बजट 2018: जनाक्रोश की आग में ‘मोदीकेयर’ का घी

आगामी लोकसभा चुनाव के पहले मोदी सरकार का अंतिम पूर्ण बजट 1 फरवरी 2018 को संसद के समक्ष पेश कर दिया गया. अरुण जेटली द्वारा पेश किये गये पिछले तमाम बजटों की ही तरह यह बजट भी लफ्फाजियों से भरपूर था, मगर न तो इसमें कोई सार्थक आवंटन किया गया था, और न ही उसमें आज भारतीय अर्थतंत्र के सामने खड़े ज्वलंत सवालों - चाहे वह स्थायी कृषि संकट हो, बेरोजगारी हो या घरेलू मांग और उत्पादक निवेश में गिरावट हो - के समाधान की कोई नीतिगत दिशा मौजूद थी. जहां तक मोदी सरकार द्वारा हाल में उठाये गये दो सर्वाधिक चर्चित कदमों - नोटबंदी और जीएसटी - का सवाल है, तो इस बजट में भी इन कदमों के विनाशकारी और मंदीकारक प्रभाव से इनकार करते रहने का रुझान ही जारी है.

वास्तव में सरकार के अपने अर्थशास्त्रियों के पैनल द्वारा जो चिंताएं बजट-पूर्व अभिव्यक्त की गई थीं, उनका भी इस बजट में कोई प्रतिफलन नहीं मिलता. बेरोजगारी के बारे में नीति आयोग द्वारा जाहिर की गई चिंताओं - सुरक्षित और लाभकारी रोजगार के अवसरों की कमी - पर खुद प्रधानमंत्री ने झाड़ू फेरते हुए अपनी रहनुमाई में रोजगार सृजन के लिये पकौड़ा बेचने की प्रतीकात्मक उपमा का इस्तेमाल किया. बजट से बस दो दिनों पहले प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण में जो चिंताएं जाहिर की गई थीं - यह सर्वेक्षण गुलाबी रंग के कवर में लिपटा था जिसका जाहिरा तौर पर उद्देश्य था महिला सशक्तीकरण की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करना, और खेतिहर एवं गैर कृषि, दोनों क्षेत्रों में ग्रामीण मजदूरी एवं आय के गिरते जाने तथा भारतीय कृषि के लिये जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी असर के बारे में चर्चा करना - उन चिंताओं के प्रति भी जेटली के 2018 के बजट में उतनी ही उपेक्षा बरती गई.

इस वर्ष के बजट के बारे में भाजपा के खेमे की ओर से चर्चा के दो बड़े बिंदु उछाले जा रहे हैं - किसानों को खेती की लागत से 50 प्रतिशत ऊपर न्यूनतम समर्थन मूल्य देने की शानदार घोषणा और 10 करोड़ परिवारों को पांच लाख रुपये तक का वार्षिक स्वास्थ्य बीमा देने का वादा. मगर इन दोनों घोषणाओं की बारीकी से जांच करने से सरकार की ईमानदारी पर, और आखिर वह क्या करना चाहती है इस पर गहरा शक पैदा होता है.

वास्तव में भाजपा अपने 2014 के घोषणापत्र में किये गये इस वादे से बंधी थी कि वह लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य सम्बंधी स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश को लागू करेगी, मगर अभी तक यह घोषणा भी मोदी सरकार का बस एक और जुमला साबित हो रही थी. वास्तव में 2016 में तो सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय से यहां तक कह दिया था कि इस अनुशंसा को लागू करना कत्तई सम्भव नहीं है. देश भर में बढ़ते कृषि संकट के सामने पड़कर अब वही सरकार इस शानदार घोषणा के साथ सामने आ रही है. तो भला 2016 से आज तक के बीच में क्या नई बात हो गई? चतुराई इस बात में निहित है कि खेती के लागत मूल्य की कैसे गणना की जायेगी. हालांकि स्वामीनाथन आयोग ने जमीन का लगान और खेती करने वाले काश्तकार की प्रबंधकीय भूमिका का वेतन भी लागत में शामिल किया था, मगर सरकार अपनी गणना में इन दोनों कारकों को लागत में शामिल नहीं कर रही है!

