डब्लूएफटीयू का एशिया-पेसिफिक क्षेत्रीय सम्मेलन

डब्लूएफटीयू (वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ ट्रेड यूनियनस्) का एशिया-पेसिफिक क्षेत्रीय सम्मेलन 24-25 सितंबर 2019 को काठमांडू, नेपाल में संपन्न हुआ. सम्मेलन का मूल विषय थाः ‘जनता की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति और सामाजिक सुरक्षा’.

सममेलन का उद्घाटन नेपाल के श्रम, रोजगार एवं सामाजिक सुरक्षा मंत्री गोकर्ण बिष्ट ने किया.डब्लूएफटीयू के महासचिव जॉर्ज मैवरिकोस ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से अपना संदेश दिया जिसमें उन्होंने बढ़ते नव-फासीवाद के खिलाफ संघर्ष तेज करने की दिशा में 3 अक्टूबर को फासीवाद और नस्लवाद के खिलाफ डब्लूएफटीयू एक्शन डे (कार्रवाई दिवस) के दिन विश्वव्यापी जुलूस प्रदर्शन आयोजित करने का आह्वान किया.

उद्घाटन सत्र के अन्य वक्ता थेः डब्लूएफटीयू के उप महासचिव एच. महादेवन, स्वदेश देबराय, सी.एच. वेंकटाचलम (तीनों भारत से), वियतनाम की ट्रान टी.बी. एवं नेपाल में आईएलओ कार्यालय के निदेशक रिचर्ड हावर्ड. इस सत्र की अध्यक्षता नेपाल के प्रेमल कुमार खनाल ने की.

इस क्षेत्रीय सम्मेलन में 13 देशों से डब्लूएफटीयू से संबद्ध यूनियनों के प्रतिनिधि शामिल थे - भारत, पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका, वियतनाम, लाओस, इंडोनेशिया, मलेशिया, ईरान, दक्षिण कोरिया, उत्तर कोरिया एवं कजाखिस्तान.

प्रतिनिधि सत्र में एच. महादेवन द्वारा आधारपत्र प्रस्तुत करने के बाद प्रतिनिधियों ने अपने वक्तव्य रखे. ऐक्टू की ओर से उपाध्यक्ष एस.के. शर्मा ने प्रतिनिधि सत्र में वक्तव्य रखा. कुल 37 प्रतिनिधियों ने चर्चा में भाग लिया.

का. एस.के. शर्मा सम्मेलन को संबोधित करते हुए
का. एस.के. शर्मा सम्मेलन को संबोधित करते हुए

सम्मेलन के दौरान महिला प्रतिनिधियों के लिये एक अलग सत्र का आयोजन किया गया जिसमें महिला श्रमिकों की समस्याओं पर चर्चा की गई. सम्मेलन में भारत, बांग्लादेश, नेपाल, वियतनाम, लाओस और दक्षिण कोरिया की महिला प्रतिनिधि शामिल थीं.

प्रतिनिधि सत्र के अंत में काठमांडू घोषणापत्र जारी किया गया जिसमें शामिल हैं - 3 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई दिवस मनाने के साथ ही रोजगार के बढ़ते असुरक्षित एवं अनौपचारिक रूपों के खिलाफ अभियान चलाना, एशियाई स्तर के महिला कर्मी फोरम का गठन करना और उनकी मांगों पर अभियान चलाना, युवा श्रमिकों के सवालों पर मंच बनाना और अभियान चलाना, परमाणु समेत हथियारों की होड़ और बढ़ते सैन्य खर्चो के खिलाफ अभियान चलाना, क्यूबा पर लगाये गये प्रतिबंधों के खिलाफ अभियान; और सीरिया, फिलिस्तीन के साथ एकजुटता के लिये और अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा ईरान व उत्तर कोरिया के खिलाफ हमलों के खिलाफ आवाज उठाना. 

25 सितंबर को नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा विदेश विभाग के प्रमुख एवं पूर्व प्रधानमंत्री माधव नेपाल के साथ विदेशी प्रतिनिधियों की एक बैठक आयोजित की गई. ऐक्टू प्रतिनिधि एस.के. शर्मा ने उन्हें भाकपा-माले के मुखपत्र ‘लिबरेशन’ का एक सेट भेंट किया. 

