नोटबंदी का एक साल: जनता के खिलाफ मोदी शासन का आर्थिक युद्ध

नोटबंदी का एक साल: जनता के खिलाफ  मोदी शासन का आर्थिक युद्ध

नरेन्द्र मोदी द्वारा ड्रामाई अंदाज में नोटबंदी की घोषणा किए पूरा एक साल बीत गया है. 500 और 1000 के नोटों को अचानक परिचालन से वापस ले लेने के चलते पैदा होने वाली अव्यवस्था और असुविधाओं के खतरे को स्वीकार करते हुए मोदी ने जनता से वादा किया था कि इसकी तकलीफ बस चंद दिनों तक होगी और यह तो भ्रष्टाचार, काला धन और आतंकवाद के खिलाफ जंग जीतने के लिये दिया गया आवश्यक बलिदान है. जब उन्होंने कहा था कि ‘तुम मुझे पचास दिनों की मोहलत और अपने सारे बड़े नोट दो, मैं तुम्हें काला धन से आजादी दूंगा’ तो उनका यह आहृान लगभग नेताजी सुभाष चंद बोस के सुप्रसिद्ध आहृान ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ जैसा ही बहादुराना लगा था. लेकिन नोटबंदी की पहली वर्षगांठ पर देश के लोग वास्तविक जीवन के दुखदायी अनुभव के चलते बस खुद को ठगा और विध्वस्त महसूस कर रहे हैं. जिस चीज की शुरूआत चंद दिनों की खलबली से हुई थी, उसने दीर्घकालीन आपदा के लिये रास्ता साफ कर दिया. भारत के 8 नवम्बर (8/11) की अमरीका के 11 सितम्बर (9/11) के साथ मनहूस समानता दिखती है, अगर 11 सितम्बर गैर-राजकीय कारकों द्वारा किया गया राजनीतिक आतंकवाद का कारनामा था, तो भारत में हमने जो कुछ देखा-सुना है वह खुद राज्य द्वारा किए गए आर्थिक आतंकवाद के भारी प्रहार से किसी मायने में कम नहीं है!

रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के अपने आंकड़ों के अनुसार लगभग समूची मुद्रा, जो उन दिनों परिचलन में थी या निजी हाथों में संचित थी, वापस आ चुकी है. अगर इसमें काला धन शामिल है तो अब वह सफेद बन चुका है! साबित हो गया है कि नए नोटों के भी उसी तरह जाली नोट छापे जा रहे हैं जैसे कि पुराने बड़े नोटों के छापे जाते थे; आतंकवाद की घटनाएं तो यकीनन कम नहीं हुई हैं; और अगर भाजपा-शासित राज्यों से हाल के महीनों में आने वाली भ्रष्टाचार की खबरें सच हों, मोदी के ‘सत्ता परिवार’ के अंदर (चाहे वह अमित शाह के बेटे जय शाह के अब बंद हो चुके टेम्पल इन्टरप्राइजेज की बात हो या फिर राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के पुत्र शौर्य डोभाल के ‘थिंक टैंक बिजनेस’ की) पिठ्ठू पूंजीवाद के पनपने की परिघटना सच हो और भारत के अति धनाढ्य परिवारों (जिनमें बड़ी-बड़ी हस्तियां और कम्पनियां तथा भाजपा के सांसद और मंत्रीगण भी शामिल हैं) के विदेश स्थित कार्यकलापों के विस्फोटक विवरण सही हों, जिनका खुलासा पहले पनामा पेपर्स में और एकदम हाल में पैराडाइज पेपर्स में हुआ है, तो साबित होता है कि भ्रष्टाचार, कर चोरी और काला धन पहले से कहीं ज्यादा गहराई में जड़ें जमा चुका है.

