संविधन बचाओ, नागरिकता बचाओ, लोकतंत्र बचाओ! सीएए, एनपीआर और एनआरसी का विरोध् करो!

भाजपा सरकार ने दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून पास कर दिया. पूरे देश में इसका विरोध हो रहा है.

लोगों ने सही समझा है कि नागरिकता कानून संविधान के खिलाफ है और सांप्रदायिक है. इसके साथ जब एनआरसी भी मिल जायेगा तो यह मुसलमान नागरिकों को ‘‘घुसपैठिया’’ और बाकी नागरिकों को ‘‘शरणार्थी’’ में तबदील कर देगा.

बहुत सी जगहों पर इंटरनेट बंद कर दिया गया है, सड़क और रेल यातायात पर भी रोक लगायी जा रही है, भाजपा शासित राज्यों में धारा 144 लगा दी गई है. इस कानून का विरोध करने वाले छात्रों व अन्य नागरिकों को पीटा जा रहा है, उन पर गोलियां चलायी जा रही हैं. कुछ प्रदर्शनकारियों की आंखें चली गई हैं तो कुछ की हत्यायें की गई हैं.  

नागरिकता संशोधन कानून और देश भर में एनआरसी के खिलाफ जनता का आंदोलन भारत के संविधान, लोकतंत्र और एकता को बचाने का आंदोलन है. 

भारत ही नहीं पूरी दुनिया भर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों से मोदी-शाह की जोड़ी दबाव में है. वे नागरिकता कानून और एनआरसी के बारे में झूठ बोल रहे हैं. वे विरोध प्रदर्शनों के बारे में भी झूठ फैला रहे हैं. 

सरकार आपसे झूठ बोल रही है. ज्यादातर मीडिया आपसे झूठ बोल रहा है. आपको सच जानने का हक है.

सरकार के झूठ के बारे में जानिए. हकीकत को पहचानिए. 

हम भारत के लोग सरकार चुनते हैं

सरकार कौन होती है कि वो लोगों को चुने ? 

हमारे संविधान में इस बात की गारंटी की गई है कि भारत के लोग वोट देकर अपनी सरकार चुनें और उसे अपने हिसाब से चलायें. संविधान इस बात की इजाजत नहीं देता कि सरकार तय करे कि देश में किन्हें वोट का हकदार माना जायेगा और किन्हें नहीं. हमारे संविधान की सर्वप्रथम लाइन है ‘हम भारत के लोग’ - न कि ‘हम भारत के लोग जिनके पास ऐसे दस्तावेज हैं जिनसे साबित होता है कि हम भारत के हैं’ या कि ‘हम भारत की सरकारें जोकि यह तय करती हैं कि कौन लोग भारत के हैं’! 

डा. अम्बेडकर द्वारा 1950 में बनाया गया भारत का संविधान भारतीय नागरिकों के बीच धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता है. संविधान के अनुसार भारत की नागरिकता को ‘हिन्दू’ या ‘मुसलमान’ के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता है. भारत में कोई चाहे पश्चिमी पाकिस्तान से प्रवेश करे, या पूर्वी पाकिस्तान (आज का बंगलादेश) से, संविधान किसी के साथ धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करता. हमारा संविधान, अथवा देश का 1955 में बना मूल नागरिकता कानून, किसी को भी ‘गैरकानूनी आप्रवासी’ नहीं कहता. 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने कभी भी भारत का संविधान और उसकी धर्मनिपेक्ष भावना का समर्थन नहीं किया. वे तो ‘मनुस्मृति’ को भारत का संविधान बना देना चाहते थे. आजादी के आंदोलन के दौरान, और आजादी मिलने के बाद भी, वे केवल धर्म के आधार पर लोगों और देश को बांटने की कोशिशें लगातार करते रहे हैं. 

चुनी हुई सरकारों को संविधान की मूल भावना से छेड़छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है. लेकिन भाजपा-राजग सरकारें हमेशा इसी में लगी रहती हैं कि कैसे संविधान के धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक स्वरुप को खत्म कर दिया जाय! 

2003 में अटल बिहारी बाजपेयी के नेतृत्व में बनी राजग सरकार ने संविधान को कमजोर करने के उद्देश्य से नागरिकता कानून 1955 में संशोधन कर उसमें ‘गैरकानूनी प्रवासी’ तथा ऐसे लोगों जिनके माता-पिता में से कोई एक ‘गैरकानूनी प्रवासी’ हो को नागरिकता से वंचित करने का प्रावधान डलवा दिया. इसमें ‘गैरकानूनी प्रवासी’ की परिभाषा को जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया है, जिससे सरकार के पास मनमाने तरीके से किसी को भी ‘गैरकानूनी प्रवासी’ घोषित करने का अधिकार आ गया है. 2003 के उसी संशोधन के जरिये वाजपेयी सरकार ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) बनवाने का प्रावधान भी करवा दिया, इसी रजिस्टर में से ‘संदिग्ध’ नागरिकों को अलग छांटा जायेगा और फिर उनसे कहा जायेगा कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में अपना नाम शामिल करवाने के लिए कागजात दिखायें. कागजातध्दस्तावेज न दिखा पाने की स्थिति में उन्हें ‘गैरकानूनी प्रवासी’ (या घुसपैठिया) घोषित किया जा सकता है. वाजपेयी काल में कानून में हुए इस बदलाव से एक ‘स्थानीय रजिस्ट्रार’ अब किसी भी नागरिक को ‘संदिग्ध’ घोषित कर सकता है, जिसके बाद सरकार के पास यह अधिकार है कि कागजात दिखाने में असमर्थ होने पर ऐसे ‘संदिग्ध’ नागरिकों को वह परेशान कर सकती है, यहां तक कि उन्हें ‘गैरकानूनी प्रवासी’ घोषित कर सकती है. नागरिकता कानून में तब हुए इस संशोधन के कारण स्थानीय प्रशासन और राष्ट्रीय सरकार (भ्रष्ट, गरीब-विरोधी या साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों के कारण) संविधान के मौलिक सिद्धांतों के विरुद्ध मनमाने नियम बना कर किन्ही व्यक्तियों या समुदायों को ‘संदिग्ध’ नागरिक अथवा ‘गैरकानूनी प्रवासी’ घोषित कर सकती हैं. 

वाजपेयी सरकार ने तब जो क्षति पहुंचायी थी, उसे नागरिकता संशोधन कानून 2019 ने कई गुना गहरा कर संविधान की मूल भावना को पूरी तरह नष्ट कर दिया है. इसमें आवेदक की धार्मिक पहचान के आधार पर भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान लाया गया है. मोदी-शाह सरकार का सीएए- एनपीआर- एनआरसी प्रोजेक्ट उसी संविधान विरोधी एजेंडा को आगे बढ़ा रहा है जिसकी नींव वाजपेयी सरकार ने रखी थी. इससे भारतीयों की नागरिकता और वोट देने का अधिकार भ्रष्ट, गरीब-विरोधी या साम्प्रदायिक सरकार व उसके अधिकारियों की दया पर निर्भर हो गया है.

नागरिकता संशोधन कानून क्या है?

यह 1955 के नागरिकता कानून में किया गया संशोधन है. यह संशोधन पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से 31 दिसम्बर 2014 के पहले आ चुके गैरमुसलमान - यानी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई दृ शरणार्थियों को जल्दी से नागरिक बनाने का प्रावधान करता है. पहले नागरिक बनने के लिए भारत में बारह साल रहना अनिवार्य था. यह संशोधन इन शरणार्थियों के लिए भारत में निवास की अवधि घटा कर 6 साल कर देता है. 

फिलहाल भारत में ऐसे शरणार्थी कितने है? 

अभी उनकी नागरिकता की क्या स्थिति है? 

2016 में नागरिकता संशोधन विधेयक पर सुनवाई कर रही संसदीय समिति को इन्टेलिजेन्स ब्यूरो (आई.बी.) ने बताया था कि दिसम्बर 2014 के पहले पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान से भारत आये गैर-मुसलमान शरणार्थियों की संख्या 31,313 थी. 

2011 में यूपीए सरकार ने शरणार्थियों को लम्बे समय तक का वीजा हासिल करने के सिलसिले में एक प्रक्रिया (स्टैण्डर्ड ऑपरेशन प्रॉसीजर) बतायी थी. लम्बी अवधि का वीजा प्राप्त करने के बाद शरणार्थी न केवल पैन कार्ड, आधार कार्ड, और ड्राइविंग लाइसेन्स आदि बनवा सकते थे बल्कि सम्पत्ति भी खरीद सकते थे. 

2011 से 2014 के बीच यूपीए सरकार ने पड़ोसी देशों से आये 14,726 शरणार्थियों को लम्बी अवधि का वीजा दिया. इनमें से ज्यादातर हिन्दू थे. 2011 से 2018 के बीच 30,000 लोगों को लम्बी अवधि का वीजा दिया गया . 

इस तरह देखा जाये तो नागरिकता संशोधन कानून के जरिये जिन लोगों को लाभ पहुंचाने की बात की जा रही है उनमें से ज्यादातर लोगों को पहले ही लम्बी अवधि का वीजा मिल चुका है. वे भारत में अपनी जीविका कमा सकते हैं, पैन कार्ड, आधार कार्ड और ड्राइविंग लाइसेन्स आदि बनवा सकते हैं, साथ ही अपने परिवार के लिए घर भी खरीद सकते हैं. 

क्या नागरिकता कानून 1955 पड़ोसी देशों से भारत आये लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान करता है ?

हॉं. नागरिकता कानून 1955 के तहत कोई भी विदेशी व्यक्ति भारतीय नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता है. नागरिकता कानून की धारा 5 के तहत पंजीकरण के जरिये और धारा 6 के तहत नेचुरलाइजेशन (देशीकरण) के जरिये नागरिकता हासिल की जा सकती है. 

जब शरणार्थी लम्बी अवधि के वीजा के जरिये तमाम सुरक्षायें हासिल कर सकते हैं और नागरिकता के लिए आवेदन भी कर सकते हैं तो सरकार नागरिकता संशोधन कानून पर ही जोर क्यों दे रही है ?

नागरिकता संशोधन कानून की एकमात्र उल्लेखनीय विशेषता यह है कि यह धर्म के आधार पर शरणार्थियों के साथ भेदभाव करता है और गैरमुसलमान शरणार्थियों को बारह साल भारत में रहने की जगह 6 साल में ही नागरिकता दे कर उन्हें मतदाता बनाता है. 

