उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (औद्योगिक मजदूर) में श्रमिक विरोधी बदलाव  औद्योगिक मजदूरों के महंगाई भत्ता पर केंद्र सरकार का हमला

(मजदूरों पर हमलों की कड़ी में, यह कोरोना दौर में मोदी सरकार का एक और बड़ा हमला है यानी औद्योगिक मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना के वास्ते आधार वर्ष को मौजूदा 2001 से बदल कर 2016 करना और इसमें मजदूर विरोधी प्रावधान करना. यह औद्योगिक मजदूरों के महंगाई भत्ता पर केंद्र सरकार का सीधा हमला है. सरकार द्वारा इस संबंध में भेजे गए पत्र एवं दस्तावेजों और उन पर मांगे गए सुझावों का केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के संयुक्त मंच द्वारा दिया गया जवाब, नीचे प्रस्तुत है.)

औद्योगिक मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-आईडब्लू) की गणना के वास्ते आधार वर्ष (बेस ईयर) को बदलने यानी 2016 करने की सरकार की जल्दबाजी के संबंध में, देश के औद्योगिक मजदूरों की अधिसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाली लगभग सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों और उनसे संबद्ध संगठनों का ये विचारपूर्ण मत है कि सरकार को इस प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ाना चाहिए क्योंकि पहले से ही चलाई जा रही इस प्रक्रिया में ही ढेर सारी विसंगतियां और कमियां हैं. यहां उन्हीं कुछ विसंगतियों और कमियों को हमारी ओर से उजागर किया जा रहा है:

  1. अब ये प्रस्ताव किया गया है कि आधार वर्ष को 2016 में बदल दिया जाएगा. ट्रेड यूनियनों से कभी भी इस बारे में बातचीत नहीं की गई. दूसरे जुलाई 2020 तक, लेबर ब्यूरो की वेबसाइट में लगातार यही दिखाई दे रहा था कि ”2013-14” को परिवर्तित आधार वर्ष बनाने पर काम चल रहा है. अब इसकी जगह 2016 का प्रस्ताव क्यों लाया गया है, खासतौर पर तब, जबकि खुद लेबर ब्यूरो ने ये कहा था कि साल 2016, नवंबर 2016 में नोटबंदी के झटके के चलते, की आखिरी चैथाई में सभी चीजों की मूल्य दरें प्रभावित हुई हैं? ट्रेड यूनियनों के साथ पहले से ही सलाह करना बहुत आवश्यक था, लेकिन इससे पूरी तरह बचा गया.
  2. कार्य पद्धति: बास्केट (टोकरी) में जो खाद्य उत्पाद होते हैं उनके लिए सार्वजनिक वितरण व्यवस्था (पीडीएस) के तहत उपलब्ध मूल्यों के आधार पर गणना को विचार में लिया गया है. लेकिन उस स्तर के मजूदरों की बहुसंख्या, जिनके लिए इस सीपीआई श्रेणी को बनाया गया है, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के दायरे (कवरेज) से बाहर रहते हैं, जहां कहीं भी इस तरह की सार्वजनिक वितरण व्यवस्था कार्यरत है; बल्कि असल में बेहद ढीली-ढाली, अप्रभावी व्यवस्था के चलते ज्यादातर राज्यों मे ंतो सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का अस्तित्व ही नहीं दिखता. इसीलिए ऐसा कोई भी अभ्यास जो सार्वजनिक विरतण प्रणाली पर आधारित मूल्यों से जमा किया गया हो तो वो निश्चित रूप से ग़लत होगा, जिससे निश्चित तौर पर असल मूल्य गति का भारी अधोमूल्यांकन होगा, नतीजतन मजदूरों को लगातार नुकसान होगा. इसलिए पूरे देश में खुले बाजारों से, सभी औद्योगिक केन्द्रों और इलाकों से ऐसी व्यवस्था के ज़रिए मूल्य इक्ठ्ठा करना होगा, जिस पर मजदूरों का भरोसा हो और उसे इस पूरे अभ्यास का आधार बनाना होगा. यहां ये बात खासतौर पर ध्यान रखने वाली है कि रूल्स के मसौदे में वेज कोड ऐक्ट के अंतर्गत, जिसे मंत्रालय ने तैयार किया है, न्यूनतम वेतन निर्धारित करने के लिये बाजार के मूल्यों को संदर्भ बनाया गया ना कि पीडीएस के मूल्यों को इसी संदर्भ में, हम आपके ध्यान में इस तथ्य को भी लाना चाहते हैं कि हर सरकार में जब भी औद्योगिक मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना में आधार वर्ष में बदलाव किया गया है, ट्रेड यूनियन आंदोलन लगातार अन्य मुद्दों के साथ इस पहलू को भी उठाता रहा है. लेकिन ट्रेड यूनियन आंदोलन के मतों और ठोस सलाहों को हमेशा ही अनदेखा किया गया है.  
