मार्क्स की द्विशतवार्षिकी मानव मुक्ति का लांग मार्च जारी है

‘‘दार्शनिकों ने अब तक केवल विश्व की विभिन्न तरीकों से व्याख्या की है; मगर मसला यह है कि इसे कैसे बदलना है’’: कार्ल मार्क्स (5 मई 1818 - 14 मार्च 1883) अपने जीवन के काफी शुरुआती दिनों में, जब वे केवल 27 साल के थे, इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे. अपने जीवन की आखिरी सांस तक वे अनवरत इसी लक्ष्य की प्राप्ति के काम में लगे रहे, और इसके दौरान उन्होंने उस दुनिया को, जिसमें हम रह रहे हैं, समझने और बदलने के मकसद से किये जाने वाले मानवीय प्रयास की सबसे समृद्ध और सबसे प्रेरणादायक विरासत का सृजन किया. कम्युनिस्ट घोषणापत्र, जिसकी रचना उन्होंने महज 30 वर्ष की उम्र में अपने आजीवन सहयोद्धा फ्रेडरिक एंगेल्स के साथ मिलकर 1848 में की थी, से लेकर अपने सुप्रसिद्ध महाग्रंथ डास कापिटल (पूंजी) तक, जिसका पूर्ण रूप से प्रकाशन केवल उनकी मृत्यु के बाद ही हो सका था, सभी रचनाओं में मार्क्स ‘‘जो कुछ भी विद्यमान है उसकी निर्मम आलोचना’’ - जैसा उन्होंने कहा था, ‘‘उसका परिणाम क्या होगा ... और इसके लिये सत्ताधीशों से कैसा टकराव मोल लेना पड़ेगा!’’, इन दोनों बातों से नहीं डरने के मायनों में ‘‘निर्मम’’ आलोचना के अपने भाव पर सदा अविचल बने रहे.

‘‘जो कुछ विद्यमान है उसकी निर्मम आलोचना’’ के इस भाव और दुनिया को बदलने के अदम्य संकल्प ने मार्क्स को तत्कालीन दुनिया की अधिकांश सरकारों से टकराव में खड़ा कर दिया था. यूरोप के कई देशों द्वारा उनको देशनिकाला दिये जाने के बाद उन्होंने अंततः लंदल को अपना घर बनाया. उन दिनों लंदन दुनिया के सबसे ज्यादा विकसित पूंजीवादी देश और दुनिया की सबसे बड़ी उपनिवेशवादी ताकत की राजधानी भी था. लंदन में बैठकर मार्क्स ने न सिर्फ खुद को अध्ययन, शोध और लेखन में डुबो दिया, बल्कि उतनी ही तन्मयता से वे दुनिया भर में मजदूर वर्ग के क्रांतिकारी आंदोलनों को बढ़ावा देने और उनके बीच अंतर्राष्ट्रीय एकजुटता विकसित करने के काम में भी जुट गये. उन्होंने मजदूर वर्ग के प्रथम अंतर्राष्ट्रीय संगठन (इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स एशोसियेशन) का गठन करने और उन शुरुआती वर्षों के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मजदूर वर्ग आंदोलन में सक्रिय कई वैचारिक धाराओं के एकताबद्ध मंच के रूप में इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन को विकसित करने में भी केन्द्रीय भूमिका निभाई. भारत में 1857 के उपनिवेशवाद-विरोधी विद्रोह से लेकर 1871 में हुए पैरिस कम्यून तक, उन्होंने दुनिया के हर हिस्से में स्वतंत्रता और समाजवाद के उफान को बारीकी से देखा, उसका विश्लेषण किया और उसको प्रोत्साहित किया.

समाज का अध्ययन करने के दौरान मार्क्स ने वर्गों को केन्द्रीय कर्ता की भूमिका में रखा और वर्गों के बीच के संघर्षों को सामाजिक विकास की मुख्य चालक शक्ति के बतौर माना. किसी समाज में जो वर्ग शासक की हैसियत रखते हैं, वे केवल संसाधनों और भौतिक उत्पादन पर अपने नियंत्रण के कारण ही यह हैसियत नहीं हासिल करते, बल्कि वे राज्य और उसके कानूनों एवं दमनकारी मशीनरी पर भी नियंत्रण रखने तथा मानसिक उत्पादन अथवा विचारों के उत्पादन और नियमन के जगत पर भी नियंत्रण रखने के चलते इस हैसियत में होते हैं. ‘‘हर युग में शासक वर्ग के विचार ही शासक विचार होते हैं, यानी, जो वर्ग समाज में शासक भौतिक शक्ति होता है वही वर्ग उस समाज की शासक बौद्धिक शक्ति भी होता है’’- मार्क्स 1845 में ही अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘‘जर्मन विचारधारा’’ में इस बात को लिख चुके थे. इस प्रकार, वर्ग संघर्ष का मार्क्सवादी खाका हर कोण से शासक वर्ग के प्रभुत्व को चुनौती देता है - आर्थिक एवं राजनीतिक कोणों से, और साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक एवं बौद्धिक कोणों से भी.

