवे स्टेशन बड़ी संख्या में गरीबों को सर के ऊपर छत मुहैया करते हैं. अब इन स्टेशनों में बिना टिकट के कोई घुस तक नहीं पायेगा (जैसा हवाई अड्डों में होता है), स्टेशनों पर उपलब्ध शौचालयों का उपयोग करने या प्लैट्फॉर्म की छत के नीचे पनाह लेना तो दूर. बेघर और बेसहारा लोगों को अपना यह तुच्छ ‘‘घर’’ भी नसीब नहीं होगा.

100 दिनों का ऐक्शन प्लान रेलवे के पुनर्गठन का खाका भी तैयार करेगा. रेलवे बोर्ड अप्रभावी हो जायेगा, सिवाय कुछ नियमन की योजना तैयार करने के काम को छोड़कर. जोनल और डिवीजनल स्तरों पर जीएम और डीआरएम ज्यादा शक्तिशाली हो जायेंगे. मुनाफा कमाने की होड़ - न कि जनता को सेवाएं देने की- जोनों का केंद्रीय सवाल बन जायेगा. रेलवे का पुनर्गठन भारत के विशाल रेलवे नेटवर्क के पूर्ण निजीकरण की कुंजी है. 

फिक्स्ड टर्म इम्प्लॉयमेंट 

ठेका प्रथा को ‘‘दूसरी पसंद’’ के बतौर जारी रखा जा रहा है, जबकि सरकार और मालिकों के लिये फिक्स्ड टर्म इम्प्लॉयमेंट एवं ‘‘अप्रेंटिसशिप’’ की विस्तारित प्रथा के बतौर शुद्ध रूप से अस्थाई काम ही पहली पसंद है. नियोजन के इन दोनों ही रूपों में रोजगार की कोई सुरक्षा नहीं है. हायर एंड फायर आसान बन जायेगा. 

अप्रेंटिसों के मामले में, न्यूनतम वेतन की अदायगी अनिवार्य नहीं है और न्यूनतम वेतन का केवल 75 प्रतिशत देना ही काफी है. सरकार का लक्ष्य है अप्रेंटिसों की संख्या को अगले 3 वर्षों में 3 लाख से बढ़ाकर 30 लाख करना. 

नये संशोधनों के अनुसार ठेका मजदूर ‘‘समान काम के लिये समान वेतन’’ का दावा नहीं कर सकते - वे किसी भी राज्य में वहां के न्यूनतम वेतन का दावा कर सकते हैं, और जो कि नये बदलावों के संदर्भ में ‘‘फ्लोर वेज’’ हो जायेगा. 

भूमि हड़प 

अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार को भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करके जमीन हड़पना आसान बनाने की अपनी कोशिश से पीछे हटना पड़ा था. तो अब मोदी सरकार पुलिस राज और राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करके भूमि अधिग्रहण करना चाहती है, और लैंड बैंक बनाना चाहती है ताकि उद्योगपति जब मर्जी आएं और कौड़ियों के दामों पर, बिना किसी परेशानी के, हजारों एकड़ जमीन का अधिग्रहण कर सकें, और उन्हें किसानों-भू मालिकों से सौदेबाजी न करनी पड़े और न ही कोई विरोध झेलना पड़े. 

नीति अयोग के उपाध्यक्ष राजीव कुमार कहते हैं कि सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की जमीन का अधिग्रहण कर सकती है. सार्वजनिक क्षेत्र और सरकार की अन्य विविध शाखाओं के मालिकाने में आने वाली जमीनों की एक सूची तैयार की जा सकती है, और लैंड पार्सल और क्लस्टर बनाए जाएंगे ताकि विदेशी पूंजी की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके. 

ये है - कॉरपोरेट का साथ! कॉरपोरेट का विकास! कॉरपोरेट का विश्वास! - ये सब किसानों की कीमत पर!

सामाजिक सुरक्षा और कल्याण पर कोड

दायरे के बाहर मजदूरों तक सामाजिक सुरक्षा को पहुंचाने के नाम पर, सरकार मौजूदा कल्याण बोर्डों और अन्य मौजूदा सामाजिक सुरक्षा संस्थाओं को खत्म कर रही है. विशाल सामाजिक सुरक्षा संस्थाओं, जैसे पीएफ, ईएसआई, बीड़ी, निर्माण और अन्य कल्याण बोर्डों, आदि के पास जमा करोड़ों-करोड़ रुपये अब छीन लिये जायेंगे. अब सामाजिक सुरक्षा नियोक्ताओं का दायित्व नहीं होगा बल्कि खुद मजदूरों की जिम्मेदारी होगी.   