  3. बेस ईयर को बदलने और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गलत गणना को जारी रखने की कवायद बास्केट में मौजूद तमाम आवश्यक उत्पादों के बढ़ते मूल्य के असल प्रभाव को बहुत कम करके आंकने पर लक्षित है ताकि मजदूरों को उनके समुचित महंगाई भत्ते के अधिकार से वंचित किया जा सके. ये रिकार्ड में है, जिसका पुनर्परीक्षण किया जा सकता है कि हर बार सीपीआई के आधार वर्ष के बदलाव के मौके पर, संशोधित उपभोक्ता मूल्य सूचकांक, वो चाहे आधार वर्ष के संशोधन के बाद की किसी भी तारीख या दौर का हो, बहुत ही कम पाया जाता है. इससे जाहिर होता है कि आधार वर्ष का बदलाव, वो तरीका और प्रक्रिया जिसके जरिए इसे किया जाता है, का नतीजा असल में मूल्य में बदलाव के असली प्रभाव को कम करना होता है जिसके चलते मजूदरों के महंगाई भत्ते में बहुत ज्यादा कमी कर दी जाती है. इसलिये जो पूरी प्रक्रिया और तरीका अपनाया जाता है इसका पूरी तरह से पुनर्गठन करना होगा ताकि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक संबन्धित बास्केट के सामानो के मूल्य के स्तरों में हुए बदलाव के असल प्रभाव का पारदर्शी प्रतिबिंब बन सके. 
  4. यही गलती, बल्कि मूल्यों में बदलाव के असल प्रभाव को कम करना, लिंकिंग फैक्टर (जोड़ने वाला कारक) जिसे कन्वर्जन (रूपांतरण) फैक्टर के रूप में जाना जाता है, में भी प्रतिबिंबित होती है. 2001 (मौजूदा आधार वर्ष) सीरीज़ के अंकों को 2016 सीरीज़ में बदलाव के लिये 2.88 के लिंकिंग फैक्टर का प्रस्ताव साफ तौर पर ये दिखाता है और इस बात की गवाही देता है कि ये असल प्रभाव को दबाने के लिए, उसे कम करके आंकने के लिए किया गया है. ये ध्यान रखना चाहिए कि 1982/2001 (19 साल का अंतराल) का लिंकिंग फैक्टर 4.63 और 1960/1982 (22 साल का अंतराल) 4.93 था; जबकि 2001 से 2016 (15 साल का अंतराल) के आधार वर्ष के बदलाव का लिंकिंग फैक्टर 2.88 जितना कम प्रस्तावित किया गया है; ये तो मूल्यों में बदलाव के असल प्रभाव को जबरदस्त ढंग से दबाने/कम करके आंकने में ही भूमिका निभाएगा. 