प्रस्तावित राष्ट्रीय स्वास्थ्य रक्षा योजना, जिसे सरकार-परस्त चैनल अभी बड़े उत्साह के साथ ‘मोदीकेयर’ का नाम देकर परोस रही हैं (उनके लिये यह अमरीकी मेडिकेयर या ‘ओबामाकेयर’ का भारतीय संस्करण है), और भी बड़ी मक्कारी है. वर्ष 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना चालू करने के बाद से भारत बीमा-आधारित स्वास्थ्य सेवा के साथ प्रयोग करता आ रहा है. पिछले दो बजटों में इस खाते में किया गया व्यय क्रमशः 465.58 करोड़ रुपये (2016-17) और 470.52 करोड़ रुपये (2017-18) रहा है. यह व्यय तब हो रहा था जब माना जाता था कि सरकार केवल गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) परिवारों के एक छोटे लक्षित समूह को 30,000 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक का वार्षिक बीमा कवर दे रही है. इस वर्ष के बजट में इस खाते में व्यय महज 2,000 करोड़ रुपये रखा गया है, और सरकार बातें कर रही है 10 करोड़ गरीब और मजबूर परिवारों को 5 लाख रुपये का बीमा कवर देने की!

इसकी तुलना बजट की एक और मद से करें, जो हमें बताती है कि सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का ‘पुनर्पूंजीकरण’ (यानी उन्हें सरकारी खजाने से पूंजी देकर सेहतमंद बनाना) करने के लिये कितना धन खर्च किया है. यह खर्च विशाल-विशाल काॅरपोरेट कम्पनियों द्वारा बैंकों से कर्ज लेकर न चुकाने के चलते यानी पूंजी डूबने के चलते बैंकों को उनके संकट से उबारने के लिये दिया गया पैकेज कहलाता है. पिछले साल के बजट में इस मद पर आवंटन 10,000 करोड़ रुपये था, और संशोधित अनुमान के अनुसार सरकार द्वारा इस मद में किया गया वास्तविक व्यय उस आवंटन का नौ गुना (यानी 90,000 करोड़ रुपये) हो गया है, और इस बार तो सरकार ने इस मद में अपना आवंटन ही बढ़ाकर 65,000 करोड़ रुपये कर दिया है. इससे पता चलता है यह बजट तो लोगों को स्वास्थ्य बीमा कवर प्रदान करने के बनिस्पत असलियत में बैंकों को संकट से उबारने के लिये पूंजी देने की चिंता में कहीं ज्यादा मशगूल है. तब फिर भला केवल दुनिया की सबसे विशाल स्वास्थ्य बीमा योजना चालू करने के बारे में ही चर्चा क्यों हो रही है? जेटली ने लाइवमिंट को दिये गये साक्षात्कार (4 फरवरी 2018) को साफगोई से इसका जवाब दिया है: ‘‘आप बैंकों का पुनर्पूंजीकरण करना चाह रहे हैं, यह कहने से आपको कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला. मगर यह कह के कि मैंने एक स्वास्थ्य योजना चालू की है, आप राजनीतिक लाभ हासिल कर सकते हैं.’’

