मोदी सरकार का पांचवा साल इस विनाशलीला का अंतिम वर्ष साबित हो

मोदी सरकार ने अपने शासनकाल के चार वर्ष पूरे कर लिये हैं. क्या अतीत में कोई ऐसा समानान्तर वाकया रहा है, जो हमें मोदी शासन के इन चार वर्षों का आकलन करने में मददगार हो? खुद नरेन्द्र मोदी के लिये तो स्थायी संदर्भ बिंदु नेहरु ही रहे हैं. अपने आपको नेहरु के समकक्ष रखना उन्हें प्रिय है और उन्हें यकीन है कि अगर नेहरू के स्थान पर सरदार पटेल प्रधानमंत्री बने होते तो किस तरह का शासन होता, इसी का स्वाद वे हमें चखा रहे हैं. वास्तव में मोदी ने बारम्बार अपने अनिवासी भारतीय (एनआरआई) श्रोताओं के सामने कहा है कि सदा-सर्वदा से शर्मशार होते आये भारतीयों को केवल 2014 के बाद ही अंततः ऐसा कुछ हासिल हुआ है, कि वे उस पर गर्व कर सकें! एक के बाद एक भाषणों में मोदी तथ्यों और आंकड़ों को तोड़-मरोड़कर पेश करते रहे हैं और इतिहास का आविष्कार करते रहे हैं, ताकि वे अपनी सरकार को एक सुदीर्घ अवधि में हासिल बेहतरीन नियामत के रूप में पेश कर सकें. संघ के समूहों में मोदी शासन के उत्थान को 800 वर्ष बाद किसी ‘‘स्वाभिमानी हिंदू’’ के हाथों में सत्ता की वापसी के बतौर चिन्हित करके उसका स्वागत किया गया था! मिथकों से परिपूर्ण दिमाग वाले अंधभक्तों के लिये मोदी
राम के अवतार से कुछ कम नहीं, जो भारत को उसी तरह से मुक्ति दे रहे हैं जिस तरह राम ने अहिल्या को मुक्ति दी थी!

चार वर्ष पहले जब ढेर सारे वादों के साथ नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद ग्रहण किया था, तो उनके धुर समर्थकों के मिजाज सुस्पष्ट रूप से चढ़े हुए दिखते थे और मतदाताओं के बीच भी उनकी काफी साख थी. आज वह उम्मीद स्पष्ट तौर पर खत्म हो चुकी है और उसकी जगह विश्वासघात और हताशा का बोध बढ़ता जा रहा है. अर्थतंत्र ठहराव में फंस गया है और पिठ्ठू पूंजीवाद के दलदल में गहरे धंस गया है. बैंकिंग क्षेत्र और रेलवे - जो आम भारतीयों की निगाह में आधुनिक भारत के दो सर्वाधिक सुस्पष्ट प्रतीक हैं - ये दोनों कार्यगत दक्षता और सार्वजनिक आस्था, दोनों लिहाज से चरम स्तर पर गिर गये हैं. तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में आई भारी गिरावट - जिसका लाभ आम उपभोक्ताओं तक कभी पहुंचा ही नहीं - के चलते नरेन्द्र मोदी ने बहुचर्चित रूप से खुद को ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में पेश किया था, जो देश के लिये सौभाग्य लेकर आया है. आज पेट्रोल और डीजल की कीमतें आसमान पर चढ़ गई हैं और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में रुपये की कीमत बेलगाम गिरती जा रही है.