नागरिकता संशोधन कानून की तैयारी में मोदी-शाह सरकार ने लम्बी अवधि के वीजा के नियमों में पहले ही बदलाव कर दिया था. सितम्बर 2015 के गजट में बदले हुए नियम ‘बंगलादेश और पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समुदायों - यानी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई - के 31 दिसम्बर 2014 से पहले भारत आये शरणार्थियों’ के लिए लम्बी अवधि के वीजा का प्रावधान करता है. ऐसे शरणार्थी वैध कागजात के साथ आये, अवैध कागजात के साथ आये या पुराने पड़ चुके कागजात के साथ आये, इससे फर्क नहीं पड़ता. दूसरे शब्दों में कहें तो मोदी-शाह सरकार ने लम्बी अवधि के वीजा नियमों को पहले ही नागरिकता संशोधन कानून के अनुरूप बना लिया था. 

ध्यान रखने की बात है कि 2014 से पहले पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश से भारत आ चुके गैरमुसलमान शरणार्थियों के पास पहले ही पैन कार्ड, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेन्स और संम्पत्ति खरीदने के अधिकार हैं. तो नागरिकता संशोधन कानून उन्हें ‘अतिरिक्त’ क्या देता है? यह संशोधन उन्हें वोट का अधिकार देता है. पहले भारत आने के बारह साल के बाद वोट का अधिकार दिया जा सकता था, अब छह साल बाद. लेकिन म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों, श्रीलंका के तमिल शरणार्थियों, या पाकिस्तान- अफगानिस्तान के अहमदिया और हजारा शरणार्थियों और बंगलादेश से आयी तस्लीमा नसरीन जैसी शरणार्थियों के लिए यह कानून छह साल में वोट देने के अधिकार नहीं देता है. 

तो नागरिकता संशोधन कानून की एकमात्र खासियत है उसका साम्प्रदायिक होना. 

भाजपा पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश से आये गैरमुसलमान शरणार्थियों को तुरत-फुरत नागरिक बना कर वोट देने का अधिकार क्यों देना चाहती है और रोहिंग्या, तमिल, अहमदिया, हजारा और मुसलमान राजनीतिक शरणार्थियों को यही अधिकार क्यों नहीं देता चाहती ? 

भाजपा तीन कारणों से नागरिकता संशोधन कानून पर जोर दे रही है. 

  1. भाजपा बंगलादेश से आये हुए हिन्दुओं को असम और पश्चिम बंगाल में अपने वोट बैंक की तरह देख रही है. भाजपा नेता और असम के वित्त मंत्री हिमन्ता विश्वसर्मा ने असम के टीवी चैनल ‘जीप्लस’ को जनवरी 2019 में दिये गये इण्टरव्यू में बताया था कि ‘नागरिकता संशोधन बिल हमें असम की 17 सीटों को अगले दस साल तक जीतने में मदद करेगा. इन जगहों पर अगर आप दस हजार बंगाली हिन्दुओं के वोट घटा दीजिये तो ये सीटें यूएमएफ या यूडीएफ के पास चली जायेंगी. हम कई सीटें हारने की कगार पर हैं. अगर हम नागरिकता संशोधन बिल तुरन्त नहीं लाते तो हम 17 सीटें हार जायेंगे. जो लोग 31 दिसम्बर 2014 के पहले असम में आ चुके हैं उन्हें आप बाहर नहीं कर सकते, तो आप उन्हें क्या सहूलियत देने जा रहे हैं ? हम उन्हें वोट देने का अधिकार देंगे. इस सहूलियत के जरिये फिलहाल हमारी 17 सीटें बची रहेंगी. 
  2. भाजपा - आरएसएस का नागरिकता संशोधन कानून से इसलिए भी लगाव है कि यह भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को तोड़ता है और धर्म के आधार पर नागरिकता का प्रावधान करता है. इससे पहले के कानूनों के तहत कोई भी शरणार्थी या प्रवासी नागरिकता के लिए आवेदन कर सकता था. सरकार हर व्यक्ति के आवेदन पर विचार करने के बाद उसे नागरिकता देने या न देने का निर्णय ले सकती थी. नागरिकता संशोधन कानून के माध्यम से पहली बार भारतीय नागरिकता को धर्म से जोड़ दिया गया है. 
  3. तीसरा कारण है कि नागरिकता संशोधन कानून के साथ एनआरसी लाकर मोदी-शाह सरकार मुसलमानों की नागरिकता छीनना चाहती है. अप्रैल 2019 में अमित शाह ने पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिला के कालिम्पोंग में एक चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए कहा था कि ‘हमने हमारे घोषणापत्र में वादा किया है कि दुबारा नरेन्द्र मोदी की सरकार बनने के बाद देशभर के अन्दर एनआरसी बनाया जायेगा और एक एक घुसपैठिये को चुन चुन कर निकालने का काम ये बीजेपी सरकार करेगी. और जितने भी हिन्दू, बौद्ध शरणार्थी आये हैं सारे को ढूंढ़ ढूंढ़ कर भारत की नागरिकता देने का काम भी बीजेपी सरकार करने वाली है. उत्तरी दीनाजपुर के रायगंज में एक दूसरी रैली को सम्बोधित करते हुए शाह ने कहा कि अवैध घुसपैठिये दीमक की तरह हैं हम पश्चिम बंगाल के भीतर एक एक बंगलादेशी घुसपैठिये की पहचान करेंगे और उन्हें बाहर खदेड़ देंगे. हम हिन्दू, बोद्ध, सिख और जैन शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देंगे. 
  4. पश्चिम बंगाल के बनगांव में शाह ने साफ कर दिया कि नागरिकता संशोधन कानून उन गैरमुसलमानों को सुरक्षा देगा जो पूरे देश की एनआरसी लिस्ट से बाहर रह जायेंगे ‘पहले नागरिकता संशोधन कानून पास करेंगे ताकि पड़ोसी देशों से आये शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जा सके, उसके बाद एनआरसी आयेगा और हम एक एक घुसपैठिये की पहचान करके उसे अपने देश से बाहर खदेड़ देंगे.’ 

क्या हमें शरणार्थियों की मदद नहीं करनी चाहिए? 

मैंने सुना है कि पाकिस्तान में गैरमुसलमानों की जनसंख्या 23 प्रतिशत से घट कर 3 प्रतिशत रह गई है - निश्चय ही हमें ऐसे लोगों की मदद करनी चाहिए. 

संसद में नागरिकता कानून पर बहस के दौरान अमित शाह ने दावा किया कि पाकिस्तान में धार्मिक अल्पसंख्यकों की जनसंख्या 1947 में 23 प्रतिशत थी जोकि 2011 में सिर्फ 3.7 प्रतिशत रह गई. ये पूरी तरह झूठ है. अमित शाह ने कहा ‘1947 में पाकिस्तान के अन्दर अल्पसंख्यकों की आबादी 23 प्रतिशत थी और 2011 में वो घट कर 3.7 प्रतिशत हो गई. बंगलादेश में 1947 में अल्पसंख्यकों की आबादी 22 प्रतिशत थी और 2011 में वो कम हो कर 7.8 प्रतिशत हो गई. कहां गये ये लोग ? या तो उनका धर्म परिवर्तन हुआ, या वे मार दिये गये, या भगा दिये गये, या भारत आ गये.’ 

तथ्यों की पड़ताल करने पर पता चला कि 

  1. ‘पाकिस्तान में गैरमुसलमान जनसंख्या कभी भी 23 प्रतिशत नहीं थी. 
  2. अविभाजित पाकिस्तान में भी (बंगलादेश बनने के पहले) गैरमुसलमान जनसंख्या कभी 15 प्रतिशत भी नहीं थी (1951 में यह 14.2 प्रतिशत थी) 
  3. अगर हम आज के पाकिस्तान (जिसे पहले पश्चिमी पाकिस्तान करते थे) में गैरमुसलमानों की आबादी की बात करें तो यह 1951 में 3.44 प्रतिशत थी.
  4. जनगणना के आंकड़े दिखाते हैं कि पाकिस्तान में गैरमुसलमानों की जनसंख्या 3.5 प्रतिशत के आसपास घूमती रही है.’  
  5. पूर्वी पाकिस्तान में 1951 में आबादी 23 प्रतिशत थी. शाह ने गुमराह करने के लिए दो अलग अलग आंकड़ों को एक साथ मिला कर बता दिया है - पूर्वी पाकिस्तान (आज का बंगलादेश) का 1951 का आंकड़ा और आज के पाकिस्तान (तब जो पश्चिमी पाकिस्तान था) का आज का आंकड़ा. इसे झूठ बोलना कहते हैं.
  6. यह सच है कि गैरमुसलमानों का प्रतिशत बंगलादेश में 23 प्रतिशत से घट कर आज 10 प्रतिशत से नीचे आ गया है. इसका प्रमुख कारण बंगलादेश के मुक्ति संग्राम के समय व अन्य मौकों पर भारी संख्या में हुआ लोगों का पलायन है. वहां आबादी के अनुपात में आया बड़ा अंतर किसी अन्य कारण से नहीं है. भाजपा एक ओर कहती है कि बंगलादेश में मुसलमानों का अनुपात बढ़ा है, और दूसरी ओर कहती है कि भारत में बंगलादेशी मुसलमान घुसपैठिये बन कर आ गये हैं - अब दोनों बातें एक साथ कैसे सच हो सकती हैं? हॉं, वहां से हिन्दू आबादी बड़ी संख्या में आयी थी, यह निर्विवाद है. भाजपा गलत प्रचार करके देश को गुमराह कर रही है.  

क्या भारत को शरणार्थियों की मदद करनी चाहिए? जरूर. लेकिन हमें धर्म के आधार पर शरणार्थियों से भेदभाव नहीं करना चाहिए. 

पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अहमदिया और हजारा समुदाय के लोगों का उत्पीड़न होता है लेकिन हम उन्हें ‘मुसलमान’ मात्र समझते हैं. म्यांमार के रोहिंग्या, चीन के उइगर मुसलमान और श्रीलंका के तमिल हमारे पड़ोस के उत्पीड़ित समुदाय हैं.

‘घुसपैठियों’ के बारे में क्या राय है? 

‘घुसपैठिया’ शब्द ही पूर्वाग्रह और नफरत से भरा हुआ है. बिना दस्तावेजों के प्रवासी ‘घुसपैठिए’ नहीं होते हैं. गरीब रोजी की खोज में आते हैं, तो शरणार्थी उत्पीड़न से बचने के लिए. हमें शरणार्थियों और प्रवासियों, दोनों के बारे में मानवीय दृष्टिकोण रखना होगा. दस्तावेजों के बिना आए प्रवासी ‘‘गैर-कानूनी’’ नहीं हैं. कोई भी मनुष्य गैर-कानूनी नहीं होता. 