  5. इसके अलावा, 2001 और 2016 (प्रस्तावित आधार वर्ष) का 15 साल का अंतराल का दौर खासतौर से 2008 से आगे का दौर, वो दौर था जब अर्थव्यवस्था लगातार नीचे गिर रही थी. इस दौर में मूल्य गति (उतार-चढ़ाव) के मामले में अर्थव्यवस्था में कुछ विशेष प्रवृत्तियां भी थीं. जहां सामान्य रूप में औद्योगिक उत्पाद का बाजार बुरी हालत में था और इसलिए मूल्य स्तर भी कम थे, मानवीय अस्तित्व के लिए आवश्यक उत्पाद (वो उत्पाद जो सीपीआई की बास्केट में मुख्यतः मिलते है) मुक्त बाजार के ज़रिए बहुत ही महंगे हो गए थे. दूसरे जिस दौर की बात हो रही है उसमें मजदूरों की औसत मजदूरी के स्तर में लगातार कमी भी दिखती है. कई प्रसिद्ध संस्थानों द्वारा जिनमें सीएमआईई आदि भी शामिल हैं, द्वारा किए गए कई विश्वसनीय अध्ययनों के अनुसार, 15 सालों के दौर यानी 2001 से 2016 के बीच में कम से कम 10 सालों की अवधि में उत्पादन की कुल लागत और साथ ही वार्षिक टर्नओवर के प्रतिशत के बतौर कुल मजदूरी का हिस्सा निरंतर गिरता जा रहा था. औद्योगिक मजदूरों के लिए सीपीआई का आधार वर्ष को बदलने पर विचार करते समय इन सभी अवधि विशिष्ट लक्षणों को समुचित स्थान मिलना ही चाहिए. वरना इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य ही खत्म हो जाएगा. 
  6. यहां इस पर ध्यान दीजिए कि कोड ऑन वेजिस ऐक्ट 2019 के लागू होने के बाद और मंत्रालय द्वारा ड्राफ्ट रूल्स के प्रकाशन के बाद, सीपीआई की वस्तुओं की बास्केट को पुनर्गठित करने का मजबूत आधार सामने आ गया है. मंत्रालय द्वारा वेतन कोड कानून के अंतर्गत प्रस्तावित मसौदा नियमावली में न्यूनतम वेतन सूत्रीकरण के जो तत्व बताए गए हैं वो इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस (सूत्रीकरण जिसकी सिफारिश 15वीं आईएलसी द्वारा की गई थी और साथ ही रपटाकोस ब्रेट मामले में सुप्रीम कोर्ट का आदेश) के हिसाब से बने हैं, इनमें सीपीआई की वस्तु बास्केट का पुनर्गठन करने की जरूरत है ताकि उस बास्केट में दिए गए सभी समुचित महत्वपूर्ण तत्वों को जरूरी महत्व/भार के साथ शामिल किया जा सके. ये करना इसलिए भी जरूरी और महत्वपूर्ण है ताकि सीपीआई को मूल्यों के बदलाव से मजदूरों पर पड़ने वाले प्रभावों का सही और पारदर्शी प्रतिबिंब बनाया जा सके. 
  7. इसलिए हम ये मांग करते हैं कि इस पर नये तरीके से दोबारा काम किया जाए जिसमें निर्णय लेने के हर स्तर पर ट्रेड यूनियनों को शािमल किया जाए क्योंकि वे आधार वर्ष के साथ उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की गणना के प्रोजेक्ट से प्रभावित हितधारकों का प्रतिनिधित्व करते हैं. सिर्फ तभी आधार वर्ष को बदलने की प्रक्रिया को सार्थक, निष्पक्ष और मूल्यों के असल बदलाव के प्रति पारदर्शी बनाया जा सकता है.

आप इस बात का ध्यान रखें कि वर्तमान हालात जो महामारी की वजह से भयावह हैं, उनमें ऐसी कोई प्रक्रिया संभव नहीं है. इसलिए हम आपसे अपील करते हैं कि इस सीपीआई-आईडब्लू के आधार वर्ष को बदलने की प्रक्रिया को विराम दें. ये प्रक्रिया, अगर संभव है भी तो इसे स्थितियां सामान्य होने पर नए तरीके से शुरु किया जा सकता है जिसमें सभी केंद्रीय ट्रेड यूनियनों से सलाह व सुझाव मांगे जाएं और इस प्रक्रिया के हर चरण में ट्रेड यूनियन प्रतिनिधियों को शामिल किया जाए ताकि इस प्रक्रिया की पारदर्शिता, सटीकता, निष्पक्षता और औचित्य को बनाए रखा जा सके. ु