‘गुजरात मॉडल’ का पर्दाफाश हुआ - अब इसके निर्माताओं को सजा देने का वक्त है

 दिसम्बर 2017 में गुजरात के महत्वपूर्ण चुनाव के लिये रंगमंच तैयार किया जा रहा है. मोदी शासन के लिहाज से यह बहु-प्रचारित गुजरात मॉडल का गृह-राज्य है. भाजपा न सिर्फ पिछले दो दशकों से बिना किसी अंतराल के लगातार इस राज्य में सत्ता में बनी हुई है, बल्कि उसने सफलतापूर्वक इसका इस्तेमाल केन्द्र एवं देश भर के अन्य राज्यों में सत्ता हासिल करने की छलांग लगाने के मंच के बतौर किया है. यही कारण है कि दिसम्बर 2017 में होने वाले गुजरात चुनाव न सिर्फ मोदी के गुजरात मॉडल के दो दशकों का इम्तहान साबित होंगे, बल्कि वे 2018 में होने वाले विधानसभा चुनावों की शृंखला और यकीनन 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के लिये भी माहौल बनाने का काम करेंगे.

गुजरात में भाजपा शासन के पिछले बीस वर्षों में से 13 वर्ष तक राज्य की बागडोर नरेन्द्र मोदी के ही हाथों रही, जिसमें अमित शाह उनके सबसे घनिष्ठ सहकर्मी थे, और इन दोनों ने मिलकर राजसत्ता चलाने की कला का ऐसा प्रतिमान निर्मित किया जिसे गुजरात मॉडल के नाम से जाना जाता है. संसदीय जनतंत्र के इतिहास में गुजरात जनसंहार जैसे उदाहरण नहीं के बराबर हैं. जिस तरह से गोधरा के बाद जनसंहार रचाया गया, जिसमें राज्य की पूरी भागीदारी रही, और सारी दुनिया द्वारा की गई निंदा का सामना करते हुए जिस ढिठाई के साथ इसको गुजरात का गौरव बताया गया, उसने बहुत पहले ही इसका इशारा दे दिया था कि नरेन्द्र मोदी के लिये राजसत्ता चलाने की कला का अर्थ क्या है.

और जब एक बार मोदी ने 2002 के जनसंहार के बाद फिर से सत्ता हासिल करने में सफलता पा ली, तो इसके बाद वस्तुतः निष्ठुर आतंक और काले अंधेरे के पर्दे में ढके षड्यंत्रों का निजाम शुरू हुआ, जिसके दौरान कई नकली मुठभेड़ें हुईं और राजनीतिक हत्याओं को अंजाम दिया गया, जिसमें मार्च 2003 में हुई गृहमंत्री हरेन पांड्या की हत्या भी शामिल है. जनसंहार से बच निकले पीड़ितों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के असीम साहस और बलिदान का ही नतीजा था कि चंद अपराधियों को, जिनमें पूर्व मंत्री माया कोडनानी भी शामिल हैं, एक हद तक न्याय के कठघरे में खड़ा किया जा सका. केन्द्र में मोदी का सत्तारूढ़ होना और साथ ही अमित शाह की भाजपा के अध्यक्ष के रूप में पदोन्नति ने न्याय हासिल करने की लड़ाई को और मुश्किल बना दिया है, जबकि देश भर में उसी हिंसा का प्रसार किया जा रहा है जिसका परीक्षण गुजरात में ‘हिंदू राष्ट्र की प्रयोगशाला’ में हो चुका है.

मानवाधिकारों के इस कदर मनमाने उल्लंघन के बावजूद, गुजरात मॉडल को शुरू से लेकर अब तक एक बड़े कारक ने हमेशा ताकत जुटाने के साथ-साथ वैधता भी प्रदान की है, और वह कारक है उसको कॉरपोरेट भारत से मिलने वाला मुखर समर्थन और उसकी सरपरस्ती. हालांकि नरेन्द्र मोदी को कई देशों ने वीजा देने से मना कर दिया, फिर भी कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और लगभग सारे-के-सारे भारतीय इजारेदार पूंजीपति घराने नरेन्द्र मोदी के पक्ष में पैरवी करते रहे. सालाना आयोजित होने वाले वाइब्रैंट गुजरात शीर्ष-सम्मेलनों में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का रणघोष नियमित रूप से सुनाई देने लगा. यह भी नजर खींचने वाली बात है कि गुजरात मॉडल ने अडानी ग्रुप के रूप में अपनी ही कॉरपोरेट हस्ती को भी पैदा किया जिसने मोदी के गुजरात में भूकम्प के बाद पुनर्निर्माण कोष की धनराशि और ठेकों को लगभग अकेले ही हड़प जाने के जरिये अपना बड़े पैमाने पर विस्तार किया. कोई आश्चर्य नहीं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में अडानी के जेट विमानों की पूरी कतार मोदी की सेवा में लगी रही और 2014 के चुनाव में विजयी होने के बाद पहली बार शपथ ग्रहण के लिये दिल्ली आते समय मोदी जगजाहिर तौर पर अडानी के विमान में ही सवार थे.