नागरिकता संशोधन कानून का भारत की विदेश नीति पर क्या असर होगा? 

बंगलादेश के गठन के समय से ही भारत और बंगलादेश में गहरी दोस्ती रही है. आज घरेलू स्तर पर भाजपा की साम्प्रदायिक नीतियों का पक्ष लेकर मोदी सरकार विदेश नीति में जहर घोल रही है और अब तक की गर्मजोशी भरी दोस्तियों को शत्रुतापूर्ण सम्बन्धों में बदल रही है. इस साम्प्रदायिक भेदभाव का बड़ा उदाहरण है कि भारत सरकार वीजा की अवधि समाप्त होने के बावजूद भारत में रह रहे बांग्लादेशी नागरिकों के साथ भेदभाव कर रही है. गैर-मुसलमान बांग्लादेशी नागरिक के लिए दो साल से ज्यादा समय के लिए पाँच सौ रूपए, 91 दिन से दो साल तक की अवधि के लिए दो सौ रूपए और 90 दिन तक की अवधि के लिए सौ रूपए का जुर्माना लगा रही है. लेकिन बांग्लादेश के मुसलमान नागरिकों के लिए इसी अवधि के लिए जुर्माने की रकम डॉलर में है. यह क्रमशः 500 डॉलर (35 हजार रूपए), 400 डॉलर (28 हजार रूपए) और 300 डॉलर (21 हजार रूपए) है.   

लेकिन जब देश का बंटवारा हुआ तो क्या मुसलमानों ने अपने लिए एक अलग देश पकिस्तान नहीं बनाया? कांग्रेस ने उस समय बंटवारे को स्वीकार कर लिया था. अगर पाकिस्तान मुस्लिम राष्ट्र है तो क्या भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं होना चाहिए? क्या मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं चले जाना चाहिए? 

अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष में बोलते हुए संसद में यही सब कहा. लेकिन ये सरासर झूठ है. सबसे पहले 1923 में सावरकर ने हिन्दू महासभा के घोषणापत्र ‘हिन्दुत्व’ में दो राष्ट्रों का सिद्धांत दिया था. इसके सोलह साल बाद जिन्ना और मुस्लिम लीग ने भी दो राष्ट्रों के सिद्धांत की वकालत की. दो राष्ट्रों के सिद्धांत का मतलब है कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग अलग राष्ट्र हैं और वे एक साथ नहीं रह सकते. 

जिन्ना द्वारा दो राष्ट्र के सिद्धांत की हिमायत के तीन साल पहले 1937 में हिन्दू महासभा के उन्नीसवें सत्र के दौरान सावरकर ने एक बार फिर कहा कि - ‘भारत में दो परस्पर शत्रुतापूर्ण राष्ट्र रह रहे हैं ... भारत को एकीकृत राष्ट्र नहीं माना जा सकता क्योंकि आज भारत में हिन्दू और मुसलमान दो परस्पर विरोधी राष्ट्र मौजूद हैं.’  

कांग्रेस ने दो राष्ट्र का सिद्धांत स्वीकार नहीं किया लेकिन उन्हें पाकिस्तान के गठन की मांग के आगे झुकना पड़ा. इस तरह भारत एक धमर्निरपेक्ष राष्ट्र बना और इसका संविधान धर्मनिरपेक्ष है. यह संविधान मुसलमानों, ईसाइयों, सिखों व अन्य सभी धर्मों को उतना ही महत्व देता है जितना कि हिन्दू धर्म को. आज भारत में रहने वाले मुसलमानों ने उस समय पाकिस्तान न जाने का चुनाव किया और भारत को अपनी मातृभूमि के रूप में स्वीकार किया.

सावरकर ने अपने दो राष्ट्र के सिद्धांत में मुसलमानों को हिंदू राष्ट्र में स्वीकार न करने की बात कही और साथ ही साथ मुसलमानों के लिए अलग देश की माँग का विरोध भी किया. तब सवाल यह उठता है कि भारत के हिंदू राष्ट्र बन जाने की हालात में मुसलमानों का क्या होता? आरएसएस के गोलवलकर ने मुसलमानों के बारे में कहा कि “३भारत में रहने के लिए उन्हें इस हिंदू राष्ट्र में अपनी अलग पहचान छोड़नी होगी और हिंदू नस्ल में घुल जाना होगा, या फिर उन्हें हिंदू राष्ट्र में दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रहना होगा. जहाँ उन्हें न तो नागरिकता के अधिकार होंगे, न ही किसी अन्य तरह की सहूलियत प्राप्त होगी.”  साफ है कि जो लोग एनआरसी में अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएँगे और नागरिकता संशोधन कानून के जरिये जिन्हें सुरक्षा नहीं मिलेगी, उनका यही भविष्य होने जा रहा है. 

आरएसएस ने आजादी की लड़ाई में भागीदारी नहीं की लेकिन उसने देश के विभाजन के दौरान साम्प्रदायिक हिंसा में बड़े पैमाने पर भागीदारी की.  

यदि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान इस्लामी देश हैं तो भारत को हिंदू राष्ट्र क्यों नहीं होना चाहिए?

पाकिस्तान इस्लामी गणराज्य है. इस्लाम वहाँ का राज्य-धर्म है. इसी तरह बांग्लादेश और अफगानिस्तान भी इस्लामी राज्य हैं. लेकिन डॉक्टर अम्बेडकर द्वारा बनाया गया भारतीय संविधान भारत को धर्मनिरपेक्ष देश के बतौर परिभाषित करता है जिसका कोई आधिकारिक राज्य-धर्म नहीं है. इसका मकसद भारत की अनेकता में एकता और विलक्षण बहुलतावाद की रक्षा करना था. भारत के कानून और संविधान, धर्म के आधार पर भेदभाव की इजाजत नहीं देते. 

किसी एक संस्कृति को सब पर थोपने की कोशिशों से देश एकजुट नहीं होता बल्कि बँट जाता है. पाकिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है. पाकिस्तान की स्थापना इस्लामी देश के बतौर हुई थी लेकिन बांग्लादेश उससे टूट कर अलग हो गया क्योंकि बांग्लादेश के मुसलमानों को महसूस हुआ कि उन्हें भाषा के आधार पर उत्पीड़ित किया जा रहा है. पाकिस्तान विविधता का सम्मान नहीं कर सका जिसके चलते बांग्लादेश बना. 

यदि आज भाजपा पूरे देश पर ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति, एक धर्म’ थोपने की कोशिश करती है तो भारत के बिखरने का खतरा मौजूद हो जाएगा. विविधता का सम्मान करने से एकजुटता में मदद मिलती है. 

एनआरसी क्या है ? 

प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह कई मौकों पर साफ कर चुके हैं कि एनआरसी ‘अवैध घुसपैठियों’ की पहचान करने और उन्हें बाहर निकालने का औजार है. प्रधानमंत्री मोदी ने अप्रैल 2019 में टाइम्स नाउ को दिये इंण्टरव्यू में खुद ही यह बात कही . अमित शाह ये बार बार कहते आये हैं जैसा कि हम पहले बता चुके हैं. 

विरोध प्रदर्शनों के बाद अब भाजपा कह रही है कि ‘नागरिकता संशोधन कानून भारत के मौजूदा नागरिकों को प्रभावित नहीं करेगा’. लेकिन देश भर में होने वाली एनआरसी देश के हर नागरिक की नागरिकता को संदेह के घेरे में डाल देगी. एनआरसी के मुताबिक ‘नागरिक’ कौन है और ‘अवैध घुसपैठिया’ कौन है? सरकार ने इस मुद्दे पर स्पष्टीकरण दिया है. असम में एनआससी पहले ही हो चुका है इससे हमें अंदाजा मिल जायेगा कि पूरे देश में होने वाला एनआरसी कैसा होगा. 

असम में एनआरसी का अनुभव कैसा रहा ?

असम में एनआरसी के अनुसार केवल उन्हें ही नागरिक माना जायेगा जो निम्न दस्तावेज दिखा सकें 

1.    उनकी पहले की पीढ़ी के लोग 1971 के पहले भारत आ चुके थे. 

2.    मौजूदा पीढ़ी उन्हीं लोगों की वंशज है. 

जाहिर है कि ऐसे दस्तावेज दिखा सकना बहुत मुश्किल था. गरीबों, महिलाओं, ट्रांसजेण्डर लोगों, दलितों, आदिवासियों, प्रवासी मजदूरों और समाज के सबसे कमजोर तबकों के लोगों के लिए यह और भी ज्यादा मुश्किल था. 

इसके चलते 19 लाख से ज्यादा लोग असम की एनआरसी लिस्ट से बाहर हो गये. ये 19 लाख लोग ‘गैरकानूनी घुसपैठिये’ नहीं हैं. ये ऐसे भारतीय हैं जिनके पास अपने पूर्वजों से रिश्ता साबित करने वाले दस्तावेज नहीं हैं. इस तरह असम की एनआरसी एक बड़े मानवीय संकट और त्रासदी में बदल गई है. असम की एनआरसी से कोई भी खुश नहीं है. यहां तक कि भाजपा भी खुश नहीं है. 

इतनी तकलीफदेह प्रक्रिया के बावजूद एनआरसी ‘दूध और पानी को अलग’ नहीं कर सका. यह अंतिम तौर पर तय नहीं हो पाया कि कौन भारतीय है और कौन ‘अवैध घुसपैठिया’. सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में होने के बावजूद यदि एनआरसी इतनी बड़ी तबाही लेकर आया है तो फिर इसे पूरे देश में लागू करने का क्या मतलब है?

पूरे देश में एनआरसी के लिए कट-ऑफ की तारीख क्या होगी ? 

असम में एनआरसी के लिए 24 मार्च 1971 कट-ऑफ तारीख तय की गई थी. इसका कारण था असम समझौते का विशेष प्रावधान जिसमें कहा गया था कि 1971 में बंगलादेश बनने के पहले जो भी लोग असम में प्रवेश कर चुके थे उन्हें नागरिक माना जाये. पूरे देश के लिए इससे मिलती जुलती तारीख 19 जुलाई 1948 हो सकती है. 

तो क्या पूरे देश में एनआरसी के लिए कट-आफ तारीख 19 जुलाई 1948 होगी? 

यह साफ नहीं है. मोदी-शाह सरकार तारीख और दूसरी जानकारियों के मामले में साफ साफ नहीं बोल रही है.

असम एनआरसी की अंतिम लिस्ट को खारिज करते हुए केन्द्र सरकार और असम के भाजपा नेताओं ने कहा था कि पूरे देश में एनआरसी का मतलब है असम में भी एनआरसी की प्रक्रिया फिर से होगी. उन्होंने यह भी कहा कि ‘एक राष्ट्र - एक कट-ऑफ तारीख’. इसका मतलब है कि पूरे देश के लिए कट-ऑफ तारीख या तो 1971 होगी, या उससे पहले का कोई साल जैसे कि 1966, 1961 या 1951. 

