बवाना हादसा - ऐक्टू जांच टीम की रिपोर्ट 17 नहीं 40 मजदूरों की मरने की है आशंका

जनवरी 22, 2018 को ऐक्टू की टीम ने बवाना औद्योगिक क्षेत्र के एफ-83 स्थित फैक्ट्री का दौरा किया और कई मजदूरों के परिवारवालों से मुलाकात की. टीम में शामिल साथी थे: अभिषेक, श्वेता, वीकेएस गौतम, सतबीर श्रमिक, अजय कुमार और प्रेमपाल चैटेला. फैक्ट्री के पास काम करनेवाले मजदूरों से बात करने पर कई सारी बातें सामने आयीं:

  • अधिकतर मजदूरों ने कहा कि फैक्ट्री में 17 से अधिक मजदूर दुर्घटना के वक्त मौजूद थे. यह संख्या इलाके में काम करने वाले मजदूरों द्वारा 42-50 के आसपास बताई जा रही है. पास ही चाय बेचने वाले ने बताया कि फैक्ट्री के अंदर शाम 5 बजे के लगभग 42 चाय ले जाई गई थीं, जिसके कुछ ही देर बाद हादसा घटित हुआ. जांच में पाया गया कि हादसे के वक्त न केवल फैक्ट्री के बाहरी गेट पर ताला लगा था बल्कि छत पर जाने वाले गेट पर भी ताला लगा था. इस हादसे में केवल दो मजदूर ही फैक्ट्री से जिंदा निकल पाए. इन हालातों में यह प्रबल आशंका है कि हादसे में मरने वाले मजदूरों की संख्या 17 नहीं बल्कि 40 के आसपास हो सकती है, जिसकी जांच की जानी चाहिए.
  • मौके पर मौजूद लोगों के द्वारा यह भी बताया गया कि ’फैक्ट्री गेट पर बाहर से ताला लगे होने के कारण कोई भी मजदूर बाहर नहीं आ सका.’ दिल्ली में कारखानों के गेट अक्सर मालिकों द्वारा बंद रखे जाते हैं, जिसके कारण किसी भी दुर्घटना के समय मजदूरों का बाहर निकल पाना संभव नहीं होता, इससे पहले 2011 में पीरागढ़ी स्थित एक फैक्ट्री के अंदर भी आग लगने से कई मजदूरों की मौत हुई थी, वहां भी फैक्ट्री के सभी निकास बंद थे. ’एफ-83 फैक्ट्री समेत सभी आसपास के कारखानों में केवल एक ओर ही निकास बने हुए हैं,’ जिसके कारण भविष्य में भी इस तरह की दुर्घटनाओं की संभावना लगातार बनी रहेगी. 2011 में पीरागढ़ी के भीषण अग्नि कांड के बावजूद भी न तो दिल्ली में बनने वाली सरकारों ने और न ही एम.सी.डी. अथवा अन्य किसी सरकारी संस्थान ने मजदूरों के सुरक्षा व अधिकारों के लिए कोई कदम उठाए. पास के ही नरेला औद्योगिक क्षेत्र में हाल फिलहाल में कई अग्नि-कांड और हुए हैं, जिनमें कई मजदूर पहले भी मारे जा चुके हैं.
  • जिस दिन फैक्ट्री में आग लगी, वो दिन छुट्टी का दिन था. ऐक्टू के साथियों ने पीड़ितों के परिवारों से बातचीत के दौरान पाया कि, ज्यादातर मजदूर नौकरी खोने के डर से छुट्टी वाले दिन भी काम करने को मजबूर किए गए थे.
