पहली जंगे-आजादी और मार्क्स

यह वर्ष कार्ल मार्क्स के जन्म का द्विशताब्दी वर्ष है. भारत में जैसे ही मार्क्स और मार्क्सवाद की चर्चा होती है तो विरोधी तुरंत मार्क्स को एक ऐसा विचारक बता कर खारिज करने की कोशिश करते हैं, जो भारत के बारे में कुछ नहीं जानता था. लेकिन क्या सच में मार्क्स भारत के बारे में कुछ नहीं जानते थे ?

जी नहीं, भारत में 1857 की पहली जंगे आजादी का विस्फोट होने के कुछ वर्ष पहले से ही मार्क्स भारतीय समाज को देख रहे थे और उसके बारे में लिख भी रहे थे.

आजीविका चलाने के लिए लंदन से अमेरिका के अखबार न्यू याॅर्क डेली ट्रिब्यून को जो लेख मार्क्स भेज रहे थे, उन्हें यदि आप पढ़ें तो वे 1857 के विद्रोह का आंखों देखा हाल प्रतीत होते हैं. लंदन में बैठ कर उस जमाने में वे इतना सजीव विवरण कैसे पेश कर रहे थे, यह अपने-आप में चैंकाता है. मार्क्स ने 1857 का सिर्फ आंखों देखा विवरण ही नहीं पेश किया बल्कि अपने लेखों में उन्होंने जोर देकर इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ की संज्ञा दी.

भारत के बारे में मार्क्स ने 1853 से लिखना शुरू किया. भारत में अंग्रेजी राज के कायम होने के प्रभाव पर मार्क्स 25 जून 1853 को न्यू याॅर्क डेली ट्रिब्यून में छपे ‘भारत में ब्रिटिश शासन’ शीर्षक लेख में लिखते हैं, ‘‘हिंदुस्तान में जितने भी गृहयुद्ध छिड़े हैं, आक्रमण हुए हैं, क्रांतियां हुई हैं, देश को विदेशियों द्वारा जीता गया है, अकाल पड़े हैं, वे सब चीजें ऊपर से देखने में चाहे जितनी विचित्र रूप से जटिल, जल्दी-जल्दी होने वाली और सत्यानाशी मालूम होती हों, लेकिन वे उसकी सतह से नीचे नहीं गई हैं. पर इंगलैंड ने तो भारतीय समाज के पूरे ढांचे को ही तोड़ डाला है ...’’

इसी लेख में आगे मार्क्स आंकड़ों सहित बताते हैं कि किस तरह अंग्रेजी राज ने यहां के खेती और उद्योग को नष्ट कर दिया. वे लिखते हैं, ‘‘ब्रिटिश आक्रमणकारियों ने आकर भारतीय करघे को तोड़ दिया और चरखे को नष्ट कर डाला. इंगलैंड ने भारतीय कपड़े को यूरोप के बाजार से खदेड़ना शुरू किया; फिर उसने हिंदुस्तान में सूत भेजना शुरू किया; और अंत में उसने कपड़े की मातृभूमि को ही अपने कपड़ों से पाट दिया. 1818 और 1836 के बीच ग्रेट ब्रिटेन से भारत आने वाले सूत का परिमाण 5,200 गुना बढ़ गया. 1824 में मुश्किल से 10 लाख गज अंग्रेजी मलमल भारत आती थी, लेकिन 1837 में उसकी मात्रा 6 करोड़ 40 लाख गज से भी अधिक पहुंच गई. लेकिन, इसी के साथ-साथ, ढाका की आबादी 1,50,000 से घटकर 20,000 ही रह गई. भारत के जो शहर अपने कपड़ों के लिए प्रसिद्ध थे, केवल उनका इस तरह अवनत हो जाना ही इसका सबसे भयानक परिणाम नहीं था...’’