पूंजीवाद के दौर में शासक विचार वह विचार है जो पूंजी को एक चिरन्तन, शाश्वत और प्राकृतिक, जादुई और अपराजेय चीज बताकर उसको रहस्य के पर्दे में ढक देता है, जिससे वह बुर्जुआ यानी पूंजीपति वर्ग को सबसे सभ्य वर्ग और बुर्जुआ शासन को सर्वोत्कृष्ट और सबसे लोकतांत्रिक बताकर उसका गौरवगान करता है. अपनी तमाम रचनाओं में मार्क्स ने इस मुखौटे को तार-तार करके रख दिया है, उन्होंने हर उस अंतर्विरोध का विश्लेषण किया जो बुर्जुआ शासन के प्राकृतिक, स्थायी और सर्वोच्च होने के दावे को चुनौती देता है और इस प्रकार उन्होंने पूंजी की गति के अब तक अज्ञात ऐसे नियमों को खोज निकाला, जिनके अनुसार पूंजी अनिवार्यतः समय-समय पर आने वाले संकटों को जन्म देती है, और इसमें उन्होंने हर उस पाखंड को उधेड़कर रख दिया जो गुलामी को आजादी बताता है, युद्ध को शांति बताता है, लूट-खसोट को समृद्धि और विनाश को विकास बताता है. मौजूदा सामाजिक शक्तियों की इस वास्तविक गति और विचारों के इस अनवरत जारी युद्ध के जरिये - किसी अमूर्त सिद्धांत और काल्पनिक सपने के आधार पर नहीं - मार्क्स ने समाजवाद और कम्युनिज्म की ओर, सम्पूर्ण मानव मुक्ति की ओर मानवता के मार्च की दृष्टि विकसित की.

उनके जीवनकाल में और उनकी मृत्यु के बाद से, मार्क्स को बारम्बार अप्रासंगिक और पुराना या अनुपयोगी घोषित किया गया है. लेकिन हर बार वे वापस आ जाते हैं, जब सिलसिलेवार ढंग से आने वाली हर पीढ़ी उनकी रचनाओं में कोई नई रोशनी खोज लेती है, जिनसे उन्हें उस दौर की समस्याओं को समझने और उनका समाधान करने की कोशिश में मदद मिलती है. अपनी जीत के उन्माद में मस्त बुर्जुआ वर्ग, जिन्होंने सोचा था कि सोवियत संघ के पतन के बाद उन्होंने अंतिम रूप से मार्क्स के विचारों को कब्र तक पहुंचाने में सफलता हासिल कर ली है, उनके लिये इतिहास एक निष्ठुर शिक्षक साबित हुआ है. जैसे ही उन्होंने इतिहास के अंत की घोषणा की, ठीक उसी समय तत्कालीन वैश्विक पूंजीवाद को एक भारी झटका लगा. 1930 की महामंदी के बाद से अब तक के सबसे दीर्घकालीन और सबसे गहरे संकट से त्रस्त बुर्जुआ विचारक भी अव्यवस्था और उथल-पुथल की वर्तमान स्थिति का कोई मायने-मतलब ढूंढ पाने की कोशिश में आज एक बार फिर मार्क्स की ओर वापसी कर रहे हैं.