जहां नोटबंदी से जो कुछ फायदे होने की बात थी वह छलावा साबित हुआ है, वहीं इससे पैदा तकलीफें बिल्कुल वास्तविक और पाशविक किस्म की हैं - नोटबंदी के फलस्वरूप अविवेकपूर्ण ढंग से हुई शर्मनाक मौतों को याद कीजिये, खेती और छोटे पैमाने के उद्यमों के जबरदस्त विध्वंस को, आजीविका और नौकरियों की निर्मम क्षति को, समूचे अर्थतंत्र में स्पष्ट तौर पर छाई मंदी को, और यकीनन, इसमें नए नोटों को छापने तथा विशाल ग्रामीण क्षेत्रों में नोटबंदी की कठोर कवायद को जबरदस्ती लादने की कीमत को याद कीजिये. और अब नोटबंदी की चोट के साथ-साथ, जले पर नमक छिड़कने के लिये मोदी शासन ने दूसरा जबरदस्त हमला कर दिया है: जीएसटी के रूप में कर-आतंकवाद. जब चुनाव सामने आ खड़े हुए हैं, तो सरकार ने हाल ही में जीएसटी में कर की दरों तथा आकलन और भुगतान की प्रक्रियाओं में कुछ बदलाव लाना शुरू किया है (जैसे नोटबंदी के दौरान लगातार नियमों को बदला जा रहा था), लेकिन वास्तव में कोई असली राहत देने की जगह इससे समूची कवायद का सहजात मनमाना, निरंकुश और असंगतिपूर्ण चरित्र ही जाहिर हुआ है. सामान्य जन के उपभोग की अधिकांश वस्तुओं एवं आवश्यक सेवाओं पर अब 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत जैसी ऊंची दरें थोप दी गई हैं. जहां जीएसटी की वजह से बढ़े दामों से उपभोक्ताओं को कड़ी चोट झेलनी पड़ी है, वहीं छोटे व्यवसाय जीएसटी प्रशासन की जटिल प्रक्रियाओं और दांवपेचों के बोझ से चकरा रहे हैं.

नोटबंदी और जीएसटी दोनों के पीछे निहित साझा तर्क एक है: भारतीय अर्थतंत्र को और बड़े पैमाने पर औपचारिकीकरण तथा डिजिटलीकरण की ओर ठेलना. और इस बांह मरोड़कर दिये जाने वाले धक्के का सबसे बड़ा औजार है नागरिकों के खिलाफ राज्य द्वारा की जाने वाली निगरानी के लिये अब तक बनाया गया सबसे घुसपैठिया और सर्वव्यापी हथियार - बायोमीट्रिक पहचान पत्र ‘आधार’, जिसे निर्विचार ढंग से लगभग हर सेवा के साथ जोड़ दिया जा रहा है. इसका नतीजा हम सब देख सकते हैं - न सिर्फ निजता के मौलिक अधिकार का सम्पूर्णतः अवांछनीय, अस्वीकार्य उल्लंघन किया जा रहा है, बल्कि बड़ी तादाद में जरूरतमंद लोगों को राशन, पेंशन और राहत से भी वंचित किया जा रहा है और उसके दायरे से ही निकाल बाहर किया जा रहा है, जिसकी वजह से भूख से मौतें तक होने लगी हैं जैसा कि झारखंड की घटना से पता चलता है. भारतीय जनता की विशाल बहुसंख्या के लिये, पिछले एक साल के दौरान मोदी सरकार का आर्थिक कार्यक्रम उनके हाथ में आतंक के त्रिशूल जैसा लगता है - नोटबंदी, जीएसटी और आधार जिसकी तीन नोकें हैं, जो खतरनाक ढंग से जनता की रोजमर्रा की वैध गतिविधियों, उनकी आमदनी और उनके अस्तित्व के खिलाफ तनी खड़ी हैं.

मोदी और जेटली नोटबंदी और जीएसटी को बुनियादी ढांचे में साहसिक सुधार के रूप में पेश करने की कोशिश किए जा रहे हैं, जिन्होंने विश्व बैंक की ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ (कारोबार करने में आसानी) रैंकिंग तालिका में भारत के दर्जे में बड़ा सुधार किया है - जिसमें भारत 190 देशों की तालिका में तीस सीढ़ियों की छलांग लगाकर पिछले साल के 130वें पायदान से इस साल 100वें पायदान पर पहुंच गया है. यह रिपोर्ट केवल दिल्ली और मुंबई में किए गए सर्वेक्षणों के आधार पर तैयार की गई है, जो चुनिन्दा मापदंडों के आधार पर व्यवसाय शुरू करने और उसे चलाने में आसानी या परेशानी के बारे में एक टिप्पणी भर है, उन व्यवसायों के प्रदर्शन अथवा अर्थतंत्र की स्थिति के बारे में कोई टिप्पणी नहीं है. चीन जैसा देश, जिसे लगभग सभी किस्म के उपभोक्ता मालों के उत्पादन और निर्यात के मामले में विश्व बाजार में वर्चस्व हासिल है, इस सूची में 78वें स्थान पर है जबकि पूर्वी यूरोप के भूतपूर्व समाजवादी देशों के अधिकांश संघटक राष्ट्र, जो पूंजीवादी पुनर्स्थापना की संकटभरी प्रक्रिया के चक्र में फंसे हुए हैं, इस सूची में बहुत ऊपरी स्थानों पर हैं. ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के मामले में विश्व बैंक द्वारा दिया गया सुधरे हुए प्रदर्शन का सर्टिफ़िकेट भारत में छोटे व्यवसायों के कटु अनुभव को पर्दे में नहीं छिपा सकता, जिनमें से बहुतों को तो वास्तव में नोटबंदी के चलते व्यवसाय से बाहर ही चले जाना पड़ा.