गुजरात मॉडल की इस दंतकथा बन चुकी शक्ति के बावजूद, गुजरात का किला हाल के अरसे में अंदर से ही बढ़ती चुनौतियों का सामना कर रहा है. दलितों पर ऊना में हुए हमले के बाद हुए जनता के शक्तिशाली प्रतिरोध और पटिदार युवकों के विशाल आंदोलन के सामने पड़कर भाजपा को मोदी की उत्तराधिकारी आनंदी बेन पटेल को, केवल दो वर्ष तक पद में रहने के बाद, मुख्यमंत्री पद से उतरने पर मजबूर कर दिया. मगर ये आंदोलन थमे नहीं हैं - तब से गुजरात प्रतिवादकारी किसानों और विक्षुब्ध व्यापारियों के आंदोलनों से लगातार डगमगा रहा है. यकीनन जीएसटी के बाद देश भर में हुए व्यापारियों के प्रतिवाद की वास्तविक राजधानी सूरत ही बनी है. हाल में हुए राज्य सभा चुनाव में भाजपा द्वारा गुजरात में कांग्रेस के विधायकों को खरीद लेने की बेताब कोशिश और अब मोदी का जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे के साथ रोड शो करने तथा सरदार सरोवर परियोजना के उद्घाटन के साथ अपना जन्मदिन मनाने के कृत्य - सभी गुजरात में भाजपा के हालात देखते हुए उसके शीर्षस्थ नेताओं में फैली घबराहट को ही दर्शाते हैं.

केन्द्र में मोदी शासन के तीन वर्ष बीतने और भारत के राज्यों में अभूतपूर्व संख्या में भाजपा के शासक पार्टी के रूप में उभरने के बाद अब देश भर में यह अहसास बढ़ रहा है कि मोदी शासन देश के अर्थतंत्र के लिये भारी तबाही बनता जा रहा है, और कानून के शासन की हर धारणा को मटियामेट करता दिख रहा है. पेट्रोल और डीजल के दामों में बेहूदा ढंग से की जा रही बढ़ोत्तरी (जबकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल के दाम अब तक के सबसे निचले पायदान पर पहुंच गये हैं) देश के कोने-कोने में लोगों को रोजाना चुभ रही है. कुछ महीनों तक नोटबंदी का अल्पकालीन दर्द सहने के बाद अब हमारा देश उसके मध्यम-अवधि और दीर्घ-अवधि वाले प्रभावों से लड़खड़ा रहा है - रोजगार के अवसर खत्म होने के साथ-साथ लगभग समूचे अर्थतंत्र में चारों तरफ छाई मंदी के चिन्ह स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं. ‘मेक इन इंडिया’ की चीख-पुकार के बावजूद मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में लगातार गिरावट आ रही है और कर्जमाफी के वादे पर भाजपा को वोट देने वाले किसानों को भाजपा-शासित राज्यों में केवल चंद पैसों की कर्जमाफी के छापे हुए सर्टिफिकेट बांटे जा रहे हैं जिन पर मोदी का मुस्कराता चेहरा चस्पां है!

गुजरात और महाराष्ट्र से लेकर असम और बिहार तक, राजस्थान और मध्य प्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश और हरियाणा तक, समूचे देश के लोग भाजपा की विनाशकारी नीतियों और राजनीति की भारी कीमत अदा कर रहे हैं. अब वक्त आ गया है कि इस तबाही के लिये शासकों को जवाबदेह ठहराया जाये. सितम्बर के महीने में विश्वविद्यालयों के छात्रों ने कई प्रमुख कैम्पसों में भाजपा और एबीवीपी के फासीवादी हमलों के खिलाफ अपना जनादेश सुना दिया है. नवम्बर में, जब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होगा, किसान और मजदूर बड़े-बड़े आंदोलनों में उतरने की तैयारी कर रहे हैं. आइये, इस प्रतिरोध भावना की प्रतिध्वनि को गुजरात के आगामी विधानसभा चुनाव में भी गुंजा दें. गुजरात मॉडल के मिथक ने भाजपा को 2014 के लोकसभा चुनाव में देश भर में भारी तादाद में वोट दिलाये हैं. अब लोगों ने अच्छी तरह देख लिया है कि यह मिथक वास्तविकता से कितना भिन्न है, तो अब यह गुजरात मॉडल के रचयिताओं और निर्देशकों के साथ हिसाब चुकता करने का वक्त होना चाहिये, जिन्होंने अब समूचे देश को कॉरपोरेट लूट, साम्प्रदायिक हमलों और तानाशाही-भरे शासन के अनियंत्रित निजाम में तब्दील कर दिया है.