लेकिन भारत पर अंग्रेजों का आधिपत्य कैसे मुमकिन हुआ, इसका भी विश्लेषण मार्क्स करते हैं. वे लिखते हैं, ‘‘यह कैसे हुआ कि भारत के ऊपर अंगरेजों का आधिपत्य कायम हो गया ? महान मुगल की सर्वाेच्च सत्ता को मुगल सूबेदारों ने तोड़ दिया था. सूबेदारों की शक्ति को मराठों ने नष्ट कर दिया था. मराठों की ताकत को अफगानों ने खतम किया और जब सब एक दूसरे से लड़ने में लगे थे, तब अंग्रेज घुस आए और उन सबको कुचल कर खुद स्वामी बन बैठे.’’ (‘भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम’). इस बात का उल्लेख भी मार्क्स  करते हैं कि इस से पहले अरब, तुर्क, तातार, मुगल जो भी आक्रमणकारी आये, वे यहीं के हो कर रह गए. केवल अंग्रेज थे, जिन्हें भारतीय सभ्यता अपने में समाहित न कर सकी.

इसका कारण मार्क्स बताते हैं: अंग्रेज जब इस देश में आये तो वे भारतीय ज्ञान, विज्ञान से कहीं आगे बढ़े हुए थे. मगर साथ ही वे कहते हैं, ‘‘देशी बस्तियों को उजाड़ कर, देशी उद्योग-धंधों को तबाह कर और देशी समाज के अंदर जो कुछ भी महान और उदात्त था, उस सबको धूल-धूसरित करके उन्होंने भारतीय सभ्यता को नष्ट कर दिया. भारत में उनके शासन के इतिहास के पन्नों में इस विनाश की कहानी के अतिरिक्त और कुछ नहीं है.’’

लेकिन मार्क्स सिर्फ अंग्रेजों की आलोचना और भारतीय समाज को उनके द्वारा नष्ट किये जाने का उन पर दोषारोपण ही नहीं कर रहे थे. वे भारतीय समाज के भीतर मौजूद उन तमाम खामियों-कमजोरियों की शिनाख्त भी कर रहे थे, जो भारत के पतन का कारण थीं. ‘भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम’ शीर्षक लेख में मार्क्स कहते हैं, ‘‘एक देश जो न सिर्फ मुसलमानों और हिंदुओं में, बल्कि, कबीले-कबीले और वर्ण-वर्ण में भी बंटा हुआ हो; एक समाज जिसका ढांचा उसके तमाम सदस्यों के पारस्परिक विरोधों और वैधानिक अलगावों के ऊपर आधारित हो; ऐसा देश और ऐसा समाज क्या दूसरों द्वारा फतह किए जाने के लिए ही नहीं बनाया गया था ?’’

एक जगह भारत का बेहद काव्यात्मक वर्णन करते हुए मार्क्स लिखते हैं, ‘‘... उस महान और चित्ताकर्षक देश का पुनरोत्थान अवश्य होगा जिसके निम्न से निम्न वर्गों के भी सौम्य नागरिक होते हैं, जिनकी परवशता में भी एक शांत महानता दिखाई देती है, जिन्होंने अपनी स्वाभाविक तंद्रा के बावजूद अपनी बहादुरी से ब्रिटिश अफसरों को चकित कर दिया हैय्’’ (‘भारत में ब्रिटिश शासन के भावी परिणाम’).

भारत के इस काव्यमय रूप के साथ ही मार्क्स यह भी स्पष्ट कहते हैं, ‘‘लेकिन, हमें यह न भूलना चाहिए कि, ये काव्यमय ग्रामीण बस्तियां ही, ऊपर से वे चाहे कितनी ही निर्दाेष दिखलाई देती हों, पूर्व की निरंकुशशाही का सदा ठोस आधार रही हैं, कि मनुष्य के मस्तिष्क को उन्होंने संकुचित से संकुचित सीमाओं में बांधे रखा है, जिससे वह अंधविश्वासों का असहाय साधन बन गया है, परंपररागत रूढ़ियों का गुलाम बन गया है और उसकी समस्त गरिमा और ऐतिहासिक ओज उससे छिन गया है.’’