  • कई परिवारों ने यह भी बताया कि उन्हें इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी कि फैक्ट्री के अन्दर किस तरह का कार्य कराया जा रहा है. कई मजदूरों को तो बताया गया था कि फैक्ट्री में प्लास्टिक का काम होगा अथवा गुलाल पैक किया जाएगा. ’सोनम (मृत मजदूर, उम्र 22-23)’ की मां नीतू ने बताया कि अगर उन्हें यह मालूम होता कि उनकी लड़की पटाखे बनाने जा रही है, तो वो उसे कभी काम पर नहीं जाने देती, कर्जा लेकर घर बनाने के चलते उनके सामने कई आर्थिक परेशानियां थीं, जिस कारण सोनम को फैक्ट्री में काम करना पड़ रहा था. सोनम के घरवालों ने यह भी बताया कि सोनम अपने घर के 6 सदस्यों के बीच मुख्य कमाने वाली  थी, और उसकी शादी भी अगले 2-3 महीनों में तय होने वाली थी. सोनम की छोटी बहन ने अपने हाथ दिखाते हुए बताया कि फैक्ट्री में काम करने के चलते उसकी बहन के कपडे इतने पीले हो जाते थे कि, उनको साफ करते हुए उसके हाथ पर भी पीले रंग की परत चढ़ गयी है.
  • ‘बेबी देवी (मृत मजदूर, उम्र लगभग 35)’ के बेटे चिंटू से बात करने पर पता चला कि उनका परिवार बिहार के पटना जिले का रहनेवाला है और यहां मजदूरी करके उनका गुजारा चल रहा था, उसने यह भी बताया कि अभी तक कोई उनकी सुध लेने नहीं आया. उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद जिले से आए रज्जो (मृत मजदूर, उम्र लगभग 50-55) के पुत्र हरीश ने बताया कि उन्हें फैक्ट्री में काम करने के बदले अभी तक कोई वेतन नहीं मिला था, न तो फैक्ट्री मालिक ने कोई पहचान पत्र दिया था, और न ही फैक्ट्री में ई.एस.आई, पीएफ का कोई  प्रावधान था. उसने यह भी बताया कि अंतिम-क्रिया के लिए भी उन्हें सरकार द्वारा कोई मदद नहीं दी गई (ज्यादातर पीड़ित परिवारों ने यही बताया ).
  • मऊरानीपुर, झाँसी की ’मदीना (मृत मजदूर, उम्र लगभग 55)’ के परिवार वालों से बातचीत के दौरान भी यही बात सामने आई कि हादसे के बाद उन्हें किसी प्रकार की सहायता नहीं दी गई है, मदीना 5000 रूपए महीने पर 12 घंटे फैक्ट्री में काम किया करती थी. मदीना अपने घर की, जिसमे 6 बच्चे और एक पति भी हैं, अकेली कमाने वाली थीं.
  • ‘रीता (मृत मजदूर, उम्र नाबालिग)’ का परिवार टीकमगढ़ का था. उसके भाई दीपू के अनुसार रीता की उम्र अभी 18 साल से भी कम की थी. घर के कमजोर आर्थिक हालात के चलते रीता को कम उम्र में पटाखे की फैक्ट्री में काम करना पड़ रहा था. ऐक्टू की टीम को आसपास के कारखानों में काम करने वाले मजदूरों यह भी बताया कि फैक्ट्री के अन्दर 13-14 साल के बच्चे भी काम कर रहे थे.
  • ऐक्टू की टीम ने पूरे बवाना औद्योगिक क्षेत्र में पाया कि - ’ज्यादातर कारखानों के बाहर उनका नाम /मालिक का नाम तक नहीं लिखा गया है’, कारखानों के गेट पर किसी तरह का कोई सूचना-पट नहीं है, न्यूनतम वेतन इत्यादि की जानकारी भी पूरे औद्योगिक औद्योगिक क्षेत्र में कहीं नहीं दर्शाया गई है.
  • एक औसत मजदूर 12 घंटे के काम का 5500 से लेकर 9000 तक कमाता है, 8 घंटे काम करने वाले मजदूरों को 5000-5500 तक ही मिल पाता है. ज्यादातर कारखानों में किसी तरह के श्रम कानून को नहीं माना जाता, ई.एस.आई, पी.एफ, बोनस इत्यादि किसी भी फैक्ट्री में लागू नहीं हैं. मजदूरों को कोई पहचान पत्र जारी नहीं किया जाता. ज्यादातर कारखानों को ऐसी इमारतों में चलाया जा रहा है जिनमें निकास द्वार एक ही हैं. हादसे के वक्त एफ-83 फैक्ट्री के निकास द्वार व छत दोनों ही बंद थे.