जहां तक आर्थिक प्रशासन का सवाल है, अभी तक मोदी सरकार ने तीन ‘निर्णायक’ कदम उठाये हैं - नोटबंदी या विमुद्रीकरण, जीएसटी और लगभग हर सेवा को आधार से जोड़ देना. तीनों कदमों को जिस ढंग से लागू किया गया, उससे साफ पता चलता है कि मोदी सरकार संसदीय लोकतंत्र में आम तौर पर की जाने वाली सलाह-परामर्श की प्रक्रिया और स्थापित प्रथाओं को किस कदर हिकारत की नजर से देखती है - चाहे ये कदम प्रधानमंत्री की नाटकीय घोषणा के जरिये लागू किये गये हों या चोरी-छिपे - ये सारे के सारे कदम अत्यंत विध्वंसक और नुकसानदेह साबित हुए हैं. हर साल दो करोड़ रोजगार के अवसर सृजन करने का वादा एक प्रमुख वादा था, जिसकी वजह से मोदी इतनी बड़ी चुनावी फसल काट सके. और अब ‘रोजगार सृजन’ की जिम्मेवारी को सरकारी या कॉरपोरेट क्षेत्र के कंधों से हटाकर खुद रोजगार खोजने वालों के कंधों पर ही थोप दिया जा रहा है! अब सरकार की भूमिका केवल रोजगार खोजने वालों को पकौड़ा बेचने (या पान की दुकान खोलने या गाय खरीद लेने, जैसा कि त्रिपुरा के नये मुख्यमंत्री बता रहे हैं) की बिन मांगी सलाह देने तक सीमित रह गई है, और अब वे मुद्रा योजना के तहत केवल एक बार मिलने वाली लगभग 50,000 रुपये की छोटी सी रकम के कर्ज का हवाला देकर ‘रोजगार सृजन करने’ का बहकाने वाला दावा पेश कर रहे हैं! और अर्थतंत्र जितना चकराकर नीचे गिर रहा है, उतनी ही तेजी से, उसकी उलटी गति में सरकार का प्रचार बजट लगातार बढ़ता जा रहा है - पिछले चार वर्षों में समूचे भारत में मोदी के जो कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाले सर्वव्यापी इश्तहार लगाये गये, उन पर सरकार ने 4,343 करोड़ रुपये खर्च किये हैं!

अगर लोग सरकार से क्रमशः अधिक से अधिक हतोत्साहित महसूस कर रहे हैं और उनका गुस्सा बढ़ता जा रहा है, तो ऐसा केवल बदतर होती आर्थिक स्थिति की वजह से ही नहीं है. केन्द्र में मोदी सरकार के उत्थान के बाद से हुए विभिन्न राज्यों के चुनावों में भाजपा को एक-के-बाद-एक जीतें हासिल हुईं, जिनके फलस्वरूप समूचे संघ ब्रिगेड का मनोबल बढ़ा है और उसके लगातार नये-नये प्रस्फुटित होते गुंडा गिरोहों और वाहिनियों को तथा भीड़-हत्या वाले गिरोहों को बेलगाम तांडव मचाने की छूट मिल गई है. सरकार ने आम तौर पर इन गिरोहों को मंजूरी देते हुए इनका स्वागत ही किया है और इनको सजा से बेखौफ रहने का लाइसेन्स दिया है. प्रशासन चलाने और लोगों को सुविधा मुहैया करने के बजाय शासन का मतलब हो गया है जनता के ज्यादा से ज्यादा तबकों के खिलाफ आंतरिक जंग छेड़ने के हालात पैदा कर देना. एक-के-बाद-एक विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक वातावरण में सुनियोजित ढंग से जहर घोला जा रहा है, जबकि सरकार छात्रों के खिलाफ अपना दमन अभियान चलाती जा रही है. महिलाओं और लड़कियों को भीषण बलात्कार और हत्या का शिकार बनाया जा रहा है और शासक पार्टी बलात्कार के आरोपियों को बचाने में जुटी है. कश्मीर में लोगों के साथ युद्धबंदियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है, असम में समूचा राज्य शैतानी किस्म के नागरिक संशोधन विधेयक के खिलाफ खड़ा हो गया है, जिस संशोधन में नागरिकता के निर्धारण में लोगों का धार्मिक पहलू से विचार करने के प्रावधान को घुसाने की कोशिश की जा रही है. उत्तर प्रदेश में दलित कार्यकर्ताओं को गोली से उड़ा दिया जा रहा है और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में कैद रखा जा रहा है, जबकि पुलिस को कानून और न्याय के खाके को लांघकर मनमाने कदम उठाने और ‘इनकाउंटर राज’ कायम करने के लिये प्रोत्साहित किया जा रहा है.