एक खबर में बताया गया कि ‘गृह मंत्रालय में सूत्रों ने बताया है कि असम में एनआरसी की तारीख मौजूदा कट-ऑफ 1971 से पहले की तय की जा सकती है. एक अधिकारी ने बताया ‘एक देश में दो अलग अलग तरीके नहीं हो सकते. अगर पूरे देश में एनआरसी होती है तो वही कट-ऑफ तारीख और वही प्रक्रिया असम में भी लागू की जायेगी.’  

एक अन्य खबर में कहा गया कि असम की भाजपा सरकार चाहती है कि 31 अगस्त 2019 को जारी एनआरसी की अंतिम सूची को केन्द्र सरकार खारिज कर दे और नया नागरिकता रजिस्टर बनाने के लिए ‘1971 की जगह 1951 की कट-ऑफ तारीख लागू करे जोकि पूरे देश पर भी लागू हो. 

लेकिन क्या केन्द्र सरकार ने स्पष्ट नहीं कर दिया है कि पूरे देश में होने वाली एनआरसी के लिए वैसे कागजात की जरूरत नहीं होगी जैसे असम की एनआरसी के लिए जरूरी थे? 

देश भर में हो रहे विरोध प्रदर्शनों के चलते केन्द्र सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के बारे में बिना अपने हस्ताक्षर के सवाल-जवाब की शैली में स्पष्टीकरण जारी किया . 

इस स्पष्टीकरण में कहा गया है कि एनआरसी में ‘माता-पिता के द्वारा या माता-पिता के बारे में कोई भी कागज जमा करने की कतई अनिवार्यता नहीं है.’ अपने जन्म का प्रमाणपत्र ही दिखाना काफी होगा. लेकिन उन्होंने एक चोर दरवाजा भी खोल रखा है और कहा है कि ‘कौन से दस्तावेज स्वीकार किये जायेंगे इस पर अभी कोई निर्णय नहीं हुआ है’. 

सरकार का ‘स्पष्टीकरण’ झूठ का पुलिन्दा है. तथ्यों की पड़ताल करते हुए एक पत्रकार ने लिखा है कि ‘भारत का मौजूदा नागरिकता कानून जन्म पर कम और रक्त-सम्बंधों पर ज्यादा आधारित है. यदि कोई किसी व्यक्ति का जन्म 3 दिसम्बर 2004 के बाद भारत में हुआ है तो भी उसे तभी भारतीय नागरिक माना जायेगा जबकि उसके माता-पिता में से कोई एक भारतीय नागरिक हो और दूसरा गैरकानूनी प्रवासी न हो. 1 जुलाई 1987 और 3 दिसम्बर 2004 के बीच भारत में पैदा हुए व्यक्ति को तभी भारतीय नागरिक माना जायेगा जब उसके माता-पिता में से कम से कम एक भारत का नागरिक हो. केवल 1 जुलाई 1987 के पहले भारत में पैदा हुए हर व्यक्ति को भारत का नागरिक माना जायेगा भले ही उसके माता-पिता की कोई भी नागरिकता रही हो. इस तरह 1 जुलाई 1987 के बाद पैदा हुए हर व्यक्ति को अपने माता-पिता में से कम से कम एक की नागरिकता को भी कानूनी तौर पर साबित करना होगा. इसलिए सरकार के स्पष्टीकरण का कोई मतलब नहीं है. असम में एनआरसी के दौरान लोगों को ऐसे कागजात दिखाना जरूरी था जिनके जरिए उनका पिता, या पिता के पिता से रिश्ता साबित हो सके’.   

इतना ही नहीं राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का एक फॉर्म सामने आया है जिसमें माता-पिता की जन्मतिथि और जन्मस्थान का एक अतिरिक्त कॉलम मौजूद है. यह इसीलिए है ताकि एनपीआर के दौरान ‘संदेहास्पद नागरिकों’ की पहचान की जा सके और एनआरसी के दौरान उनसे दस्तावेज मांगे जा सकें. (इस बारे में विस्तार से आगे दिया गया है.)

क्या एनआरसी के लिए वोटर कार्ड, पासपोर्ट, आधार कार्ड जैसे दस्तावेज पर्याप्त होंगे? 

सरकार द्वारा जारी “स्पष्टीकरण” में कहा गया है कि “वोटर कार्ड, पासपोर्ट, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, बीमा के कागजात, जन्म प्रमाण पत्र, स्कूल के प्रमाणपत्र, जमीन या घर सम्बंधी कागजात या सरकारी अधिकारियों द्वारा जारी किया गया कोई अन्य कागज” एनआरसी के लिए स्वीकार किए जाने पर विचार चल रहा है. 

लेकिन 17 दिसम्बर 2019 को एक न्यूज चैनल को दिए गए इंटरव्यू में गृहमंत्री अमित शाह ने खुद ही कहा कि “वोटर कार्ड और दूसरे सरकारी दस्तावेज नागरिकता का प्रमाण नहीं हैं. आधार तो नागरिकता का एकदम ही प्रमाण नहीं है.”    

साफ है कि सरकार अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग बात कह रही है. 

यदि वोटर कार्ड, आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस वगैरह नागरिकता के पर्याप्त सबूत हैं तो इन्हें सरकार के पास जमा करने की क्या जरूरत है? आखिर सरकार ने ही तो ये सारे कागजात जारी किए हैं. 

दूसरे शब्दों में कहें तो लोगों को परेशान करने के अलावा एनआरसी करने की भला और क्या जरूरत है? 

जब भाजपा कहती है कि हम हर “घुसपैठिए” को बाहर करेंगे तो क्या इसका मतलब ऐसे हरेक भारतीय से है नहीं है जिसके पास कुछ खास दस्तावेज नहीं हैं? इनमें मैं या मेरे परिवार का कोई भी हो सकता है?

हाँ. हो सकता है. 

भारत में गरीबों के पास ऐसे दस्तावेज भी नहीं होते कि वे साबित कर सकें कि वे ‘गरीबी रेखा के नीचे’ हैं. इसके चलते बहुत से लोगों के राशन कार्ड नहीं बन पाते. बहुत से गरीबों को को आधार से वंचित कर दिया गया था जिसके चलते उन्हें राशन और पेंशन मिलनी बंद हो गयी. इसके चलते कई लोगों की जानें भी गयीं. 

अब सरकार गरीबों से भारत में रहने का उनका अधिकार भी छीनना चाहती है.   

असम में 19 लाख से ज्यादा लोग एनआरसी लिस्ट से बाहर कर दिए गए. इसलिए नहीं कि वे  “अवैध घुसपैठिए” हैं बल्कि इसलिए कि वे गरीब हैं और उनके पास कागज नहीं था. बहुत से मामलों में पति एनआरसी लिस्ट में हैं तो पत्नी का नाम उसमें नहीं है, माता-पिता का नाम है तो बच्चे का नाम नहीं है. जो लोग एनआरसी लिस्ट से बाहर हैं, उनका भविष्य अभी भी अनिश्चित है. जो लोग एनआरसी लिस्ट से बाहर किए गए हैं उनमें बड़ी तादात हिंदूओं, मुसलमानों, आदिवासियों, महिलाओं और दूसरे राज्यों से आए मजदूरों की है. 

यदि आपका नाम एनआरसी लिस्ट में नहीं है तो क्या आपको डिटेंशन कैम्प में रखा जा सकता है?   

हाँ.

असम में यदि आपको विदेशी पहचान ट्रिब्यूनल ‘संदिग्ध वोटर’ मानता है तो आपको अनिश्चित समय के लिए डिटेंशन कैम्प में रखा जा सकता है. ये डिटेंशन कैम्प जेलों से भी बदतर हैं. 

असम में एनआरसी लिस्ट से बाहर 19 लाख लोगों पर डिटेंशन कैम्प भेजे जाने की तलवार लटक रही है. अब विदेशी पहचान ट्रिब्यूनल के सामने यह साबित करना उन लोगों की जिम्मेदारी है कि वे अवैध घुसपैठिए नहीं हैं. 

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी एक दूसरे से कैसे जुड़े हैं? 

हम पहले चर्चा कर आए हैं कि नागरिकता संशोधन कानून इस तरह बनाया गया है कि वह मुसलमान और गैर-मुसलमान प्रवासियों को अलग कर सके. मुसलमानों को ‘घुसपैठिया’ और गैर-मुसलमानों को शरणार्थी माने, इस तरह गैर-मुसलमानों को नागरिकता प्रदान करे. 

अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून के बारे में बार-बार अपने भाषणों में कहा है कि इस कानून का मकसद एनआरसी से बाहर रह गए हिंदूओं और मुसलमानों को अलग करना है. 

यदि आप मुसलमान हैं और एनआरसी लिस्ट में शामिल होने के लिए आप दस्तावेज नहीं पेश कर पाए तो आपका वोट करने का अधिकार छीन लिया जाएगा और जेलों से भी बदतर डिटेंशन कैम्प में आपको बंद कर दिया जाएगा. 

अगर आप गैर-मुसलमान हैं और एनआरसी लिस्ट में शामिल होने के लिए आप दस्तावेज नहीं पेश कर पाए तो आपका भी वोट का अधिकार छीन कर आपको डिटेशन कैम्प में बंद किया जा सकता है लेकिन मोदी-शाह सरकार ये कह रही है कि यदि आप गैर-मुसलमान हैं तो नागरिकता संशोधन कानून आपको यह मौका देगा कि आप पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए हुए ‘शरणार्थी’ होने का दावा करें और भारतीय नागरिकता के लिए दरखास्त दें. ऐसे में छः साल बाद आपको भारतीय नागरिकता दी जा सकती है. 

अगर मैं बिहार, तमिलनाडु या कर्नाटक का मजदूर हूँ तो मैं कैसे साबित करूँगा कि मैं पाकिस्तान से आया शरणार्थी हूँ? एक भारतीय होने के बावजूद मुझसे ऐसा दावा करने के लिए क्यों कहा जा रहा है? 

एनआरसी से बाहर रह गए गैर-मुसलमानों के लिए ‘सुरक्षा’ या ‘एक और मौका देने’ का यह दावा झूठ है. 

बिहार का प्रवासी मजदूर, छत्तीसगढ़ की आदिवासी महिला या गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश के किसान अपना यह दावा कैसे साबित करेंगे कि वे बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफगानिस्तान के सताए हुए शरणार्थी है?