ऐक्टू प्रतिनिधि का वक्तव्य (संक्षिप्त में) अपने वक्तव्य में, ऐक्टू की तरफ से सम्मेलन में आये तमाम प्रतिनिधियों का अभिनंदन करते हुए उन्होंने कहा कि यह भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए एक ऐतिहासिक समय है जब उसके संघर्षों और महान बलिदानों के 100 गौरवमय साल पूरे हो चुके हैं. इसी साल यानी 2019 में ऐक्टू भी अपने संघर्षशील सफर के, मजदूर वर्ग की एकता और एकताबद्ध भारतीय ट्रेड यूनियन आंदोलन को मजबूत करने में अपने योगदान के तीस साल पूरे कर रहा है. 

सम्मेलन के विषय पर बोलते हुए उन्होंने कहा कि यह समूची दुनिया की जनता का मुद्दा है, और आज का एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. करीबन तीस साल से, दुनिया का आम अवाम नव-उदारवाद के कब्जे में है. दुनिया की लगभग 80 प्रतिशत आबादी ने नव-उदारवादी विचारधारा के विनाशकारी बदलाव की वजह से नुकसान उठाया है. दुनिया के लगभग 80 करोड़ लोग हर सुबह भूखे पेट जागते हैं. ये सिर्फ गरीब नहीं हैं, वे भूखे भी हैं. और इनमें से 20,000 लोग, जिनमें ज्यादातर बच्चे हैं, हर रोज मर जाते हैं; और ये वो दुनिया है जिसमें आवश्यकता से अधिक कृषि उत्पादन होता है. यह ना दिखाई देने वाली घातक हिंसा असल में नव-उदारवादी नीतियों की देन है जो विशाल पैमाने पर निजीकरण, सामाजिक बजट में कटौती, बेरोजगारी, पर्यावरण नियमों को धता बताने और बैंकों व वित्तीय लेन-देन करने वाली कंपनियों के पास अथाह संपत्ति के तौर पर दिखती है. पिछले तीस सालों में अमीर और ग़रीब के बीच की खाई में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई है. 1976 के आईएलओ वर्ल्ड एम्प्लायमेंट सम्मेलन के द्वारा ”मूलभूत ज़रूरतों” के दृष्टिकोण का सूत्रपात किया गया था, जो मूलभूत मानवीय ज़रूरतों को पूरा करने को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय विकास नीति के सर्वोपरि उद्देश्य के तौर पर प्रस्तावित करता है. इस ”मूलभूत ज़रूरत” की दिशा को सारी दुनिया की सरकारों और मजदूर संगठनों और नियोक्ता संगठनों ने समर्थन दिया था, लेकिन इनमें से किसी ने भी, आज तक भी मूलभूत मानवीय ज़रूरत को पूरा करना सुनिश्चित नहीं किया है. यहां तक कि इसे भी पूंजीपतियों के हितों के लिये सीमित कर दिया गया है.  

तात्कालिक ”मूलभूत ज़रूरतों” की परंपरागत सूची कुछ यूं हैः 1. भोजन (इसमें पानी भी शामिल है), 2. आश्रय और, 3. कपड़ा. अब 21वीं सदी में इन तीन परंपरागत बुनियादी ज़रूरतों के अलावा लोगों को सफाई, स्वास्थ्य सेवाओं, अच्छी नींद, मनोरंजन, आराम, शिक्षा, प्रदूषण रहित पर्यावरण, और इंटरनेट भी चाहिए. ‘‘बुनियादी ज़रूरतों’’ की दिशा को उपभोग उन्मुख के तौर पर बताया जाता है लेकिन मशहूर अर्थशास्त्री डॉ. अमृत्य सेन ने उपभोग की जगह क्षमता पर केन्द्रित किया है. 

”यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ हयूमन राइटस्” (मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र) की धारा 22 में सामाजिक सुरक्षा पर मजबूती से जोर दिया गया है, जो सामाजिक सुरक्षा को समाज के सदस्य के तौर पर, प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार मानता है. 

आईएलओ द्वारा सामाजिक सुरक्षा के अंतर्गत आने वाले परिभाषित परंपरागत आकस्मिक खर्चों में ”वृद्धावस्था पेंशन, आजीविका कमाने वाले की मौत पर विधवा या उसके बच्चों को उत्तरजीवी लाभ, बच्चों की देखभाल के लिये पारिवारिक भत्ता, स्वास्थ्य सेवाएं, मातृत्व लाभ, बेरोजगारी भत्ता, बीमारी अवकाश भत्ता, अपंगता भत्ता और कार्य के दौरान होने वाली दुर्घटना या बीमारी के चलते मिलने वाला अभिघात भत्ता शामिल हैं.” 