संक्षेप में, भाजपा की सत्ता हड़पने और देश भर की सारी संस्थाओं और पदों पर कब्जा जमाने तथा हर क्षेत्र में आरएसएस की विचारधारा और नीतियों को लादने की बेताबी हमारे गणतंत्र के संघीय ढांचे और उसकी संवैधानिक आधारशिला के सामने, तथा हमारी जनता के सभी तबकों की जिंदगी के सामने खुला खतरा बनकर खड़ी हो गई है. भारत में लोकतंत्र ने अतीत में कई चुनौतियां झेली हैं - 1970 के दशक का आपातकाल, इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुआ सिख-विरोधी दंगा, सर्वोच्च न्यायालय और संविधान की खुल्लमखुल्ला अवहेलना करते हुए 1992 में बाबरी मस्जिद को गिराया जाना, 2002 का गुजरात जनसंहार - ये सभी संकटमय दौर रहे हैं, जिन्हें देश कभी आसानी से नहीं भुला सकता. ‘‘तुम किस मुंह से बोलते हो, तुमने तो खुद इससे बदतर किया है’’ - सूप और चलनी का यह तर्क सरकार के हर अपराध और हर संकट को जायज ठहराने के लिये शाही प्रचारकों और विचारकों के सामने सबसे ‘शक्तिशाली’ तर्क बनकर उभरा है, लेकिन जब हम सम्पूर्ण तस्वीर पर नजर डालते हैं तो मोदी राज के इन चार वर्षों में जिस किस्म का सम्पूर्ण विध्वंस सामने आया है, उसकी अतीत में कोई समानता सचमुच खोजे नहीं मिलती.

मगर यह कहना गलत होगा कि आज हम जिस खतरे का सामना कर रहे हैं उसकी हमंे पहले कोई चेतावनी नहीं मिली थी. हम पर जो आपदा छाई है उसको आंकने के लिये हमें अम्बेडकर से दूर कहीं जाने की जरूरत नहीं. ‘‘धर्म के क्षेत्र में भक्ति आत्मा की मुक्ति का रास्ता हो सकती है. मगर राजनीति में भक्ति या नायक-पूजा निस्संदेह रूप से पतन और अंततः तानाशाही की ओ जाने वाला रास्ता होती है.’’ अम्बेडकर के ये शब्द आज एक डरावना सच बनकर सामने आये हैं, जब नायक-पूजा और व्यक्ति-पूजा हमारी राजनीति में किसी भी सुचिन्तित वाद-विवाद को खत्म कर देने का खतरा पेश कर रही हैं. और अगर हम इस जुल्मी शासन की राजनीतिक अंतर्वस्तु को देखें, जो भारत में लोकतंत्र पर ग्रहण बनकर छाई है, तो अम्बेडकर ने बिल्कुल स्पष्ट तौर पर और जोरदार शब्दों में कहा था, ‘‘अगर हिंदू राज सचमुच कायम हो जाता है, तो कोई संशय नहीं कि वह इस देश के लिये सबसे बड़ी आफत होगी.’’ अम्बेडकर ने भारतीयों का आहृान किया था कि वे किसी भी कीमत पर इस आफत को रोकें.

यह एक उत्साहवर्धक तथ्य है कि भारत की जनता ने इस आफत को भांप लिया है और वह अपनी समूची ताकत लगाकर इसके प्रतिरोध की कोशिश कर रहे हैं. किसानों और मजदूरों के संघर्ष, दलितों और आदिवासियों, छात्रों-युवाओं, महिलाओं और आम नागरिकों के संघर्ष, जिनको हम आज समूचे देश में चलते देख रहे हैं, उनमें एक ऐसे शक्तिशाली जन-जागरण की संभावना निहित है जो न सिर्फ जन-गोलबंदी की तादाद बढ़ा सकती है बल्कि उससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण रूप से अधिक शक्तिशाली एवं गहराई में पैठे लोकतंत्र की इच्छा-आकांक्षा और स्वप्नदृष्टि को विकसित कर सकती है. मोदी सरकार का पांचवां वर्ष भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिये निर्णायक मोड़ साबित होगा. रणभूमि में युद्ध-रेखाएं सुस्पष्ट रूप से खिंच चुकी हैं और उन सभी लोगों को, जिन्हें लोकतंत्र से वास्ता है, अवश्य ही हाथ मिलाना होगा ताकि इस जुल्मी शासन को अलविदा कहा जा सके और उस आफत से रिहाई मिल सके जिसकी अम्बेडकर ने सत्तर वर्ष पहले ही चेतावनी दे दी थी.