यह भारतीयों के लिए अपमानजनक है कि सरकार उनके कहे कि वे साबित करें कि वे भारतीय हैं या ये साबित करें कि वे वे बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफगानिस्तान के सताए हुए शरणार्थी हैं. 

साफ है कि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का मकसद मुसलमानों को निशाना बनाना है लेकिन यदि पड़ोसी के घर में आग लगाएँगे तो अपना घर भी जलेगा ही. इसीलिए गैर-मुसलमानों के लिए नागरिकता संशोधन कानून के जरिये दी गयी सुरक्षा का दावा भी खोखला है. 

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी मिलकर हम सब के लिए खतरा पैदा करते हैं. इससे निपटने का एक ही तरीका है कि सभी धर्मों और समुदायों के लोग मिलकर अपने आपको और संविधान को बचाने के लिए एकजुट होकर संघर्ष करें. 

सरकार दावा कर रही है कि नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी का आपस में कोई रिश्ता नहीं है और एनआरसी का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. सच्चाई क्या है? 

खुद अमित शाह ने नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के जुड़े होने की बात बार-बार कही है. 

23 अप्रैल 2019 को भाजपा के आधिकारिक यू-ट्यूब चैनल पर चढ़ाए गए वीडियो में अमित शाह ने कहा कि “पहले नागरिकता संशोधन कानून आएगा. सभी शरणार्थियों को नागरिकता दी जाएगी. तब एनआरसी आएगा. इसीलिए शरणार्थियों को चिंता करने की जरूरत नहीं है. आप क्रोनोलॉजी (क्रम) समझिए.”   

1 मई 2019 को उन्होंने ट्वीट किया कि “पहले हम नागरिकता संशोधन कानून पास करेंगे और गारंटी करेंगे कि पड़ोसी देशों से आए सभी शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाए. इसके बाद एनआरसी बनाया जाएगा और हर एक घुसपैठिए को खोजकर देश से बाहर किया जाएगा.”

अमित शाह के रायगंज पश्चिम बंगाल, के भाषण के बारे में भाजपा के आधिकारिक हैंडिल से ट्वीट किया गया कि “हम पूरे देश में एनआरसी लागू करेंगे. हम बौद्ध, हिंदू और सिखों को छोड़कर हर घुसपैठिए को देश से बाहर करेंगे.” ये ट्वीट यह साफ कर देते हैं कि एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून एक दूसरे से जुड़े हैं और इनका मकसद भाजपा के साम्प्रदायिक एजेंडे को आगे बढ़ाना है. भाजपा ने अब यह ट्वीट हटा दिया है. 

दिल्ली में अपने भाषण में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि उनकी सरकार का देश भर में एनआरसी का कोई इरादा नहीं है. भारत में कोई डिटेंशन कैम्प नहीं है. यह केवल अर्बन नक्सलियों द्वारा फैलायी गयी बात है?

22 दिसम्बर 2019 को दिल्ली के रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी ने नागरिकता संशोधन कानून, देश भर में एनआरसी और इसके खिलाफ चल रहे विरोध-प्रदर्शनों के बारे में बात की. लेकिन उन्होंने अपने भाषण में जो भी दावा किया वह उनके अपने पुराने बयानों और अमित शाह के बयानों से अलग है. इस भाषण में मोदी ने कहा कि -

“मैं अपने 130 करोड़ देशवासियों को बताना चाहता हूँ कि 2014 में मेरी सरकार आने के बाद से लेकर आज तक एनआरसी शब्द पर भी कोई चर्चा नहीं हुई है. हमें इसे असम में लागू करना पड़ा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का ऐसा निर्देश था.”

यह सरासर झूठ है. 2019 के लोकसभा चुनाव में मोदी ने खुद ही कई जगह एनआरसी की बात की और भाजपा के चुनाव घोषणापत्र में भी पूरे देश में एनआरसी कराने का वादा किया गया था. 

19 अप्रैल 2019 को टाइम्स नाओ को दिए गए इंटरव्यू में जब मोदी से देश भर में एनआरसी के बारे में पूछा गया तो उनका जवाब था “कांग्रेस ने असम समझौता किया और एनआरसी का वादा किया था. उन्होंने अपना वादा पूरा नहीं किया. उन्होंने असम के लोगों को मूर्ख बनाया. बाद में सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी के लिए आदेश दिया और हमने ईमानदारी से उस आदेश को लागू किया. एनआरसी का अनुभव बड़ी चिंताजनक तस्वीर पेश करता है. हमें एनआरसी पर चर्चा करनी चाहिए. क्या एक देश धर्मशाला हो सकता है? एनआरसी होना चाहिए या नहीं होना चाहिए? यह सवाल उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जिन्होंने सत्तर साल के बाद भी एनआरसी नहीं किया. उनके मन में पाप है.  

24 अप्रैल 2019 को पश्चिम बंगाल के रानाघाट में चुनावी रैली को सम्बोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून को एक-दूसरे से जोड़ा “हम एक और बड़ा कदम उठाने जा रहे हैं. हम नागरिकता कानून पास करने जा रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस और कम्यूनिस्टों ने संसद में नागरिकता संशोधन कानून को रोक दिया था. इस बार वे हारेंगे. इस बार जीतने के बाद हम ये कानून लाएँगे. इसके साथ ही एनआरसी के जरिये हम घुसपैठियों की पहचान करेंगे ताकि उन्हें उनकी अपनी असली जगह भेजा जा सके.” 

मोदी ने दावा किया कि कांग्रेस और अर्बन नक्सली देश में डिटेंशन कैम्प के बारे में झूठ फैला रहे हैं. जबकि सच्चाई यह है कि “भारत में कोई डिटेंशन कैम्प नहीं है.” 

यह भी सफेद झूठ है. 

मोदी-शाह सरकार के गृह मंत्रालय ने ‘आदर्श डिटेंशन सेंटरध्होल्डिंग सेंटरध्कैम्प मैनुअल’ तैयार किया है.  इस मैनुअल को 09 जनवरी 2019 को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को भेजा गया था. 02 जुलाई 2018 को गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने लोकसभा में बताया कि राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया है कि वे डिटेंशन सेंटर बनाएँ. 

राय ने एक प्रश्न के जवाब में लिखित रूप से राज्य सभा में स्वीकार किया कि असम के छः डिटेंशन कैम्पों में कुल 988 लोग बंद हैं. इनमें से 28 लोगों की डिटेंशन कैम्प के भीतर ही मौत हो चुकी है. 

असम सरकार ने अपनी वेबसाइट पर घोषणा की कि देश का सबसे बड़ा डिटेंशन सेंटर असम के ग्वालपाड़ा में लगभग बन कर तैयार है. इसमें 3,000 लोगों को रखा जा सकता है. इसके अलावा नेरुल, नवी मुम्बई महाराष्ट्र,, कर्नाटक में बंगलुरु के पास और पश्चिम बंगाल के न्यू टाउन व बनगाँव में डिटेंशन कैम्प बन रहे हैं.

रामलीला मैदान में 25 दिसंबर को झूठ बोलकर मोदी किसे मूर्ख बना रहे थे?

मैंने टीवी पर सुना है कि नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध केवल मुसलमान दंगाई कर रहे हैं. वे हिंसा फैला रहे हैं, बसें जला रहे हैं और पत्थरबाजी कर रहे हैं? सच्चाई क्या है? 

झारखंड की चुनावी रैली में मोदी ने कहा कि हिंसा फैलाने वाले प्रदर्शनकारियों को “उनके कपड़ों से पहचाना” जा सकता है. इसका साफ मतलब है कि दाढ़ी और टोपी वाले मुसलमान ही प्रदर्शन कर रहे हैं और हिंसा फैला रहे हैं. 

जबकि हकीकत यह है कि भाजपा शासित राज्यों की पुलिस और भाजपा के अपने गुंडे हिंसा फैला रहे हैं. कई बार तो वे मुसलमानों का हुलिया बना कर हिंसा कर रहे हैं ताकि मुसलमानों को बदनाम किया जा सके. 

1. पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में पुलिस ने एक गाड़ी के इंजन पर पथराव करते पाँच लोगों को गिरफ्तार किया. ये पाँचों गोल टोपी और लुंगी पहने हुए थे. इनमें से एक ने खुद को भाजपा का कार्यकर्ता बताया. 

2. गोरखपुर में आरएसएस सदस्य विकास जालान और सत्य प्रकाश उस भीड़ में शामिल देखे गए जो दुकानों को तहस-नहस कर रही थी और पुलिस पर पथराव कर रही थी. 

3. दिल्ली के मायापुरी में पुलिस लोगों पर पथराव करती देखी जा सकती है. 

4. दिल्ली के दरियागंज में पुलिस वाले एक इमारत की ईंटें तोड़ते हुए कैमरे में कैद हुए. वे ऊपर से पथराव करना चाहते थे ताकि प्रदर्शनकारियों पर इल्जाम लगाया जा सके.

लेकिन भारत की जनता ने प्रधानमंत्री द्वारा मुसलमानों को अलगाव में डालने और उन्हें बलि का बकरा बनाने की कोशिशों को नाकाम कर दिया है. भाजपा ‘बाँटो और राज करो’ के रास्ते पर चल रही है. देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के विद्यार्थी, जामिया मिलिया इसलामिया व अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के समर्थन में सड़क पर उतरे. उन्होंने नागरिकता कानून और एनआरसी का विरोध कर रहे विद्यार्थियों के बर्बर पुलिसिया दमन के खिलाफ आवाज उठायी. उत्तर प्रदेश में मुसलमानों के खिलाफ जारी पुलिसिया बर्बरता का पूरे देश में विरोध हो रहा है. 

यह किताब छापने तक पुलिस की हिंसा में 24 प्रदर्शनकारियों की जानें गयी हैं. बहुत से लोग गम्भीर रूप से घायल हैं. 

फासीवाद के खिलाफ दक्षिण एशियायी छात्र संगठन ने ऐसे सबूत जुटाए हैं, जिनसे पता चलता है कि “बड़े पैमाने पर हिंसा पुलिस और संगठित राजनीतिक गिरोहों के द्वारा अंजाम दी गयी है.”

भाजपा शासित राज्यों में प्रदर्शनकारियों को पुलिस की भयानक बर्बरता का सामना करना पड़ रहा है. लगता है जैसे पूरे मुसलमान समुदाय के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया हैं. चाहे मुसलमान प्रदर्शन में शामिल हों या नहीं. वहीं दूसरी तरफ गैर-भाजपा शासित राज्यों में बड़े पैमाने पर शांतिपूर्ण विरोध-प्रदर्शन हुए हैं, जिनमें लाखों लोग शामिल हुए. इससे साफ है कि भाजपा की सरकारें और उनकी पुलिस हिंसा फैलाने वालों में शामिल हैं, न कि प्रदर्शनकारी हिंसा फैला रहे हैं. 

