दिल्ली में श्रमिकों की हड़ताल सफल रही

ऐक्टू समेत दस केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों द्वारा दिल्ली में 20 जुलाई 2018 को आहूत मजदूरों की हड़ताल जोरदार ढंग से सफल रही. ट्रेड यूनियनें मांग कर रही थीं कि दिल्ली की ‘आप’ सरकार दिल्ली में खुद अपने चुनावी घोषणापत्र में मजदूरों के साथ किये गये वादों को शब्दशः पूरा करे - इतने वर्षों तक सरकार में रहने के बावजूद अभी तक इन वादों को निभाना बाकी रह गया है और मुख्यमंत्री यूनियनों से मुलाकात करने में कतरा रहे हैं. हड़ताल के जरिये श्रम कानूनों में मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे मजदूर-विरोधी संशोधनों की जोरदार ढंग से खिलाफत की गई. साथ ही, हड़ताल की प्रमुख मांगें थीं - तमाम मजदूरों को वैधानिक रूप से स्वीकृत न्यूनतम वेतन देना तथा कानून के अनुसार तमाम मजदूर अधिकारों को लागू करना. तमाम क्षेत्रों में ठेका मजदूरों के नियमितीकरण की मांग भी जोरदार ढंग से उठाई गई. यह मुद्दा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान आम आदमी पार्टी द्वारा जोरशोर से किये गये प्रचार में शामिल था और इसके चलते उसे दिल्ली के मजदूरों का भारी समर्थन हासिल हुआ था.

दिल्ली सरकार ने न्यूनतम मजदूरी की दरें जरूर बढ़ाई थीं, हालांकि वह उस हद तक नहीं थीं जितना कि केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों की मांग थी, फिर भी इससे बड़ी राहत मिली होती अगर वैधानिक रूप से स्वीकृत न्यूनतम मजदूरी को वास्तव में लागू किया गया होता. अकुशल मजदूरों के लिये न्यूनतम मजदूरी 13,896 रुपये थी मगर देश के अन्य हिस्सों की ही तरह इसको दिल्ली में भी कभी लागू नहीं किया जा सका. दिल्ली में बवाना जैसे औद्योगिक इलाकों में आठ घंटे काम के लिये महिला मजदूरों को मासिक 4500-5000 रुपये जितनी कम मजदूरी मिलती है और पुरुष मजदूरों को आम तौर पर 6000-7000 रुपये प्रति माह मिलते हैं. इन फैक्टरियों में हजारों बच्चे भी काम करते हैं. बवाना की फैक्टरी में आग लगने से जो मजदूर मारे गये थे उनमें से बहुतेरे नाबालिग थे और फैक्टरी मालिकों ने उन्हें जलती फैक्टरी के अंदर ताला बंद करके उनको जलकर मरने दिया था. इस मामले में एक को छोड़कर अन्य सभी आरोपी व्यक्तियों को जमानत मिल चुकी है. हालात अभी भी पहले की ही तरह हैं, उनमें रत्ती भर भी बदलाव नहीं हुआ है. इन फैक्टरियों में केवल एक ही दरवाजा होता है और वहां बाहर से तालाबंद दरवाजे के अंदर ही कामकाज चलता है. श्रम कानून का उल्लंघन करते हुए किसी भी फैक्टरी के सामने बोर्ड पर फैक्टरी का नाम अथवा उसके मालिक का नाम नहीं लिखा रहता. किसी भी मजदूर को न्यूनतम वेतन नहीं मिलता, ईएसआई की सुविधा, प्रोविडेंट फंड अथवा बोनस तो दूर की बात है. कुल मिलाकर यहां मालिकों की सरकार है और मालिकों का शासन. यही स्थिति दिल्ली के तमाम औद्योगिक क्षेत्रों में है.

आशा कर्मी, जो केन्द्र सरकार और दिल्ली सरकार की स्वास्थ्य योजनाओं को लेकर घर-घर जाती हैं, उन्हें मात्र 1500 रुपये की मानदेय राशि मिलती है. फैक्टरियों से लेकर घरों तक मजदूरों की सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है, चाहे वे घरेलू मजदूर हों या फिर सफाई या निर्माण मजदूर.

ट्रेड यूनियनों ने बवाना, वजीरपुर, नरेला, भोरगढ़, ओखला और नारायणा समेत सभी औद्योगिक इलाकों में एक संयुक्त अभियान चलाया. इस हड़ताल को जबरदस्त सफलता मिली और सारे औद्योगिक इलाके अधिकांशतः बंद रहे, जबकि हजारों मजदूर सड़कों पर उतर आये और उन्होंने आप सरकार द्वारा अपनी न्यूनतम सामाजिक सुरक्षा एवं सम्मान की गारंटी किये जाने तक संघर्ष चलाते जाने के दृढ़ संकल्प की घोषणा की. ऐक्टू ने विशेषकर वजीरपुर और भोरगढ़ औद्योगिक इलाकों में हड़ताल कराने में अग्रणी भूमिका निभाई.

ट्रेड यूनियनों ने हड़ताल के दिन रामलीला मैदान से केन्द्रीय रूप से एक मार्च भी निकाला जो दिल्ली सचिवालय तक गया जहां उन्होंने दिल्ली सरकार को उसकी वादाखिलाफी की याद भी दिलाई. ऐक्टू की ओर से राष्ट्रीय सचिव संतोष राय ने सभा को संबोधित किया.

ऐक्टू ने दिल्ली के विभिन्न औद्योगिक इलाकों में पिकेट संगठित किये जहां उन्होंने श्रम कानूनों के उल्लंघन तथा धर्म एवं जाति के नाम पर साम्प्रदायिक हिंसा की राजनीति के खिलाफ आवाज भी उठाई. हजारों मजदूरों के बीच परचे भी बांटे गये.