सामाजिक सुरक्षा कोड खासतौर पर पूंजीपतियों को मजदूरों के प्रति किसी भी तरह के उत्तरदायित्व से मुक्त करने के लक्ष्य से बनाया गया है. यह कोड असल में सामाजिक सुरक्षा की संकल्पना से परे आधारभूत विचलन है - जिसका मतलब यह था कि नियोक्ता और सरकारें मजदूरों के लिए स्वास्थ्य लाभों, सेवानिवृत्ति लाभों व अन्य लाभों की जिम्मेदारी वहन करेंगे. ”द वल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 2019” का पैरा 353 बदलते कार्य की प्रकृति और कार्य के भविष्य के बारे में कहती है, ”विस्तारित सामाजिक सहायता और बीमा श्रम विनियमन पर से जोखिम प्रबंधन से निपटने के बोझ को कम करेगा. जैसे-जैसे लोग इस विस्तारित सामाजिक सहायता और बीमा व्यवस्था के जरिए ज्यादा बेहतर सुरक्षा हासिल करेंगे, श्रम विनियमन, जहां उचित हो, वहां ज्यादा लचीले तरीके से नौकरियों के बीच संचार में सहायता कर पाएगा. मिसाल के तौर पर अगर जीविकोपार्जन के लिए आमदनी की उपलब्धता चाहते हों, तो विभिन्न देश आमदनी का अनुपूरक देने के लिए ज्यादा सामाजिक सहायता का चुनाव कर सकते हैं और न्यूनतम वेतन पर दबाव को कम कर सकते हैं जो कि ऐसे स्तर पर अवस्थित हैं कि वो श्रम की उत्पादकता से ज्यादा हो जाते हैं. इसी तरह, बेरोजगारों के लिए छंटनी के वेतन के बजाय बेरोजगारी भत्ते के द्वारा आमदनी में सहायता दी जा सकती है. 

इसलिए, वल्ड बैंक का नुस्खा यह है कि पूंजी के मालिकों को अपने ही मजदूरों की जिम्मेदारी से मुक्त कर दिया जाए और इस जिम्मेदारी को समाज और खुद मजदूरों पर डाल दी जाए. दरअसल मोदी सरकार इसी नुस्खे को लागू करना चाहती है. 

”प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना” नये मजदूरों के लिए तीन साल तक ईपीएस (पेंशन योजना) और ईपीएफ में सरकार की तरफ से अंशदान करती है, जो उन्हीं मजदूरों पर लागू होता है जिनकी मासिक आमदनी 15,000 रु. से कम हो. एक बार फिर से कहें तो ये नियोक्ता पर से कर्मचारी के बोझ को कम करने का तरीका है जबकि ईएसआई में नियोक्ता का अंशदान घटाकर मजदूर के वेतन का सिर्फ 1.5 प्रतिशत कर दिया जाता है. सीआईआई ने यह सुझाव दिया है कि इस सीमा स्तर को 15,000 रु. से बढ़ाकर 25,000 रु. तक कर दिया जाए. 

औद्योगिक संबंधों पर कोड

ट्रेड यूनियन बनाने की प्रक्रिया को कठिन बनाया जा रहा है और मजदूरों की जनरल यूनियनों के पंजीकरण से मनाही की जा रही है. मजदूरों के बुनियादी ‘हड़ताल के अधिकार’ को भी विभिन्न रूपों में छीना जा रहा है. ट्रेड यूनियनों की मान्यता के सवाल को भी खत्म किया जा रहा है.

तमाम मौजूदा कानून मजदूर वर्ग की भारी कुर्बानियों और जुझारू हड़तालों द्वारा हासिल किये गये थे. इस संदर्भ में, मजदूर वर्ग आंदोलन आज आठ घंटों के कार्य दिवस एवं ट्रेड यूनियन अधिकारों की सदियों पुरानी मांगो को उठाने के लिये बाध्य है. 

मोदी-2 का शासन श्रम सुरक्षा और सार्वजनिक क्षेत्र के संपूर्ण ढांचे को तहस-नहस करने की कोशिशों में है और इस तरह अपने विशाल चुनावी अभियान में धन-दौलत से सहयोग करने वाले देसी-विदेशी कॉरपोरेशनों का कर्जा उतार रही है

जहां मोदी शासन कॉरपोरेट परस्ती में डूबा हुआ है, वहीं दूसरी तरफ वह सांप्रदायिक नफरत फैलाने और अंध-राष्ट्रवादी उन्माद भड़काने के जरिये मेहनतकशों के बुनियादी सवालों को दफन कर रहा है. ऐसी स्थिति में भारत के मजदूर वर्ग को सांप्रदायिक राजनीति का सामने से मुकाबला करना होगा और एकता व सॉलिडैरिटी के मजबूत संबंध बनाने होंगे. यह एकता और सांप्रदायिकता-विरोधी धार ही मजदूरों के अधिकारों पर हमले के खिलाफ मजदूर वर्ग के असरदार प्रतिरोध की बुनियादी शर्त हो सकती है.