यह कोई गुप्त बात नहीं रही कि जहां मोदी और जेटली विश्व बैंक के रिपोर्ट कार्ड को लहराते हुए अपनी पीठ ठोक रहे हैं, वहीं मोदी सरकार द्वारा बटोरे गए आर्थिक आंकड़े और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों द्वारा संग्रहीत सूचकांक एक चिंताजनक तस्वीर पेश कर रहे हैं जिसमें लगातार अर्थतंत्र की रफ्तार सुस्त होती जा रही है और भारी पैमाने पर लोगों के वंचित एवं भुखमरी का शिकार होने की परिघटना बेहद खतरनाक स्तर पर पहुंच गई है. पिछले छह तिमाहियों से लगातार सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में अबाध गति से कमी आ रही है, विश्व भुखमरी सूचकांक में भारत को 119 विकासशील देशों की सूची में 100वां स्थान हासिल है, और विश्व लैंगिक असमानता सूचकांक के लिहाज से भारत 144 देशों की सूची में 21 स्थान नीचे फिसलकर 108वें स्थान पर आ गया है, जबकि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों के चलते ज्यादा से ज्यादा तादाद में महिलाओं को कड़ी चोट झेलनी पड़ी है. लेकिन जब कर चोरी या काले धन के संभावित कार्यकलापों की बात आती है, तो भारत किसी भी वैश्विक तालिका में बहुत ऊंचे स्थान पर मौजूद है. पैराडाइज पेपर्स में 714 भारतीयों के नाम हैं, जो भारत को 180 देशों की तालिका में 21वां दर्जा दिला रहे हैं. बैंकिंग क्षेत्र कॉरपोरेट कम्पनियों द्वारा भारी कर्ज की रकम वापस न किए जाने, बेकार परिसम्पत्तियों (नॉन परफार्मिंग एसेट्स) का पहाड़ खड़ा होने और चौतरफा आर्थिक मंदी के चलते कर्ज लेने में आई गिरावट का एक बड़ा शिकार रहा है - इन सब ने बैंकों को भारी संकट के मुहाने पर ला खड़ा किया है और सरकार ने बैंकों को संकट से निजात दिलाने के लिये 2.11 लाख करोड़ रुपये का पुनर्पूंजीकरण (बैंकों को नए सिरे से पूंजी देना) की योजना की घोषणा की है. पारिभाषिक घालमेल को हटा दिया जाये तो इसका मतलब केवल मुनाफे का निजीकरण और नुकसान का समाजीकरण है.

जनता के लिये आर्थिक आतंकवाद, पिट्ठू पूंजीपतियों को लूट का लाइसेंस और अमीरों को संकट से छुटकारा दिलाने के लिये नींबू .......समाजवाद (आम करदाताओं के पैसे से तथाकथित स्वतंत्र बाजार में लड़खड़ाती निजी कम्पनियों को संकट से राहत पहुंचाने वाली सरकार) - कुल मिलाकर इसी रूप में मोदी सरकार का आर्थिक एजेंडा सामने आ रहा है. नोटबंदी की आपदा का एक वर्ष पूरा होने के मौके पर हर जगह मेहनतकश जनता इस हमले के खिलाफ प्रतिवाद में उठ खड़ी हो रही है. समूचे नवम्बर के महीने में हम देश भर में जनता की तालमेलबद्ध कार्यवाही का गवाह बनेंगे - जिसमें उत्तम शिक्षा तथा सुरक्षित एवं सम्मानजनक रोजगार के लिये प्रचार अभियान चला रहे छात्र-युवा कार्यकर्ता, सभी क्षेत्रों के श्रमिक कार्यकर्ता 9-11 नवम्बर को संसद के समक्ष विशाल प्रदर्शन करने के लिये दिल्ली पहुंचेंगे, और किसान भूमि अधिकार, कर्जमाफी और अपने उत्पाद के लिये लाभकारी मूल्य की मांग पर समूचे देश में पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक यात्रा करने के बाद दिल्ली में अपनी किसान संसद आयोजित करेंगे. मोदी सरकार के आर्थिक हमले तथा साम्प्रदायिक नफरत के अभियान के खिलाफ रोटी, जमीन और रोजगार के लिये जनता का संकल्पबद्ध और एकताबद्ध आंदोलन ही लोकतंत्र और न्यायपूर्ण विकास के हक में सर्वोत्तम जवाबी ताकत होगी.