गुजरात जनादेश 2017: भाजपा जीती, पर अपने गढ़ में उसका क्षरण हुआ

गुजरात जनादेश 2017:

भाजपा जीती, पर अपने गढ़ में उसका क्षरण हुआ

गुजरात विधानसभा चुनाव-2017 के नतीजे भाजपा की जीत के लिए नहीं, बल्कि इस बात के लिए गौरतलब हैं कि न सिर्फ 2012 के विधानसभा चुनावों से, बल्कि 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद से ही उसके जनाधार में काफी क्षरण हुआ है.

इस बार उसके चुनावी अभियान में भाजपा और मोदी-अमित शाह की नेतृत्वकारी टीम की हताशा लगातार अधिकाधिक उजागर हो रही थी. लोकसभा का शरदकालीन सत्र आगे बढ़ा दिया गया, और देश के अन्य तमाम मुद्दों को दरकिनार कर पूरा मंत्रिमंडल गुजरात में जमा हुआ था. प्रधानमंत्री ‘विकास के गुजरात मॉडल’ को लेकर इस बार खामोश थे, जबकि 2014 में और अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों के दौरान उन्होंने इसे अपने भाषणों की केंद्रीय विषय-वस्तु बना रखा था. इसके बजाए, पहले तो उन्होंने ‘सी-प्लेन’ में उड़ने का ड्रामा रचा और फिर भाजपा के अंतिम हथियार - खुले जहरीले सांप्रदायिक विभाजनकारी प्रचार अभियान - को अपने हाथों पकड़ लिया.

जहां प्रधानमंत्री ने स्वयं इसकी बागडोर थाम रखी थी, वहीं भाजपा ने उसे चुनौती देने वाले गुजरात के युवा नेताओं की तिकड़ी (हार्दिक-अल्पेश-जिग्नेश) के लिए ‘हज’ (एचएजे) शब्द का इस्तेमाल किया, ताकि वे यह बता सकें के ये तीनों नेता मुस्लिमों के सरपरस्त हैं. कांग्रेस और उसके नेताओं की औरंगजेब और खिलजी से तुलना की गई. राम मंदिर के मुद्दे का अंतिम हद तक इस्तेमाल किया गया. और आखिरकार, हताश दिख रहे प्रधानमंत्री ने यह दावा करना शुरू कर दिया कि उनसे पहले केन्द्र में सत्तारूढ़ पिछली यूपीए सरकार के प्रधनमंत्री पाकिस्तान के साथ मिलकर अहमद पटेल - एक मुस्लिम - को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाने की साजिश रच रहे हैं! उन्होंने एक कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर द्वारा की गई एक बचकानी ओछी गलती का झपटकर इस्तेमाल करते हुए खुद को पीड़ित के बतौर पेश किया, और फिर अपने आपको पूरे अभियान के केंद्र में खड़ा कर लिया.

गुजरात के चुनावों में ईवीएम तथा वीवीपीएटी मशीनों की गड़बड़ियों के ढेर सारे उदाहरण ईवीएम के साथ छेड़छाड़ से जुड़े सवाल खड़ा कर रहे हैं - खासकर इस तथ्य के मद्देनजर कि 16 सीटों पर जीत का फासला 200 से 2000 वोटों तक का रहा है. चुनावों को पूर्णतः स्वतंत्र और निष्पक्ष होना ही नहीं, दिखना भी चाहिए, इसे ध्यान में रखते हुए अब यह निर्वाचन आयोग की जिम्मेवारी है कि वह इन सारे संदेहों का निराकरण करे !

यह स्पष्ट है कि तमाम हदों को पार करके और तमाम किस्म की चालबाजियों का सहारा लेकर भी भाजपा की हालत हर तरह से खस्ता हो गई है, और उसका कद हर तरह से घट गया है, जबकि गुजरात में विपक्ष को नई जान मिल गई है. यह भी गौरतलब है कि भाजपा के 5 कैबिनेट मंत्री चुनाव हार गए हैं, और भाजपा में शामिल होने वाले कांग्रेसी विधायकों की भी यही दुर्गति हुई है; और सबसे बड़ी बात यह कि मोदी के अपने गृह-नगर वडनगर में भी भाजपा परास्त हो गई है.