सामाजिक सुरक्षा सिर्फ नकद हस्तांतरण के प्रावधानों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह कार्य की सुरक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक भागीदारी की ओर लक्षित है और नये सामाजिक खतरों को भी इस सूची में शामिल किया जाना चाहिए. 2014 में प्रकाशित रिपोर्ट में आईएलओ का अनुमान था कि दरअसल दुनिया की कुल आबादी का मात्र 27 प्रतिशत हिस्सा ही सामाजिक सुरक्षा हासिल कर पाता है. 

सभी के लिए बुनियादी जरूरतें पूरी करना और सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना तब तक संभव नहीं है जब तक ‘सभी को रोजगार’ नहीं मिल जाता. लेकिन अपना काम निकालने के लिए नव-उदारवाद लोकतांत्रिक संस्थाओं को खोखला कर देता है. डब्लूटीओ के संरक्षण में होने वाली समझौता वार्ताएं गुप्त रूप से की जाती है. आईएमएफ का नियंत्रण एक निजी क्लब के हवाले है जो सिर्फ कुछ देशों के मुखियाओं के प्रति जवाबदेह होता है.

हम आखिर चाहते क्या हैंः इन नव-उदारवादी नीतियों का खात्मा हो और हमारी सरकारें साफतौर पर ऐसी हर वार्ता को खारिज करें जो जनता की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने और सामाजिक सुरक्षा पर केन्द्रित ना हो. 

भारत की अर्थव्यवस्था और कामगारों की स्थिति पर उन्होंने कहा कि हम वो देश हैं जिसकी 60 प्रतिशत आबादी आज भी अपनी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर करती है. वो देश जिसका विशालकाय असंगठित क्षेत्र देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का 65 प्रतिशत हिस्सा देता है, जिसमें 40 प्रतिशत से ज्यादा आबादी काम करती है और देश के कुल कार्यबल का 93 प्रतिशत हिस्सा इसमें कार्यरत है - यही इस भारतीय पूंजीवाद का सबसे विलक्षण तत्व है. भारत में कुल 3 करोड़ बाल मजदूर है. 80 प्रतिशत जनता प्रति दिन उपभोग की जाने वाली कैलोरीज़ नहीं ले पाती है. उनके पास कोई नौकरी की सुरक्षा या सामाजिक लाभ नहीं है. उनमें से ज्यादातर या तो भूमिहीन हैं, या उनके पास घर नहीं है, और वो झुग्गी-झोंपड़ी में रहते हैं. वे बुनियादी ज़रूरतों और सामाजिक सुरक्षा से वंचित हैं. लगभग तीन दशकों से लागू नव-उदारवादी नीतियों की वजह से भयानक असमानता का विकास हुआ है. हर साल देश में खरबपतियों की संख्या बढ़ जाती है, लेकिन खरबपतियों की ये संख्या उन करोड़ों लोगों की कीमत पर बढ़ती है जो आज भी भूखे-नंगे हैं. हालिया ऑक्सफाम के अध्ययन से हमें पता चलता है कि साल 2017 में सबसे अमीर 1 प्रतिशत लोगों ने देश की कुल उत्पादित सम्पत्ति का 73 प्रतिशत अपनी तिजोरी में डाल दिया. 