‘‘हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन छोटी-छोटी बस्तियों को जात-पांत के भेदभावों और दासता की प्रथा ने दूषित कर रखा है, कि मनुष्य को परिस्थितियों का सर्वसत्ताशाली स्वामी बनाने के बजाय उन्होंने उसे बाह्य परिस्थितियों का दास बना दिया है, कि अपने आप विकसित होने वाली एक सामाजिक सत्ता को उसने एक कभी न बदलने वाले स्वाभाविक प्रारब्ध का रूप दे दिया है, और इस प्रकार, उसने एक ऐसी प्रकृति-पूजा को प्रतिष्ठित कर दिया है जिसमें मनुष्य अपनी मनुष्यता खोता जा रहा है’’. (भारत में ब्रिटिश शासन’).

भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद के बारे में चर्चा करते हुए आम तौर पर यह कहा जाता है कि मार्क्स तो भारत को नहीं समझते थे, उसमें जाति और उसके वर्चस्व के बारे में वे नहीं जानते थे. लेकिन उक्त पंक्तियों से तो स्पष्ट है कि भारत में होने वाले जातीय भेदभाव को मार्क्स बखूबी समझते थे. इसलिए वे साफ तौर पर ‘जात-पांत’ के ‘भेदभाव और दासता’ का उल्लेख कर रहे थे और उसे भारत के पिछड़ेपन के कारण के तौर पर चिन्हित भी कर रहे थे.

भारत में अंग्रेजी राज और भारतीय समाज के गुण-दोषों की चर्चा करते हुए मार्क्स 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह पर पहुंचते हैं. 1857 में भारत में अंग्रेजी राज के आधिपत्य पर चर्चा करते हुए मार्क्स लिखते हैं, ‘‘फूट डालो और राज करो - रोम के इसी महान नियम के आधार पर ग्रेट ब्रिटेन लगभग सौ वर्षों तक अपने भारतीय साम्राज्य पर अपना शासन बनाए रखने में कामयाब हुआ है. जिन विभिन्न नस्लों, कबीलों, जातियों, धार्मिक संप्रदायों और स्वतंत्र राज्यों के योग से उस भौगोलिक एकता का निर्माण हुआ है जिसे भारत कहा जाता है, उनके बीच आपसी शत्रुता फैलाना ही ब्रिटिश आधिपत्य का बुनियादी उसूल रहा है’’.

पर 1857 में अंग्रेजों की यह नीति विफल हो गयी क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम एकजुट होकर अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए. इसका जिक्र करते हुए जुलाई 1857 में मार्क्स लिखते हैं: ‘‘अपने आपसी विद्वेषों को भूल कर, मुसलमान और हिंदू अपने साझे मालिकों के खिलाफ एक हो गए हैं; जबकि हिंदुओं द्वारा आरंभ की गई उथल-पुथल ने दिल्ली के राज्य सिंहासन पर वास्तव में एक मुसलमान बादशाह को बैठा दिया है; जबकि बगावत केवल कुछ थोड़े से स्थानों तक ही सीमित नहीं रही है; और, अंत में, जबकि एंग्लो इंडियन सेना का विद्रोह अंगरेजों के प्रभुत्व के विरुद्ध महान एशियाई राष्ट्रों के असंतोष के आम प्रदर्शन के साथ मिलकर एक हो गया है.’’