  • पूरे औद्योगिक क्षेत्र में खुले आम बिना किसी नाम और श्रम कानूनों को ताक पर रखकर कारखाने चलाए जा रहे हैं, यह बिना दिल्ली सरकार के विभागों खासकर श्रम विभाग और उद्योग विभाग, एम.सी.डी. और दिल्ली पुलिस के आपराधिक सांठगांठ के संभव नहीं है. बवाना में हुए अग्नि-कांड में ये सभी दोषी हैं.
  • पूरी दिल्ली के अन्दर मजदूरों के यूनियन बनाने के अधिकार को सरकार और मालिक मिलकर छीन रहे हैं, जिस फैक्ट्री में आग लगी वहाँ भी कोई यूनियन नहीं थी. ज्यादातर बवाना औद्योगिक क्षेत्र के कारखानों में कोई यूनियन नहीं है, जिसके कारण मालिक अपनी मनमानी कर रहे हैं और मजदूर आए दिन बेमौत मारे जा रहे हैं.
  • दिल्ली सरकार घोषित न्यूनतम वेतन लागू कराने में पूरी तरह असफल रही है, बवाना सहित आसपास के सभी औद्योगिक क्षेत्र- जैसे कि बादली, नरेला, जहांगीरपुरी, वजीरपुर इत्यादि में कहीं भी न्यूनतम वेतन लागू नहीं है. अगर कैग की रिपोर्ट (गैर सरकारी उपक्रम, वर्ष अंत 31मार्च, 2016 (3) देखें तो हम ये अच्छी तरह समझ जाएंगे कि सरकार न्यूनतम वेतन समेत किसी भी श्रम कानून को लागू करने के लिए तैयार नहीं है. कैग रिपोर्ट में साफ तौर पर दर्शया गया है कि न्यूनतम वेतन से जुड़े ज्यादातर केस (58-69 प्रतिशत) बहुत लम्बी अवधि तक पेंडिंग रहते हैं (4). वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच न्यूनतम वेतन से जुड़ी 16,373 शिकायतों में से सिर्फ 27 प्रतिशत शिकायतों में ही दिल्ली सरकार के श्रम विभाग द्वारा निरीक्षण किया गया है (5). इस रिपोर्ट के अनुसार कारखाना अधिनियम, 1948 का भी पालन दिल्ली सरकार के विभागों द्वारा नहीं किया जा रहा है- वर्ष 2011 से लेकर 2015 के बीच केवल 11-25 प्रतिशत पंजीकृत कारखानों का निरीक्षण किया गया (6).
  • ऐक्टू का मानना है कि यह कोई हादसा नहीं बल्कि सरकार और मालिकों के गठजोड़ और मानव-जीवन से ज्यादा लगातार लाभ-अर्जन को तरजीह देने वाली नीतियों का नतीजा है. न तो दिल्ली सरकार, न एम.सी.डी. और न ही दिल्ली पुलिस इस प्रकरण में किसी भी तरह दोष-मुक्त हैं. उद्योगों को बढ़ावा मनुष्य की जान लेकर नहीं दिया जा सकता, परन्तु लगातार मालिकों के पक्ष में खड़े होकर सरकार अपनी मंशा साफ व्यक्त कर चुकी है. ऐक्टू मांग करता है कि:
  • सभी औद्योगिक दुर्घटनाओं में मारे गए मजदूरों को 50 लाख मुआवजा और घायल मजदूरों को 30 लाख रूपए मुआवजा दिया जाए.
  • बवाना में एफ-83 समेत अन्य अवैध कारखानों को लाइसेंस देने वाले अधिकारियों को सजा दी जाए.
  • मारे गए अथवा विकलांग होनेवाले मजदूरों के परिवार से किसी एक व्यक्ति को सम्मानजनक सरकारी रोजगार दिया जाए.
  • सभी श्रम कानूनों को सख्ती से लागू किया जाए, श्रम कानूनों का उल्लंघन करने वाले मालिकों पर तुरंत कार्रवाई हो, यूनियन बनाने के कारण मजदूर को काम से निकालने वाले मालिकों को सख्त से सख्त सजा हो.
  • दिल्ली के श्रम कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए कड़े कदम उठाए जायें. श्रम कार्यालयों में दिल्ली की मजदूर आबादी के अनुरूप स्टाफ की भरती की जाए व नए श्रम कार्यालय खोले जाएं.