अगर प्रदर्शनकारी हिंसक भी हों तो क्या पुलिस की हिंसा जायज है?

कुछ लोग प्रदर्शनकारियों की हिंसा दिखा कर पुलिस की हिंसा को जायज ठहराना चाहते हैं. वे कहते हैं कि “प्रदर्शनकारियों ने पत्थरबाजी की तो हमने भी पत्थरबाजी की ख्या गोली भी चलायी,”, “प्रदर्शनकारियों ने पाकिस्तान समर्थक नारे लगाए इसलिए हमने उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहा.”

पत्रकार श्रीनिवासन जैन ने कहा कि “कानून न मानने वाली भीड़ और कानून न मानने वाले पुलिस के जवानों की तुलना करना न केवल साधारण समझदारी के खिलाफ है बल्कि पुलिस के अपने नियमों के भी खिलाफ है.” पुलिस संविधान और नियमों से बँधी होती है. वे “बदला” नहीं ले सकते और उन्हें हरगिज नहीं लेना चाहिए. यही पुलिस संघ परिवार के संगठनों द्वारा की जाने वाली हिंसा के खिलाफ न तो बदले की कार्यवाही करती है और न गोली चलाती है. हमें याद रखना चाहिए कि 2018 में उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में पुलिस इंस्पेक्टर सुबोध कुमार की तथाकथित ‘गौ-रक्षकों’ और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने हत्या कर दी थी. उसी भीड़ ने पुलिस की गाड़ियों में आग भी लगायी थी. लेकिन उत्तर प्रदेश पुलिस ने गौ-रक्षकों और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं पर तो गोली नहीं चलायी और न ही कोई हिंदू मारा गया. उन्होंने पूरे हिंदू समुदाय को नुकसान की ‘भरपाई’ करने के लिए भी मजबूर नहीं किया. उन्होंने आरोपित को ‘मुठभेड़’ में नहीं मारा. तो फिर मुसलमान या लोकतंत्र-समर्थक प्रदर्शनकारियों के साथ ये सब करने का अधिकार वे कहाँ से पाते हैं? 

पुलिस ने मेरठ और मुजफ्फरनगर में जो कुछ किया, वह उनके अधिकार-क्षेत्र में नहीं आता. मेरठ के एसपी अखिलेश नारायण सिंह मुसलमानों को ‘पाकिस्तान जाओ’ कहते हुए वीडियो में कैद हुए.   मुजफ्फरनगर में पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों ने उन मुसलमानों के घर तबाह कर दिए और उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहा जो प्रदर्शनों में शामिल भी नहीं थे.  पुलिस के ये कारनामे मनुष्यता के खिलाफ अपराध हैं और भारत के संविधान के विरुद्ध हैं. इन्हें कड़ी सजा मिलनी चाहिए. 

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) के लिए फंड स्वीकृत किया है. अमित शाह का कहना है कि एनपीआर और एनआरसी एक-दूसरे से नहीं जुड़े हैं. क्या यह सच है?

अमित शाह और मोदी झूठ बोल रहे हैं कि एनआरसी अभी शुरू नहीं हुआ है और एनपीआर का एनआरसी से कोई रिश्ता नहीं है. जबकि सच्चाई यह है कि अमित शाह के गृह मंत्रालय ने कई बार स्पष्ट किया है कि एनपीआर, एनआरसी की दिशा में उठाया गया पहला कदम है. 

18 जून 2014 को मोदी सरकार के प्रेस इंफारमेशन ब्यूरो के  आधिकारिक ट्विटर से उस समय के गृह मंत्री के बयान के बारे में बताया कि “श्री राजनाथ सिंह ने एनपीआर को उसके तार्किक अंजाम तक पहुँचाने का निर्देश दिया है. एनपीआर भारतीय नागरिकों का राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरआईसी) है.” 

26 नवम्बर 2014 के गृह मंत्रालय के प्रेस वक्तव्य में साफ कहा गया कि “एनपीआर भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम है. इसमें हर भारतीय नागरिक की जाँच की जाएगी.”

21 अप्रैल 2015 को गृह राज्य मंत्री हरिभाई परातीभाई चौधरी ने राज्यसभा में एक सवाल का जवाब देते हुए कहा कि “यह तय किया गया है कि राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को पूरा करके उसे उसके अंजाम तक पहुँचाया जाय.  यह भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर का निर्माण है.” 

साल 2018-19 की गृह मंत्रालय की वार्षिक रपट में पृष्ठ संख्या 262 पर कहा गया है कि “एनपीआर भारतीय नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर की दिशा में बढ़ाया गया पहला कदम है.”

जैसा कि हम पहले देख चुके हैं कि वाजपेयी सरकार 2003 में राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर (एनपीआर) का प्रावधान लायी जिसके आधार पर कुछ नागरिकों को ‘संदिग्ध’ घोषित किया जा सकता है, और उन्हें राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) में अपना नाम शामिल कराने के लिए कागजात दिखा कर अपनी नागरिकता साबित करनी होगी. ऐसा न कर पाने की स्थिति में उन्हें ‘गैरकानूनी प्रवासी’ घोषित किया जा सकता है. वर्ष 2003 के संशोधन में माता-पिता में किसी एक के ‘गैरकानूनी प्रवासी’ होने के बाद नागरिकता छीन लेने का प्रावधान भी है. यानी कि वाजपेयी सरकार द्वारा 2003 में लाये जाने के समय से ही एनपीआर और एनआरसी आपस में जुड़े हुए हैं.

अब सरकार झूठ क्यों बोल रही है? अब सरकार के एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून के साम्प्रदायिक मंसूबों का भंडाफोड़ हो चुका है. हिंदू-मुसलमान और अन्य सभी एनआरसी द्वारा उनकी नागरिकता पर सवाल खड़े किए जाने से डरे हुए हैं. इसलिए मोदी-शाह सरकार एनआरसी को पीछे छुपाकर नागरिकता संशोधन कानून का बचाव करना चाहती है. साथ ही साथ वे एनपीआर शुरू करके एनआरसी बाद में करने की योजना बना रहे हैं. 

पत्रकार शिवम् विज ने कहा कि “मोदी और शाह नागरिकता संशोधन कानून, एनपीआर, एनआरसी, एनआरआईसी के बारे में लगातार झूठ बोल रहे हैं ताकि इनके बारे में उठी आपत्तियों और आशंकाओं को दबाया जा सके. लेकिन इनकी योजना चालू है. ये उसी तरह है जैसे डॉक्टर बच्चे को फुसलाता है कि इंजेक्शन से दर्द नहीं होगा.” 

लेकिन एनपीआर तो पहले की सरकारों द्वारा भी किया गया है. इस बार यह अलग कैसे है? 

वाजपेयी सरकार द्वारा पारित 2003 के कानून के हिसाब से यूपीए सरकार ने एनपीआर बनवायी थी. यह उसकी गलती थी. लेकिन उसके बाद उसने न तो एनआरसी बनवाया, और न ही साम्प्रदायिक मंसूबों से भरा कोई नागरिकता संशोधन कानून पास कराया.

इस बार एनपीआर के फॉर्म में एक कॉलम अलग से जोड़ा गया है जिसमें माता-पिता के जन्म की तारीख, और जगह भरनी होगी. इससे साफ है कि एनपीआर के जरिये ‘संदिग्ध नागरिकों’ की पहचान की जाएगी और एनआरसी के दौरान उनसे दस्तावेज माँगे जाएँगे. हम पहले बात कर चुके हैं कि सरकार द्वारा जारी किया गया स्पष्टीकरण माता-पिता के जन्म सम्बंधी दस्तावेज माँगने के बारे में झूठ बोल रहा है. यदि माता-पिता का जन्म स्थान और जन्मतिथि जरूरी नहीं है तो फिर एनपीआर के जरिये यह डेटा क्यों इकट्ठा किया जा रहा है? 

यूपीए की सरकार ने संविधान विरोधी एनपीआर को लागू करने की गलती की, लेकिन इसका मतलब यह तो बिल्कुल नहीं हो सकता कि मोदी-शाह सरकार भी उस गलती को जरूर करे. उस समय यूपीए सरकार ने एनआरसी या सीएए के बारे में कोई चर्चा नहीं की, इसीलिए हम भारत के लोगों को एनपीआर के खतरों का अहसास नहीं हो पाया. आज केवल कांग्रेस या यूपीए नहीं, बल्कि हम भारत के लोग वर्तमान सरकार की सीएए-एनपीआर-एनआरसी योजना का विरोध कर रहे हैं. क्योंकि हम अब जान चुके हैं कि यह योजना हमारे खिलाफ एक खतरनाक साजिश है; और हम किसी भी सरकार को इसे लागू नहीं करने देंगे.  

किस आधार पर मुझे ‘संदिग्ध नागरिक’ घोषित किया जा सकता है?

इसकी प्रक्रिया मनमानी है. किसी को ‘संदिग्ध नागरिक’ घोषित करने के बारे में दिशा-निर्देश स्पष्ट नहीं हैं. 

इसका मतलब हुआ कि इसमें भ्रष्टाचार की बड़ी गुंजाइश है. कोई स्थानीय अधिकारी आपको ‘संदिग्ध’ घोषित कर सकता है और ‘संदिग्ध’ न घोषित करने के लिए घूस माँग सकता है. ख्हम पहले ही देख चुके हैं कि उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर में न मारने के लिए पुलिस वाले पैसा माँग रहे हैं., ऐसे ही भ्रष्ट पुलिस अधिकारी या अन्य अधिकारी आपको ‘संदिग्ध’ घोषित करने की धमकी देकर घूस की माँग कर सकते हैं. यदि आपके पड़ोसी, आपकी जाति, जेंडर, लैंगिकता और राजनीतिक विचारधारा के चलते आपको पसंद नहीं करते तो वे आपको ‘संदिग्ध’ बताते हुए रिपोर्ट कर सकते हैं. कोई साम्प्रदायिक संगठन किसी पूरे धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय को ‘संदिग्ध’ कहकर रिपोर्ट कर सकता है. 

याद रखिए एनआरसी लिस्ट में नाम आने के बाद भी आप पर ‘संदिग्ध’ होने का आरोप लग सकता है. असम में ऐसा ही हुआ. नियमों के मुताबिक स्थानीय नागरिकता रजिस्टर में किसी भी व्यक्ति को शामिल किए जाने के खिलाफ कोई भी व्यक्ति आपत्ति दर्ज कर सकता है. इस नियम का दुरुपयोग किए जाने की भारी सम्भावना है. खासकर तब जबकि भारतीय जनता का एक बड़ा हिस्सा अशिक्षित, गरीब और कमजोर है. 