जहां भारत में विभिन्न वैचारिक धाराओं के सभी प्रगतिशील और विचारवान लोगों की बहुसंख्या के बीच मार्क्स व्यापक रूप से जाने जाते हैं, उनका सम्मान किया जाता है और उनको पढ़ा जाता है, वहीं मार्क्स को ही सबसे ज्यादा गलत समझा जाता है और गलत मायनों में प्रस्तुत भी किया जाता है. उपनिवेशवाद के पैरवीकार और उसके विरोधी, दोनों तर्क देते हैं कि मार्क्स ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अवरुद्ध एवं पिछड़ेपन से ग्रस्त भारत में इतिहास का प्रगतिशील हस्तक्षेप माना था. भारत के बारे में मार्क्स के विचारों का गलत अर्थ निकालने और उन्हें गलत मायनों में पेश करने का इससे बड़ा नमूना संभवतः दूसरा नहीं मिलेगा. मार्क्स इसके बारे में बिल्कुल स्पष्ट थे कि पूंजी का परिचालन केवल पूंजीवादी देशों के प्रतीयमान रूप से विधि-विधान से नियमबद्ध वातावरण में ही नहीं होता; वे औपनिवेशिक लूट-खसोट के यथार्थ के बारे में और समूची दुनिया से हिंसात्मक तरीके से पूंजी के संचय के बारे में भी पूरी तरह से वाकिफ थे, जिसने वास्तव में पूंजीवाद के उभरने की स्थितियों का सृजन किया था. वे बारीकी से जानते थे कि ‘‘अगर मुद्रा सहजात रूप से अपने एक गाल पर खून का धब्बा लेकर दुनिया में आती है, तो पूंजी सिर से पैर तक खून से सराबोर होकर दुनिया में आती है, जिसके रोम-रोम से खून और गंदगी टपकती रहती है. (पूंजी, खंड 1, अध्याय 31: औद्योगिक पूंजीपति का जन्म-वृत्तांत)

भारत के विशिष्ट संदर्भ में, मार्क्स ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की बर्बरता, उसकी लूट-खसोट और यातना के मर्मभेदी और जबरदस्त आलोचक थे, जो स्पष्ट रूप से स्वीकार करते थे कि ‘‘ब्रिटेन द्वारा हिंदुस्तान पर जो दुर्गति थोपी गई है, वह उन तमाम दुर्दशाओं से, जिन्हें हिंदुस्तान को पहले भोगना पड़ा है, मूल रूप से पूर्णतः भिन्न और अत्यधिक तीखी किस्म की है... अगर हम अपनी नजरों को बुर्जुआ सभ्यता के अपने घर, जहां वह सम्मानजनक चोला ओढ़ लेती है, से उपनिवेशों की ओर घुमा लें, तो बुर्जुआ सभ्यता का अथाह पाखंड और उसकी सहजात बर्बरता नग्न रूप से हमारी आंखों के सामने आ जाती है’’ - मार्क्स ने ये पंक्तियां न्यूयॉर्क हेराल्ड ट्रिब्यून अखबार के लिये जून 1853 में भेजे गये अपने लेख ‘‘भारत में अंगरेजी राज’’ में लिखी थीं. उसी समय, मार्क्स के लिये भारत के ग्राम समुदाय शांति और समृद्धि के रमणीक द्वीप नहीं थे, इसके बजाय वे ‘‘जाति और गुलामी’’ के भेदभाव से प्रदूषित समुदाय थे; और जातियां ‘‘भारतीय प्रगति और भारतीय शक्ति के सामने निर्णायक अवरोध के रूप में मौजूद थीं.’’

मार्क्स इसके बारे में पूर्णतः स्पष्ट थे कि ‘‘अंगरेज पूंजीपति वर्ग चाहे कुछ भी करने पर मजबूर हो जाये, मगर उससे व्यापक जनसमुदाय को न तो मुक्ति हासिल होगी, और न ही उनकी किसी सामाजिक स्थिति में भौतिक रूप से सुधार होगा.’’ और उन्होंने यह बात जुलाई 1853 में ही लिख दी थी, जब ब्रिटिश शासक भारत में एक क्रांतिकारी विकास के बतौर रेलवे के निर्माण के श्रेय का दावा कर रहे थे. उसी लेख में, जिसका शीर्षक ‘‘भारत में अंगरेजी राज के भावी परिणाम’’ था, मार्क्स ने यह तर्क पेश किया कि ‘‘ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग द्वारा समाज में जो नये तत्व बिखेरे गये हैं, भारतीय जनता उनकी फसल तब तक नहीं काट सकेगी जब तक कि खुद ग्रेट ब्रिटेन में वर्तमान शासक वर्गों को हटाकर उनकी जगह औद्योगिक सर्वहारा न आ जाय, या फिर जब तक खुद भारतीय इतने शक्तिशाली न हो जायें कि वे अंग्रेजी जुए को पूरी तरह अपनी गर्दन से उतार न फेंकें.’’ इस प्रकार, मार्क्स ने जुलाई 1853 में ही पूर्ण भारतीय स्वाधीनता का सवाल पेश कर दिया है, जो कि भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम छेड़ने के लिये भारतीयों के एक हिस्से द्वारा विद्रोह में उठ खड़ा होने से चार साल पहले की बात है.