भारत में उदारवादी नीतियों के आगमन के साथ ही, रोजगार के पैटर्न में जबरदस्त बदलाव हुआ और संगठित और अनौपचारिक तक दोनों ही क्षेत्रों में नियमित रोजगार से हटकर कई तरह के अनियमित रोजगारों, जैसे ठेका, अनौपचारिक, अप्रेंटिस, ट्रेनी आदि की तरफ चला गया. कामगारों की एक नई श्रेणी उभरी, जिसे अवैतनिक कामगार कहा गया (जो मानदेय या प्रोत्साहन राशि पर खटते हैं), ये विभिन्न सरकारी योजनाओं में कार्यरत हैं, जिनमें मिड-डे मील, एनआरएचएम (आशा), आईसीडीएस (आंगनवाडी), आदि शामिल हैं. आज ऐसे लगभग 2 करोड़ कामगार हैं जिन्हें कामगार की हैसियत तक से वंचित कर दिया गया है. ”हायर एंड फायर” पूरे जोरों पर चल रहा है, वेतन ना देना; सामाजिक सुरक्षा ना होना, कोई सालाना वेतन वृद्धि ना होना, कोई सामाजिक सुरक्षा भत्ता ना होना, कोई न्यूनतम वेतन ना होना, कोई वैतनिक अवकाश ना होना आज आम बात हो गई है. यहां तक कि यूनियन बनाने के अधिकार पर भी हमले हो रहे हैं. सफाई मजदूरों के मामले में, नगर निगमों से लेकर सीवरेज बोर्ड तक, सिर्फ दलित जाति के लोग ही कार्यरत हैं. वर्तमान सरकार की सारी नीतियां और योजनाएं सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से बनाई और चलाई जा रही हैं और इन्हें ”राष्ट्र के विकास” का चोला पहना दिया जाता है. मनरेगा, आईसीडीएस, एनआरएचएम, एमडीएम, राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, ट्राइबल सब-प्लान, शेड्यूल कास्ट सब-प्लान, पीने के पानी और स्वच्छता जैसी योजनाओं के लिए आबंटित बजट को इतना कम कर दिया गया है कि वो सिर्फ नाममात्र का रह गया है. 

नीतियों में यह दक्षिणपंथी झुकाव ’80 के दशक के मध्य में शुरु हुआ था और वर्तमान भाजपा सरकार में यह कॉरपोरेट-सांप्रदायिक फासिस्ट राज के रूप में अपने चरमोत्कर्ष पर है. इसके तहत मेहनतकशों के तमाम अधिकार छीने जा रहे हैं और आधुनिक गुलामी की इबारत लिख दी गई है. और यह सब ”ईज़ ऑफ डूइंग बिजनेस” और ”मेक इन इंडिया” के नाम पर हो रहा है. कुल मिलाकर, साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के साथ हाथ मिलाकर निजी पूंजी ने भारत की सत्ता की बागडोर अपने हाथों में ले ली है. 

अब जहां एक ओर वर्तमान सरकार की नीतियों, जिसे मोदीनॉमिक्स कहा जा रहा है ने पूरी तरह तबाही मचा दी है अर्थव्यवस्था में मंदी आ गई है, बेरोजगारी चरम पर है; उसी समय में, हमारे देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतांत्रिक संस्थाओं, मीडिया और संविधान - कुल मिलाकर, लोकतंत्र पर खुलेआम-बेखौफ हमले भी हो रहे हैं, जिसका हालिया उदाहरण कश्मीर की सैन्य घेराबंदी है. सरकार और हिन्दुत्ववादी ताकतों ने कानून के राज की जगह साम्प्रदायिक तनाव और नफरत, मॉब-लिंचिंग और खौफ का, अंधराष्ट्रवाद का राज लागू कर दिया है और इस सब का मकसद यही है कि मेहनतकश अवाम को टुकड़ों में बांट दिया जाए, हमारे समाज के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को तार-तार कर दिया जाए और देश को हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाए. 

जब आसमान में काले बादल छाए हों, तब उम्मीद की, संघर्ष की और प्रतिबद्धता की सुनहरी किरण भी दिखती है. किसान, मजदूर, नौजवान, छात्र और महिलाएं लगभग सभी संघर्ष के रास्ते पर हैं. एकताबद्ध मजदूर वर्ग आंदोलन की अगुवाई कर रहा 10 केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों का मंच भी आने वाले समय में देशव्यापी आम हड़ताल की तैयारी कर रहा है. देश का कामगार अपनी पूरी ताकत के साथ संघर्ष करेगा. हम सामाजिक न्याय हासिल करने के लक्ष्य के साथ अन्य हिस्सों के साथ पूरे देश में एक किस्म की व्यापक एकजुटता बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

अंत में उन्होंने मजदूर वर्ग और नेपाल के आम अवाम को राजशाही के तानाशाह राज को परास्त कर संयुक्त कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल के नेतृत्व में लोकतंत्र की तरफ बढ़ते कदमों के लिए इंकलाबी सलाम पेश करते हुए अपना वक्तव्य समाप्त किया.