भिलाई स्टील प्लांटः प्रबंधन व श्रम विभाग के संरक्षण में हो रहा ठेका श्रमिकों का घोर शोषण

भिलाई स्टील प्लांट सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लि.) का सबसे बड़ा एकीकृत और मुनाफा देने वाला प्लांट रहा है. यहां की श्रम-उत्पादकता सभी इकाइयों से ज्यादा रही है.

सभी जानते हैं कि नई आर्थिक नीतियां लागू होने से पहले उत्पादन कार्यों में शत्-प्रतिशत् भागीदारी नियमित व प्रशिक्षित कर्मियों की होती थी, किंतु आज स्थिति काफी बदल चुकी है. पहले ठेका श्रमिकों को केवल अनुत्पादक या नॉन-कोर कार्यों में लगाया जाता था. आज स्थिति यह है कि जहां ’80 के दशक में नियमित कर्मियों की संख्या 62,000 थी, वहीं आज उनकी संख्या मात्र 19 से 20 हजार के बीच रह गई है. निजीकरण, आउटसोर्सिंग व ठेकाकरण के दबाव में नियमित कर्मियों की भर्तियां लगभग बंद कर दी गई हैं और अब उनकी जगह ठेका श्रमिकों ने ले ली है और उत्पादन से जुड़े प्रत्येक कार्य में उनकी भागीदारी नियमित कर्मियों से कहीं ज्यादा (लगभग 20 हजार) हो गई है. जबकि अधिकारियों की संख्या आज भी लगभग उतनी ही है.

यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि उत्पादन कार्यों में बड़ी भागीदारी के बावजूद ‘‘समान काम के लिए समान वेतनमान’’ लागू करने की बात तो दूर, ठेका श्रमिकों के लिए राज्य द्वारा बनाए गए श्रम कानून को लागू करवाना ही टेढ़ी खीर साबित हो रहा है. ठेका श्रमिकों को श्रम कानून के दायरे में भुगतान कराने व सुविधाएं मुहैया कराने की जवाबदारी मुख्य नियोक्ता, राज्य के श्रम विभाग और स्थानीय प्रशासन की होती है. किंतु इस संबंध में ऐक्टू की कई शिकायतों के बावजूद प्रशासन, प्रबंधन व श्रम विभाग तीनों का रवैया उपेक्षापूर्ण रहा है. यही कारण है कि ठेकेदारों के हौसले इतने बुलंद हैं कि वे श्रम कानूनों की सरेआम धज्जियां उड़ा रहे हैं. यहां यह जानना भी लाजिमी है कि भाजपा की पिछली सरकार ने 1 मई, 2017 अर्थात् श्रमिक दिवस के दिन ही अपने औद्योगिक व व्यापारिक आकाओं के दबाव में ठेका श्रमिकों की बढ़ी हुई दर में सीधे 50 रूपये की एक बड़ी कटौती कर अपने श्रमिक विरोधी चेहरे को खुद ही उजागर कर दिया था.

गौरतलब है कि न्यूनतम मजदूरी या अन्य सुविधाओं की बात करने और ट्रेड यूनियन की गतिविधियों में शामिल होने पर मजदूरों को काम से निकाल दिया जाना आम बात हो गई है. यही नहीं, ठेका श्रमिकों को न्याय दिलाने के लिए ईमानदारी से आवाज़ उठाने वाले श्रमिक नेताओं को जान से मारने की धमकी देने व उन पर कातिलाना हमला करने से भी ठेकेदार जरा भी नहीं हिचकते. 

हालिया, 7 मई को ड्यूटी जाने के दौरान सीटू से संबंधित श्रमिक नेता योगेश सोनी पर ठेकेदार गैंग के लोगों ने धारदार हथियारों से कातिलाना हमला कर दिया था जिसमें निशाना चूक जाने से श्रमिक नेता की जान तो बच गई, किंतु उनके शरीर में गहरे जख़्म बन गए थे जिसमें लगभग सत्रह टांके लगाने पड़े थे. इस हमले में शामिल अपराधियों की गिरफ़्तारी भी काफी दबाव बनाने के बाद की गई.

ठेकेदारों की इस तरह दिनदहाड़े गुंडागर्दी से यह साबित हो गया है कि उन्हें प्रबंधन व शासन-प्रशासन का संरक्षण मिला हुआ है और श्रमिकों के श्रम की लूट में पूरा तंत्र भागीदार है.