एनपीआर का डेटा कितना सुरक्षित रहेगा? 

एनपीआर 2020 के फॉर्म में आपको अपने सभी पहचान पत्रों, जैसे कि आधार, पैन, वोटर कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि का नम्बर देना होगा. आपको अपना मोबाइल नम्बर भी देना होगा. आपके दरवाजे पर आए हुए सरकारी कर्मचारी को एक बार जब आप ये सारी सूचनाएँ दे देंगे और वह उन्हें एक फॉर्म में नोट कर लेगा, उसके बाद इन महत्वपूर्ण सूचनाओं की गोपनीयता की सुरक्षा का कोई उपाय आपके हाथ में नहीं होगा. हम पहले भी देख चुके हैं कि कई बार आधार का डेटा लीक हो गया. भले ही ये दावा किया जाता रहे कि आधार डेटा की सुरक्षा दीवार को भेदना असंभव है. 

एनपीआर में तो इन सूचनाओं की सुरक्षा के लिए किसी ‘पासवर्ड’ का दिखावा भी नहीं किया गया है. आपको ये सभी सूचनाएँ घर आए कर्मचारी को देनी होंगी. आपको नहीं पता कि ये सारी सूचनाएँ किस मकसद से और कौन इस्तेमाल करेगा. किसी व्यक्ति या समूह के बारे में सारी सूचनाएँ फोटोकॉपी करके ऐसे लोगों को भी दी जा सकती हैं जो इनका इस्तेमाल अपने मुनाफे के लिए करें. सम्भव है कि आप की निजी और महत्वपूर्ण जानकारी मोहल्ले की किसी दुकान पर फोटोकॉपी के लिए मौजूद हो. सत्ता में बैठी पार्टी की पहुँच इन सारी सूचनाओं तक होगी. यह भारतीय लोकतंत्र की सेहत के लिए बड़ा खतरा है. हमें अपनी निजी सूचनाएँ किसी सरकारी कर्मचारी को देने के लिए मजबूर क्यों होना चाहिए? 

सरकार का यह बहाना कि ये सभी सूचनाएँ देना अनिवार्य नहीं है, सच्चाई से परे हैः 

1. इन सूचनाओं के लिए बने कॉलम में लिखा है कि ‘यदि मौजूद है’. वहाँ यह नहीं लिखा है कि यह वैकल्पिक है. इसका क्या मतलब है? क्या कोई व्यक्ति सच्चाई से कह सकता है कि उसके पास ड्राइविंग लाइसेंस या पैन कार्ड या वोटर कार्ड है लेकिन इनके नम्बर मौजूद नहीं हैं? ऐसा करने पर उसपर झूठ बोलने का मुकदमा चलाया जा सकेगा! 

2. दूसरे आम नागरिकों से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वे अनिवार्य और ऐच्छिक सूचना के बारे में बारीक अंतर समझ सकें. वे आमतौर पर सभी पर भरोसा करते हैं और जब कोई सरकारी कर्मचारी उनके पास आएगा तो वे ईमानदारी से अपनी सारी सूचनाएँ उसे दे देंगे. वे इन महत्वपूर्ण सूचनाओं के इस्तेमाल की खतरनाक सम्भावनाओं के बारे में नहीं समझ सकेंगे. सरकार हमारे नागरिकों के इसी भरोसे पर दाँव लगा रही है और ‘यदि मौजूद है’ जैसा कॉलम जोड़ रही है. 

3. तीसरे हमें कैसे यकीन हो कि इस सर्वेक्षण में लगे हुए सरकारी कर्मचारी ऐसी सूचनाएँ देने से इनकार करने वालों के खिलाफ टिप्पणियाँ नहीं करेंगे? हम जानते हैं कि एनपीआर के मैनुअल में उन लोगों से पूछताछ का प्रावधान किया गया है जिनके फॉर्म अधूरे पाए जाएँगे या जिनके खिलाफ टिप्पणियाँ की गयी होंगी. इस तरह लोगों को और भी परेशान किया जाएगा और उन्हें ‘संदिग्ध नागरिक’ की श्रेणी में डॉल दिया जाएगा. सच है कि परेशान करने का डर दिखा कर सरकारी कर्मचारी कोई भी सूचना निकाल लेंगे. 

यदि मुझे ‘संदिग्ध’ घोषित कर दिया गया तो क्या होगा?  

जिलाधिकारी ‘संदिग्ध’ नागरिकों को विदेशी पहचान ट्रिब्यूनल के पास भेज देगा. इन ट्रिब्यूनलों के मुखिया ऐसे लोग होते हैं जिनके पास कोई न्यायिक अनुभव नहीं होता. असम में विदेशी पहचान ट्रिब्यूनल आपस में प्रतियोगिता कर रहे थे कि कौन “ज्यादा विकेट गिराता है” यानी कौन ज्यादा लोगों को विदेशी घोषित करता है?  

एक बार आपको ‘संदिग्ध’ या ‘विदेशी’ घोषित कर दिया गया तो आपको जेलों से भी बदतर डिटेंशन कैम्पों में भेजा जा सकता है. 

वकीलों की एक रिसर्च टीम ने लिखा, “मौजूदा कानून के अनुसार नागरिकता साबित करने की जिम्मेदारी हर व्यक्ति की होगी. इसलिए एनआरसी अधिकारियों द्वारा अपनी ताकत के गलत इस्तेमाल के परिणाम बहुत ही भयावह होंगे जिसमें किसी भी व्यक्ति को अवैध घोषित कर दिए जाने का खतरा होगा. जो भी भारतीय सत्ता, कागजात बनवाने और सामाजिक हैसियत में जितना कम होगा, उसके प्रभावित होने की संभावना उतनी ही अधिक है.”

अखबारों में ऐसी बहुत सी परस्पर विरोधी खबरें हैं कि लोगों को बैंक खातों के केवाईसी दस्तावेज में अपना धर्म बताना होगा. सरकार ने इससे इनकार किया है. सच्चाई क्या है?

टाइम्स ऑफ इंडिया में खबर छपी कि “नागरिकता संशोधन कानून की तरह ही भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा 2018 में जारी फॉरेन एक्सचेंज मैनेजमेंट रेगुलेशंस केवल पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए लम्बी अवधि के वीजाधारक अल्पसंख्यक समुदायों यानी हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई तक सीमित हैं. ये लम्बी अवधि के वीजाधारक भारत में बैंक खाते खोल सकते हैं और रिहायशी सम्पत्ति खरीद सकते हैं. इस कानून में नास्तिकों, मुसलमान प्रवासियों और म्यांमार, श्रीलंका व तिब्बत से आए लोगों को शामिल नहीं किया गया है.”  

सरकार ने इससे इनकार करते हुए तत्काल स्पष्टीकरण जारी किया कि “किसी भी भारतीय नागरिक को बैंक में खाता खोलने के लिए अपना धर्म बताने की जरूरत नहीं है.” 

ये सरकार हमें आधा सच बोलकर उसी तरह मूर्ख बनाने की कोशिश कर रही है जैसे महाभारत में युधिष्ठिर ने ‘अश्वत्थामा हतो, नरो वा कुंजरो वा’ कहा था. 

‘नागरिक’ कौन है? एनआरसी और नागरिकता संशोधन कानून लोगों से नागरिकता छीनने की कोशिशें हैं. जिनकी नागरिकता छीनी जाएगी, उनमें से जो गैर-मुसलमान होंगे, वे नागरिकता संशोधन कानून के जरिये नागरिकता के लिए आवेदन कर सकेंगे. जब तक उन्हें फिर से नागरिकता हासिल नहीं होती, तब तक पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए हुए केवल गैर-मुसलमान शरणार्थी ही लम्बी अवधि का वीजा हासिल कर पाएँगे और इसके जरिये ही उन्हें बैंक खाता खोलने जैसे तमाम अधिकार मिलेंगे. 

हम पहले चर्चा कर आए हैं कि 29 दिसम्बर 2011 की अधिसूचना के जरिये यूपीए सरकार ने शरणार्थियों को लम्बी अवधि के वीजा के लिए आवेदन करने का स्टैंडर्ड आपरेटिंग प्रोसीजर जारी किया था. जिन्हें लम्बी अवधि का वीजा मिल जाएगा, वे बैंकों में खाते खोल सकेंगे, पैन कार्ड. आधार कार्ड व ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकेंगे और यहाँ तक कि घर खरीद सकेंगे. मोदी-शाह सरकार ने 2015 में पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान से आए गैर-मुसलमान शरणार्थियों के लिए लम्बी अवधि के वीजा की नयी कोटि शुरू की. इसीलिए केवाईसी में धर्म का कॉलम शुरू किया गया. 

यदि मैं भारतीय हूँ तो सरकार के सामने अपनी नागरिकता साबित करने से क्यों घबराऊँ? सरकार को यह हक है कि वह हमसे कभी भी दस्तावेज माँग सकती है.

लोकतंत्र का मतलब है कि हम भारत के लोग सरकार को चुनते हैं दृ सरकार का काम जनता को चुनना नहीं है. हमारी नागरिकता दस्तावेजों के आधार पर नहीं दृ बल्कि इससे तय होती है कि भारत के संविधान को हम पूर्णता में ग्रहण करके उस पर पूरी तरह अमल करते हैं या नहीं.

सरकार और संसद हमारे वोटों से चुनी गई हैं. यदि सांसदों और सरकार को चुनने वाले मतदाताओं की नागरिकता ‘संदिग्ध’ है, तब तो सरकार और संसद भी संदिग्ध हो गये - ऐसे में सरकार और सांसदों को पहले इस्तीफा दे देना चाहिए! हमने जिस सरकार और जिन सांसदों को चुना है उन्हें कागजातों के आधार पर हमारी नागरिकता- और अपने देश से हमारे रिश्ते - पर सवाल खड़ा करने का कोई अधिकार नहीं है. 

भारत का संविधान ‘हम भारत के लोग’ से शुरू होता है. सभी शक्तियाँ भारत के लोगों में निहित हैं और वे ही भारतीय संप्रभुता की बुनियाद हैं. लोग संविधान के अनुरूप सरकार का चुनाव करते हैं और सरकार संविधान की रक्षा करने के लिए बाध्य है. 

