मजदूर वर्ग की सामाजिक भूमिका और राजनीतिकरण

(प्रस्तुत है 31 अगस्त-1 सितंबर को भुवनेश्वर में आयोजित हुई राष्ट्रीय कार्यशाला में चर्चा किया गया तीसरा व अंतिम पेपर).

”असल में, ऐसे मंडलों (सामाजिक जनवादी) के अधिकतर सदस्य एक आदर्श नेता के तौर पर उसे देखते हैं, जो एक समाजवादी राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि ट्रेड यूनियन सचिव के रूप में काम करता है. चूंकि किसी भी ट्रेड यूनियन का सचिव, मान लीजिए ब्रिटिश, हमेशा मजदूरों को आर्थिक संघर्ष चलाने में मदद करता है, वो उन्हें फैक्टरी में होने वाले शोषण का पर्दाफाश करने में मदद करता है, वो कानून द्वारा अन्याय और हड़ताल व धरने के अधिकार को कमजोर करने वाले कदमों के बारे में समझाता है (जैसे, सभी को ये चेतावनी देता है कि हड़ताल अमुक फैक्टरी में चल रही है), बुर्जुआ वर्ग से ताल्लुक रखने वाले आर्बिट्रेशन कोर्ट के जजों के भेदभाव वाले व्यवहार के बारे में बताता है, आदि, आदि. संक्षिप्त में कहा जाए तो हर ट्रेड यूनियन सचिव ”सरकार और मालिकों के खिलाफ आर्थिक संघर्ष” चलाता है और चलाने में मदद करता है. पर इस बात को हम जितना जोर देकर कहें थोड़ा है कि बस इतने से ही सामाजिक-जनवाद नहीं हो जाता. सामाजिक-जनवादी का आदर्श ट्रेड यूनियन सचिव नहीं होना चाहिए, बल्कि एक ऐसा जन नायक होना चाहिए, जो दमन और अन्याय के हर प्रतिरूप पर, फिर चाहे वो कहीं भी दिखे, या फिर किसी भी वर्ग के लोग उससे प्रभावित होते हों, प्रतिक्रिया जाहिर कर सके; जो इन सभी प्रतिरूपों का सामान्यीकरण कर सके और उनमें से पूंजीवादी शोषण और पुलिसिया हिंसा की एक अविभाज्य तस्वीर दिखा सके; जो हर घटना का, चाहे वो कितनी भी छोटी हो, फायदा उठा सके, ताकि वह अपने समाजवादी विश्वासों और लोकतांत्रिक मांगों को सभी लोगों को समझा सके, वह सबको सर्वहारा के मुक्ति संग्राम के वैश्विक और ऐतिहासिक महत्व के बारे में आसानी से और साफ-साफ समझा सके.’’ - लेनिन, क्या करें?

क्या वर्ग खत्म हो गए हैं - कुछ बहसें

पूंजीवाद के इस नव-उदारवादी दौर में मजदूर वर्ग के बदलते स्वरूप के संदर्भ में, कई बहसें चल रही हैं, जिनमें ये कहा जाता है कि वर्ग खत्म हो गए हैं, और अब वर्ग विश्लेषण से जनता को गोलबंद करने में मदद नहीं मिल सकती. हम इसे आर्थिक आधार पर संकुचित करने वाला दृष्टिकोण मानते हैं. वर्ग एक बहु-आयामी, व्यापक श्रेणी है और इसे सिर्फ किसी आर्थिक श्रेणी में बांधा नहीं जा सकता. कुछ ऐसे लेखक भी हैं जो असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को व्यापक रूप में ”सर्वहारा” तक मानने को तैयार नहीं हैं, और वो उन्हें सिर्फ ”प्रीकारिएत” (अनिश्चित श्रेणी का मजदूर) मानते हैं. हम इसे वर्गीय श्रेणियों को समझने का एक गै़र-द्वंद्ववादी तरीका मानते हैं. कोई भी व्यक्ति जो, अपनी आजीविका के लिए, अपनी मानसिक या शारीरिक, श्रम-शक्ति को बेचता है, वो श्रमिक वर्ग से आता है. मजदूर वर्ग को टुकड़े-टुकड़े करने से उनके मजदूर के दर्जे से इनकार नहीं किया जा सकता. किसी ”मजदूर” के ”सर्वहारा” बनने की प्रक्रिया उसके राजनीतिकरण की प्रक्रिया है और इसी तरह से ”खुद में वर्ग होना” ”खुद के लिए वर्ग होने” में बदलता है.