अक्सर यह सुना जाता है कि मार्क्स ने धर्म को ‘जनता के लिये अफीम’ कहकर नीची नजरों से देखा था और तमाम धर्मों पर प्रतिबंध लगाने का आहृान किया था. इसे अगर हम धर्म के बारे में मार्क्स के विचारों की शरारत भरी गलतबयानी न भी कहें, तो भी यह एक चुनिन्दा किस्म का सरलीकरण तो जरूर है. ‘जनता के लिये अफीम’ का मुहावरा एक पैराग्राफ के अंत में आता है, जिसमें कहा गया है, ‘‘धार्मिक पीड़ा एक ही साथ वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति भी है, और वास्तविक पीड़ा के खिलाफ प्रतिवाद भी है. धर्म उत्पीड़ित मनुष्य की आह है, हृदयहीन विश्व का हृदय है, और निष्प्राण स्थितियों की आत्मा है. यह जनता के लिये अफीम है.’’ इसीलिये मार्क्सवाद ने हमेशा ‘‘हृदयहीन विश्व’’ को तथा इसकी ‘‘निष्प्राण स्थितियों’’ को बदलने पर अपने कार्यभार को केन्द्रित किया है, और धर्म को व्यक्ति का निजी विषय मानने पर जोर दिया है, उसे राज्य एवं राज्य द्वारा किये जाने वाले सार्वजनिक कार्यों से सख्ती से अलग रखने पर जोर दिया है.

आज जब हम मार्क्स के जन्म की द्विशतवार्षिकी मना रहे हैं, तो भारत में हम सबसे धर्मान्ध और दकियानूसी शासकों की जमात का शासन झेल रहे हैं, जो वैचारिक बहसो का जवाब घृणा-प्रचार, झूठ और हिंसा से देने की कोशिश कर रहे हैं. हाल ही में त्रिपुरा में मिली आश्चर्यजनक जीत के नशे में उन्मत्त इन अहंकारी लोगों ने लेनिन की मूर्ति को यह कहते हुए गिरा दिया कि वह एक विदेशी प्रतिमा है, जिसका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं है. यही बात वे मार्क्स के बारे में भी कहेंगे. ये ऐसे लोग हैं जो विदेशी कम्पनियों को न्यौता देते हैं कि वे भारत आएं और भारतीय संसाधनों की लूट-खसोट करें, जो ट्रम्प को दुनिया का सर्वोच्च शासक मानकर उसके सामने घुटने टेक देते हैं, और अगर हम इतिहास में वापस जायें तो हमें मिलेगा कि उनके वैचारिक पूर्वज ब्रिटिश उपनिवेशवादी मालिकों के साथ हमेशा सांठ-गांठ के बंधन में बंधे रहे.

और ताकि हम इस मूर्खतापूर्ण भेदाभेद के बहकावे में न आयें कि कोई विचार या हस्ती भारतीय मूल का है या विदेशी मूल का, हमें हमेशा यह भी याद रखना चाहिये कि आरएसएस ने हमेशा विदेशी प्रतीक-पुरुषों को ही अपना आदर्श बनाया है. घटनाक्रम से वे जिस प्रतीक-पुरुष की पूजा करते हैं वह एक अन्य जर्मन व्यक्ति ही था, जिसका नाम था अडोल्फ हिटलर. और ये लोग, जो मार्क्स और लेनिन का विरोध करते हैं, वे ही अम्बेडकर और पेरियार का भी विरोध करते हैं. स्पष्ट है कि वह केवल विचार के मूल उत्पत्ति-स्थान का मामला नहीं है, बल्कि खुद वह विचार है जो विरोध का असली मुद्दा है. वे सभी लोग जो समानता और न्याय, स्वतंत्रता और भाईचारे के पक्षधर हैं और उसके लिये लड़ते हैं, उन्हें हमेशा मार्क्स से प्रेरणा मिलती रहेगी; जबकि समानता के दुश्मन हमेशा इस क्रांतिकारी महापुरुष से प्रचंड भयभीत रहेंगे. मार्क्स के विचारों और उनकी विरासत को और अधिक शक्ति हासिल हो!

- दीपंकर भट्टाचार्य