99 सीटों के साथ भाजपा अब दो अंकों पर नीचे उतर आई हैः आवश्यक बहुमत से बस, थोड़ा ही ज्यादा और 2012 में प्राप्त 115 सीटों के मुकाबले काफी कम. चुनाव के पहले निवर्तमान मुख्यमंत्री रूपानी ने ऐलान किया था कि अगर पिछले चुनावों में हासिल इस 115 के आंकड़े से एक या दो सीट भी कम मिले तो सवाल जरूर उठेंगे.

अगर 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रदर्शन के साथ इस चुनाव की तुलना की जाए, तो भाजपा के समर्थन आधार का क्षरण कहीं ज्यादा विशाल नजर आएगा. अगर उत्तर प्रदेश की ही तरह यहां भी उसने 2014 के लोकसभा के प्रदर्शन को दुहराया होता, तो वह कुल 182 सीटों में से 162 सीट हासिल कर लेती. 150 सीट प्राप्त करने और ‘विपक्ष’ को मिटा देने की अमित शाह की डींग अब बिल्कुल खोखली नजर आ रही है.

यह स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र की विपदा और बेरोजगारी के मुद्दे इस चुनाव में गुजरात के मतदाताओं, खासकर ग्रामीण मतदाताओं को सबसे ज्यादा प्रभावित कर रहे थे. इन मुद्दों और सरोकारों ने ‘गुजरात मॉडल’ की हवा निकाल दी और नफरत व फूट फैलाने वाले जहरीले भाषणों को बेअसर कर दिया; जिसके चलते कांग्रेस और इसके संश्रयकारियों को 80 सीट मिल गईं.

आजीविका और अर्थतंत्र के मुद्दों पर उत्साहजनक समर्थन मिलने के बावजूद कांग्रेस ने मंदिर-भ्रमण प्रदर्शन की नीति पर चिपके रहना तथा सांप्रदायिक हिंसा के मुद्दों पर खामोश रहना ही पसंद किया. लेकिन यह देखना सचमुच उत्साहवर्धक है कि हार्दिक पटेल और जिग्नेश मेवानी जैसे कार्यकर्ता मोदी और भाजपा की विभाजनकारी सांप्रदायिक राजनीति का भंडाफोड़ करने से नहीं चूके और इस कोशिश में उन्हें काफी समर्थन भी हासिल हुआ. हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजे कमोवेश वैसे ही आए, जैसा कि अपेक्षित था - कांग्रेस सरकार की भ्रष्ट छवि ने भाजपा को अच्छी जीत दिला दी. यहां भी यह गौरतलब है कि भाजपा के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार कांटे की टक्कर में चुनाव हार गए.

गुजरात के वडगाम में जिग्नेश मेवानी की जीत और हिमाचल प्रदेश के थियोग विधानसभा क्षेत्र से एक माकपा उम्मीदवार की जीत के साथ यह आशा की जाती है कि गुजरात और हिमाचल प्रदेश की विधानसभाओं के अंदर जन-आंदोलनों की राजनीति को आवाज मिलेगी.

2019 के लोकसभा चुनावों में ‘कांग्रेस मुक्त’ और ‘विपक्ष मुक्त’ राजनीतिक अखाड़ा तैयार करने की भाजपा की शेखियों को संपुष्ट करने के बजाए गुजरात के चुनावों ने मोदी और भाजपा की ‘अजेय’ छवि को तार-तार कर दिया है और विपक्ष को पुनर्जीवित किया है. इसने फासीवाद के प्रतिरोध में खड़ी होने वाली आंदोलनों की ताकतों का मनोबल बढ़ाया है और इस बात को संपुष्ट किया है कि नफरत फैलाने वाली विभाजनकारी राजनीति की अपनी एक सीमा होती है; कि, मोदी के ‘विकास’ एजेंडा के मिथक को करारी चोट मिली है; और, कि रोजी-रोटी व जन-कल्याण जैसे आम जनता के मुद्दे चुनावों सचमुच पुख्ता असर डाल सकते हैं.