जाहिर है कि पांच लाख रुपये के स्वास्थ्य बीमा की प्रचारित योजना उसी मकसद को हासिल करने के लिये बनाई गई है जिस मकसद को हासिल करने के लिये 2014 में काला धन स्वदेश वापस लाकर हर खाते में 15 लाख रुपये जमा कराने का वादा किया गया था: यानी जनता को धोखे में फंसाने के लिये और वोट जुटाने के लिये. सार्वजनिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से कहा जाय तो राज्य सर्वजन-सुलभ स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने और सबको पूर्ण स्वास्थ्य की गारंटी करने के लिये जिम्मेदार है, द्वितीयक और तृतीयक उपचार की अस्पताली स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिये निजी अस्पतालों को भारी मात्रा में रकम अदा करने के लिये जिम्मेवार नहीं है. जहां प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को संसाधनों का गहरा अभाव झेलना पड़ रहा है और जमीनी स्तर पर राष्ट्रीय ग्रामीण एवं शहरी स्वास्थ्य मिशन का संचालन करने वाले लोगों को बुनियादी स्वीकृति और वेतन ही नहीं दिया जाता, जिसे हर स्वास्थ्यकर्मी को अनिवार्यतः एक अधिकार के बतौर मिलना चाहिये, तब भला कोई विशाल स्वास्थ्य बीमा योजना चालू करने के जरिये सार्वजनिक स्वास्थ्य में भला कौन सी ‘क्रांति’ हासिल की जा सकती है? क्यूबा ने तो कभी ‘कैस्ट्रोकेयर’ जैसी किसी चीज के बारे में बात नहीं की लेकिन उल्लेखनीय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली कायम करने के जरिये उसने सर्वजन-सुलभ गुणवत्ता सम्पन्न स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में अत्यंत उच्च मानदंड हासिल कर लिया.

ग्रामीण विकास या रोजगार योजनाओं की मद में आवंटन या फिर आवासन, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे सामाजिक विकास के बुनियादी स्तम्भों की मद में आवंटन, सबके सब अगर वास्तविक आकलन में गिरावट के शिकार नहीं हुए तो कम से कम ठहरे के ठहरे तो जरूर रह गये हैं. राजस्व संग्रह के मामले में देखा जाय तो अब स्वास्थ्य बीमा योजना के लिये धनराशि जुटाने हेतु वेतनभोगी वर्गों को अपने टैक्स बिल पर 1 प्रतिशत अतिरिक्त कर (सेस) अदा करना पड़ जायेगा, जबकि 250 करोड़ सालाना कुल बिक्री (टर्नओवर) वाले काॅरपोरेट जगत को टैक्स में 5 प्रतिशत की छूट दी गई है.

अब यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि मोदी सरकार के लिये आर्थिक शासन का मतलब योजना कार्यान्वयन और लोगों को लाभ पहुंचाना नहीं है, बल्कि उसका कहीं ज्यादा बड़ा मकसद जनता के जीवन और आजीविका के साथ बड़ा भारी जुआ खेलते हुए प्रचार युद्ध छेड़ना है. जुमलेबाजी बदलते-बदलते जन-धन और स्वच्छ भारत से लेकर मेक-इन-इंडिया और अब मोदीकेयर तक पहुंच गई है. सचमुच मोदी को अगर किसी बात की फिक्र है तो वह है सत्ता का निरंकुश केन्द्रीकरण और इस जंग में बजट-2018 उनकी तोप का ताजातरीन गोला है.

लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ-साथ कराने के लिये भाजपा का रणघोष क्रमशः तीखा होता जा रहा है - मोदी ने अपने हाल के साक्षात्कार में भी इसका उल्लेख किया है और बजट सत्र के उद्घाटन अभिभाषण में राष्ट्रपति ने भी इसकी चर्चा की है - इस तथ्य के साथ अगर बजट को जोड़कर देखा जाय तो शायद यह बजट जल्दी चुनाव कराने का महज एक संकेत है. लेकिन जब मोदी अपना 2018 का बजट पेश कर रहे थे, तभी राजस्थान में हुए उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा को भारी झटका दिया - वह भी ठीक भीड़-हत्या की उसकी एक सबसे बदनाम प्रयोगशाला में. गुजरात में बस किसी तरह बच निकलने के प्रकरण से जोड़कर इसे देखा जाये तो राजस्थान के चुनाव परिणाम संकेत दे रहे हैं कि अगर मोदी जल्द ही चुनाव कराने का दांव खेलने की सोच रहे हैं, तो भारत की जनता भी उनकी सरकार को मुंहतोड़ जवाब देने को बेचैन है. बजट 2018 मोदी की काॅरपोरेट लूट और साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वाली संवेदनाशून्य और क्रूर सरकार के खिलाफ जनाक्रोश की दहकती आग में नये सिरे से घी डालेगा.