उस दौर में भारतीयों की बीच बनती इस एकता का उल्लेख मार्क्स सितम्बर 1857 के लेख में भी करते हैं. वे लिखते हैं, ‘‘मुसलमानों की ही तरह सिख भी ब्राह्मणों के साथ मिलकर आम मोर्चा बना रहे हैं; और इस तरह, ब्रिटिश शासन के विरुद्ध समस्त भिन्न-भिन्न जातियों की व्यापक एकता तेजी से कायम हो रही है.’’ इस एकता के चलते अंग्रेजों में फैलते भय का जिक्र करते हुए, इसी लेख में, मार्क्स लिखते हैं, ‘‘अंगरेजों का यह दृढ़ विश्वास रहा है कि देशी सिपाहियों की सेना ही भारत में उनकी सारी शक्ति का आधार है. अब, यकायक उन्हें पक्का यकीन हो गया है कि ठीक वही सेना उनके लिए खतरे का एकमात्र कारण बन गई है.’’

इस विद्रोह के फैलने के साथ ही अंग्रेजों ने विद्रोही सिपाहियों द्वारा किये जाने वाले ‘अनाचारों’ के बारे में पूरी दुनिया में प्रचार करना शुरू किया, जिससे सिद्ध किया जा सके कि भारतीय विद्रोही बर्बर किस्म के हैं. इस प्रचार का प्रतिवाद करते हुए मार्क्स लिखते हैं कि ‘‘सिपाहियों का व्यवहार चाहे जितना भी कलंकपूर्ण क्यों न रहा हो, पर अपने तीखे अंदाज में, वह उसी व्यवहार का प्रतिफल है जो न केवल अपने पूर्वी साम्राज्य की नींव डालने के युग में, बल्कि अपने लंबे जमे शासन के पिछले दस वर्षों के दौरान भी इंगलैंड ने भारत में किया है. उस शासन की विशेषता बताने के लिए इतना ही कहना काफी है कि यंत्रणा उसकी वित्तीय नीति का एक आवश्यक अंग थी. मानव इतिहास में प्रतिशोध नाम की भी कोई चीज होती है; और ऐतिहासिक प्रतिशोध का यह नियम है कि उसका अस्त्र वे नहीं बनाते जिन्हें त्रास दिया जाता है, वरन स्वयं त्रास देने वाला ही बनाता है.’’

जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है कि मार्क्स ने अंग्रेजों द्वारा 1857 के विद्रोह को सिपाहियों की बगावात सिद्ध करने की कोशिशों के विरुद्ध इसे ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ करार दिया और वे संभवतया पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने ऐसा कहा.

भारत में अंग्रेजों द्वारा विकसित किये जा रहे उद्योगों, रेलवे आदि के संदर्भ में मार्क्स का साफ मत था कि ये तभी उपयोगी होंगे जबकि उत्पादक शक्तियों पर जनता का स्वामित्व हो. उन्होंने लिखा कि ‘‘अंगरेज पूंजीपति वर्ग ने भारतवासियों के बीच नए समाज के जो बीज बिखेरे हैं, उनके फल, भारतीय तब तक नहीं चख सकेंगे, जब तक कि स्वयं ग्रेट ब्रिटेन में आज के शासक वर्गों का स्थान औद्योगिक सर्वहारा वर्ग न ले ले, या जब तक कि भारतीय लोग स्वयं इतने शक्तिशाली न हो जाएं कि अंगरेजों की गुलामी के जुए को एकदम उतार फेंकें.’’

मार्क्स 1853 में ही भारतीय जनता द्वारा गुलामी के जुए को उतार फेंके जाने का ख्वाब देख रहे थे. 1857 का विद्रोह भी मार्क्स के इस सपने की अभिव्यक्ति के तीन बरस बाद हुआ, और भारत में पूर्ण स्वराज की मांग करने वाला प्रस्ताव तो मार्क्स की इस अभिव्यक्ति के 76 साल बाद पारित हुआ.

जो हम से पहले, हमारी पीड़ा को दुनिया के सामने रख रहा था, हम से पहले हमारे आजादी का ख्वाब देख रहा था, वह निश्चित ही हमारा नायक है. इन्द्रेश मैखुरी