मौजूदा सरकार इस सम्बंध को पूरी तरह उलट देने पर आमादा है. अब जनता, सरकार को जवाबदेह ठहराए, इसकी जगह अब सरकार लगातार जनता से जवाबदेही की माँग कर रही है. नोटबंदी के दौरान जनता पर जवाबदेही डाल दी गयी कि वह साबित करे कि उसका पैसा कानूनी तरीके से कमाया गया है. यूएपीए के तहत नागरिकों पर यह जिम्मेदारी डाली गयी कि वे साबित करें कि वे आतंकवादी नहीं हैं या किसी गैर-कानूनी गतिविधि में लिप्त नहीं हैं. अब नागरिकता कानून और एनआरसी के जरिये हमें ही साबित करना है कि हम भारत के वैध नागरिक हैं. 

एडवोकेट गौतम भाटिया ने इसे समझाते हुए कहा कि “एक अपराध की घटना को हल करने के लिए आप यह नहीं करते कि इलाके के हर व्यक्ति को थाने में ले आएँ और उनसे साबित करने के लिए कहें कि उन्होंने ये अपराध नहीं किया है. कुछ बिना दस्तावेज के प्रवासियों को खोजने के लिए आप 130 करोड़ भारतीयों को स्थानीय सरकारी कर्मचारियों के सामने पेश नहीं कर सकते और उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते.”

भारत के नागरिक के बतौर हमें यह अधिकार है कि हम सरकार से दस्तावेजों और सूचनाओं की माँग करें और सरकार उन्हें हमें दे. लेकिन मोदी सरकार ने हमेशा इससे इनकार किया है. 

मोदी की डिग्री? 

सरकारः कागज नहीं दिखाएँगे.

चुनावी बॉन्ड से मिले पैसे की जानकारी? 

सरकारः कागज नहीं दिखाएँगे.

जीडीपी?

सरकारः कागज नहीं दिखाएँगे.

रफाएल सौदे के कागज? 

सरकारः कागज नहीं दिखाएँगे.

बेरोजगारी का आँकड़ा?

सरकारः कागज नहीं दिखाएँगे.

तब सरकार की इतनी हिम्मत कैसे हो रही है कि वह हमें परेशान करे और अपनी नागरिकता साबित करने के लिए मजबूर करे? 

एनआरआईसी पर कितना खर्चा होगा? 

असम में एनआरसी करने में 10 साल का समय और 52 हजार कर्मचारी लगे. इसमें कुल खर्च आयाः 1,600 करोड़ रूपए. निर्दोष और गरीब लोगों को हुई परेशानी और तकलीफों का तो कोई हिसाब ही नहीं है. पूरे देश में होने वाले एनआरसी पर कम से कम 50 हजार करोड़ रूपए खर्च होंगे. साथ ही पूरे देश के लोगों को अगले दस साल तक अपनी नागरिकता साबित करने की गैर-जरूरी और क्रूर कवायद के लिए दस्तावेज जुटाने में बिताने होंगे. 

नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी पर पैसा क्यों बर्बाद किया जाए? इसकी जगह सरकार बेरोजगार लोगों का आँकड़ा क्यों नहीं जुटाती? सरकार बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता या नौकरियाँ देने की बात क्यों नहीं करती? 

साफ है मोदी सरकार ने नागरिकता को खतरे में डालने और मुसलमानों के साथ भेदभाव करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है. इसे रोकने के लिए हमें क्या करना चाहिए? 

डॉक्टर अम्बेडकर द्वारा बनाया गया भारत का संविधान मुसलमान- हिंदू- सिख- ईसाई- जैन- बौद्ध- यहूदी, सब को बराबर मानता है. आरएसएस को हमेशा ही इस संविधान से नफरत रही है. भाजपा हमारे मन में जहर घोलना चाहती है और भारत को हिंदू-मुसलमान में बाँटना चाहती है. ऐसा बँटवारा देश को कमजोर कर देगा जिससे सब को नुकसान पहुँचेगा. पड़ोसी के घर में आग लगाने से अपना घर भी जलेगा. हमें एकजुट होना होगा, और अपना देश बचाना होगा. 

नोटबंदी ने नौकरियाँ खा लीं और अर्थव्यवस्था को गर्त में धकेल दिया. हमें सरकार को नयी तबाही लाने से रोकना होगा. इस नयी तबाही से हमारे संविधान को खतरा है और देश के बँटने की आशंका है. 

आज मुसलमान-हिंदू-सिख-ईसाई, हर भारतीय, हर भाषा और धर्म को मानने वाला विरोध प्रदर्शनों में मौजूद है. वे भारत के लोकतंत्र और संविधान को बचाने के लिए एकजुट हैं. 

क्या मोदी हिटलर के नागरिकता कानून की नकल कर रहे हैं? 

हिटलर की नाजी पार्टी ने सत्ता में आने के दो साल बाद ही जर्मनी की नागरिकता को तय करने के लिए नए कानून बनाए थे. न्यूरेमबर्ग कानूनों की शुरुआत यहूदियों और गैर-यहूदियों को अलग-अलग करने से हुई थी. बाद में इसमें बहुत सारी और धाराएँ जोड़कर उन सबको शामिल कर लिया गया जिन्हें सरकार ‘अवांछनीय’ समझती थी. इससे सिर्फ यहूदियों के ही जनसंहार का रास्ता साफ नहीं हुआ बल्कि मूलनिवासियों, समलैंगिकों, विकलांगों, नाजी सरकार के आलोचकों, कम्यूनिस्टों और जो भी जर्मन सरकार की आँखों में देश के दुश्मन थे, उन सब के जनसंहार का रास्ता साफ हुआ. अखबारों और रेडियो के जरिये नाजी प्रचार ने पहले ही वह पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी जिसके चलते घेट्टो और यातना-शिविर बनाए गए. 

हमें याद रखना चाहिए कि आरएसएस हमेशा ही भारत के संविधान से नफरत करता रहा है और हिटलर की विभाजनकारी नीतियों का मुरीद रहा है. गोलवलकर ने जर्मनी में यहूदियों के जनसंहार (जिसके कारण आज जर्मनी और पूरी दुनियां का सर शर्म से झुक जाता है) को “जर्मन नस्ल का गौरव” और “हिंदुस्थान के लोगों को उससे शिक्षा ग्रहण करने और लाभ उठाने लायक” कहा था. उसने यह भी कहा था कि मुस्लिम, ईसाई, सिख एवं अन्य अल्पसंख्यकों को “३या तो हिंदू संस्कृति और भाषा स्वीकार करनी होगी, हिंदू धर्म का सम्मान करना सीखना होगा, उन्हें हिंदू नस्ल और संस्कृति का यशोगान करने के अलावा कोई और विचार नहीं लाना होगा, उन्हें इस हिंदू राष्ट्र में अपनी अलग पहचान छोड़नी होगी और हिंदू नस्ल में घुल जाना होगा, या फिर उन्हें हिंदू राष्ट्र में दोयम दर्जे के नागरिक की तरह रहना होगा. जहाँ उन्हें न तो नागरिकता के अधिकार होंगे, न ही किसी अन्य तरह की सहूलियत प्राप्त होगी.” 

आज मोदी-शाह सरकार गोलवलकर के विभाजनकारी विचारों को साकार करना चाहती है. इस प्रक्रिया में वे उस दुरूस्वप्न को भी साकार रूप दे रहे हैं जिसकी चेतावनी अम्बेडकर ने 1940 में दी थीः “यदि हिंदू राज हकीकत बन गया तो यह देश के लिए भारी तबाही लाएगा.”

आज यह तबाही हकीकत बनाने वाली है. याद रखना चाहिए कि हिंदू राज केवल मुसलमानों के लिए तबाही नहीं लाएगा, यह दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, गरीब मजदूरों, किसानों, सबके लिए तबाही लाएगा. यह तानाशाही होगी. 

हमारे पास अब भी इस तानाशाही को, हिटलरशाही को, हकीकत बनने से रोकने का मौका है. हम अश्फाकउल्ला खान और रामप्रसाद बिस्मिल की साझी शहादत की विरासत को बुलंद करते हुए अपनी साझी नागरिकता की रक्षा कर सकते हैं. 

इस तबाही को रोकने और देश व संविधान को बचाने के लिए हम क्या कर सकते हैं? 

तथ्य जानिए, तैयार रहिए, अपने दोस्तों और परिवार के लोगों को शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों में शामिल कराइए. 

हर सड़क, गली, गाँव, मोहल्ले, चैराहे, नगर, शहर में लोगों को संगठित करिए किः

1ः नागरिकता संशोधन कानून को खत्म करने की माँग करें.

2ः अपनी राज्य सरकार से माँग करें कि वह एनपीआर की प्रक्रिया पर तत्काल रोक लगाए और एनआरसी लागू करने से इनकार कर दे. अपने स्थानीय विधायक से सम्पर्क करिए और गारंटी करिए कि राज्य विधानसभा इस सिलसिले में प्रस्ताव पारित करे. याद रखिए, एनआरसी के खिलाफ बयान देना काफी नहीं है. राज्य सरकारों को एनपीआर की चल रही प्रक्रिया पर तुरंत रोक लगानी होगी. 

3ः माँग करिए कि केंद्र व राज्य सरकारें बन रहे डिटेंशन कैम्पों का काम तुरंत रोक दें. 

4ः ‘दरवाजा बंद’ अभियान चलाइए. यह एक सामूहिक सत्याग्रह है. जब कर्मचारी एनपीआर के लिए सूचना इकट्ठी करने आएँ तो अपने घर का दरवाजा बंद कर लें. याद रखिए कि वे आपको नौकरी, घर या कोई सुविधा देने के लिए जानकारी इकट्ठी नहीं कर रहे हैं बल्कि वे आपकी नागरिकता छीनने और देश को धर्म के आधार पर बाँटने की प्रक्रिया में लगे हुए हैं. आजादी की लड़ाई के दौरान जैसे स्वतंत्रता सेनानियों ने सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया था, उसी तरह आज हम भारतवासियों को अपना देश और संविधान बचाने के लिए सत्याग्रह करना होगा. एनपीआर के लिए अपना दरवाजा बंद करके हम फासीवाद और तानाशाही के लिए दरवाजा बंद कर रहे हैं. 

5ः अगर आप मुसलमान नहीं हैं, तो साम्प्रदायिक गुंडों और पुलिस की हिंसा झेल रहे अपने पड़ोसी मुसलमान भाइयों की मदद कीजिए. सार्वजनिक जगहों पर मुसलमान पड़ोसियों के साथ जाइए. हिंसा और उत्पीड़न का सामना करने की हालत में आपातकालीन सम्पर्क के लिए उन्हें अपना फोन नम्बर दीजिए. घृणा फैलाने की हर घटना के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से अपनी आवाज उठाइए. चुप मत बैठिए. हिंसक मत होईए. प्यार और सच्चाई के पक्ष में खड़े होईए.

भाकपा(माले) द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से