कहने के लिए भिलाई स्टील प्लांट में ठेका श्रमिकों की चार कैटेगरी बनाई गई है - अकुशल, अर्द्धकुशल, कुशल और अतिकुशल. किंतु ऐक्टू को सर्वे में पता चला है कि बहुत लंबे समय से काम कर रहे ज्यादातर ठेका श्रमिकों को भी अब तक कुशल या अतिकुशल कैटेगरी से वंचित ही रखा गया है. यही नहीं, अकुशल या अर्द्धकुशल कैटेगरी की न्यूनतम मजदूरी का भुगतान भी नहीं किया जाता. न्यूनतम मजदूरी के साथ ही उनकी भविष्य-निधि में भी बड़े पैमाने पर धांधली की जा रही है. यही हाल ईएसआई का भी है. कई ठेका श्रमिक तो ईएसआई की सुविधा से ही वंचित हैं. बहुत से ठेका श्रमिकों को ईएसआई कार्ड मुहैया ज़रूर कराए गए हैं, किंतु ईएसआई के नाम पर उनके वेतन से काटी गई रकम और ठेकेदारों का अंशदान उनके खातों में जमा ही नहीं किया जाता. इस बात का खुलासा तब हो पाता है जब उन्हें ईलाज़ के दौरान बड़ी राशि की जरूरत पड़ती है और उनके खाते में जीरो बैलेंस दिखाया जाता है.

ठेका श्रमिकों को न तो हाजिरी कार्ड दिया जाता है, न पूर्ण विवरण के साथ वेतन-पर्ची दी जाती है. उन्हें भविष्य-निधि पर्ची भी नहीं दी जाती. ठेका श्रमिकों को वेतन का भुगतान नियमतः महीने की 10 तारीख़ तक अनिवार्य रूप से कर दिया जाना चाहिए, किंतु हक़ीक़त यह है कि 15, 20 या 25 तारीख़ से पहले भुगतान ही नहीं किया जाता. ठेका श्रमिकों की सुरक्षा व उनके प्रशिक्षण कार्यक्रमों को लेकर भी प्रबंधन का रवैया हमेशा उदासीन रहा है जिसके चलते अकसर वे दुर्घटना के शिकार होते हैं (यह प्लांट दुर्घटनाओं के लिये कुख्यात है) और कई बार उनकी मौत भी हो जाती है, और उनकी मौत होने पर उसकी जिम्मेदारी लेने व उचित मुआवजे को लेकर भी प्रबंधन का रवैया नकारात्मक होता है.

सीवरेज व ड्रेनेज के सफाई कार्यों में लगे ठेका श्रमिकों को साबुन, गमबूट व दस्ताने की मांग लंबे समय से की जा रही है, किंतु सहायक श्रमायुक्त के आदेश के बावजूद श्रमिकों को ये सुविधाएं अब तक उपलब्ध नहीं हैं. ऐक्टू के संघर्षों के फलस्वरूप उन्हें न्यूनतम मजदूरी तो हासिल हो रही है, किंतु अब तक उन्हें कुशल श्रमिक का दर्जा नहीं दिया गया है. यह भी विडंबना है कि सीवरेज लाइन के मेन होल की सफाई मशीनों से कराए जाने के बजाय अब भी मैनुअल तरीके से कराई जा रही है जो अत्यंत जोखिमपूर्ण है जिसकी शिकायत भी सहायक श्रमायुक्त और प्लांट प्रबंधन से अनेक बार की जा चुकी है, किंतु प्रबंधन इस पर अब तक गंभीर नहीं है.

यह ज्ञातव्य है कि ऐक्टू ने मांग की है कि ठेका श्रमिकों को भी यूनियन-मान्यता के चुनाव में मत देने व अपनी प्रतिनिधि यूनियन चुनने का लोकतान्त्रिक अधिकार दिया जाय. ऐक्टू ठेका श्रमिकों को संगठित करने के लिये निरंतर प्रयासरत है, उनके मुद्दों पर निरंतर संघर्षरत् है, और ठेका मजदूरों की आवाज को सतत् उठाने के मामले में उसकी एक अलग पहचान है. किंतु ठेका श्रमिकों के बीच काम से निकाल देने का ऐसा आतंक बनाया गया है कि उन्हें संगठित करना और उनके श्रम-अधिकारों की लड़ाई लड़ना एक बड़ी चुनौती है जिसका मुकाबला करने के लिये ऐक्टू प्रतिबद्ध है. - श्याम लाल साहू, महासचिव, सेंटर ऑफ स्टील वर्कर्स