समय की मांग ये है कि भारतीय परिस्थिति के नव-उदारवादी चरण में ठोस परिस्थितियों में मार्क्सवाद का इस्तेमाल किया जाए और एक व्यापक विचार एवं ”वर्ग” की समझ तक पहुंचा जाए. ऐसा करने से हम भारतीय परिस्थितियों में वर्ग की बहुआयामी और व्यापक समझ तक पहुंचते हैं जो हर तरह के दमन, जिसमें जाति, साम्प्रदायिकता और लिंग आधारित दमन भी शामिल है, को समाहित करती है. इस मामले में ये समझा जाना चाहिए कि, वर्ग की कोई ”शुद्ध” श्रेणी नहीं होती, यहां तक कि ”मजदूरों” की वो श्रेणी भी नहीं, जो हमारे जैसे, पुराने सामंतवादी अवशेषों का भार ढ़ोते, पिछड़े पूंजीवादी देश में होती है.

वर्ग की श्रेणी को सिर्फ संगठित क्षेत्र के मजदूरों तक सीमित नहीं किया जा सकता. आईटी सेक्टर के उच्च वेतन वाले कर्मचारियों से लेकर ग्रामीण क्षेत्र में चंद सिक्कों के लिए मरम्मत का काम करने वाले तक, सभी एक ही श्रमिक वर्ग का हिस्सा हैं. मजदूरों की प्रकृति में बदलाव और उनमें विखंडीकरण हमें उन्हें मजदूर वर्ग की श्रेणी में डालने से नहीं रोक सकता. अगर पूंजी की नीति मजदूरों को उनकी पहचान, वेतन, अनौपचारिकता, कानूनी संरक्षण आदि के नाम पर बांटना है, तो मजदूर वर्ग आंदोलन को मजदूर वर्ग की व्यापक और मुख्तलिफ श्रेणियों को संगठित और एकताबद्ध करने की वकालत करके, उस नीत का प्रतिरोध करना चाहिए. हमें वर्ग के ढांचे के भीतर पहचानों की विभिन्न श्रेणियों को समाहित करने के प्रभावशाली तरीके विकसित करने होंगे. मिसाल के तौर पर, स्कीम कामगारों और सफाई कर्मचारियों में अधिकांश महिला कामगार हैं. जब हम उन्हें मजदूर वर्ग के तौर पर संगठित करते हैं तो हमें सामाजिक सम्मान और लिंग आधारित हिंसा के पहलू भी जोड़ने चाहिए, और ये हमारे मजदूर वर्ग के बीच काम का हिस्सा होना चाहिए. काम की प्रकृति, वेतन और सुरक्षा, सामाजिक और रोजगार की सुरक्षा, मांगों के चरित्र और अपेक्षाओं में भारी अंतर हो सकता है. लेकिन फिर भी वे सभी एक ही मजदूर वर्ग का हिस्सा हैं.

उदारीकरण और दक्षिणपंथी विचारों का उभार

हम ट्रेड यूनियन के स्तर पर मजदूरों के आर्थिक मामलों को संबोधित करने और विभिन्न तरीकों से उनके राजनीतिकरण के काम को कर रहे हैं. लेकिन, कुछ समय से, रोजमर्रा के ट्रेड यूनियन काम में हमारे ज्यादा व्यस्त होने की वजह से, ट्रेड यूनियन वाला पहलू हावी हो गया और हमारे काम का राजनीतिक पहलू, जाहिर है, हमारे नेक इरादों के बावजूद, कमतर रह गया या पीछे चला गया. हालांकि, अखिल भारतीय स्तर पर केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ सभी मान्यता प्राप्त केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के साझा मंच के ज़रिए हमारी ऊपर से पहलकदमियां लगातार चल रही हैं और राज्य स्तर पर भी ये पहलकदमियां जारी हैं. अब हम ऐसे पड़ाव पर आ गए हैं, जहां, कम से कम, हमारे अपने मजदूर वर्ग के आधार का एक छोटा हिस्सा, जो हमारे ही झंडे तले संगठित है, वो साम्प्रदायिक, मनुवादी और फासीवादी राजनीतिक विचारों और प्रभाव का शिकार बना है. हमें आत्मनिरीक्षण करना होगा, इसके कारणों को समझना होगा, और वर्गीय आधार पर प्रभावशाली राजनीतिकरण के लिए तरीके निकालने होंगे.

ऐसा नहीं है कि हमारे अपने ही आत्मगत व आंतरिक कारणों की वजह से राजनीतिकरण का पहलू पीछे रह गया है, बल्कि इसका मुख्य कारण, पिछले तीन दशकों में उदारीकरण की नीतियों को लागू करने से देश की औद्योगिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थितियों में हुआ बदलाव जिम्मेदार है. नयी परिस्थितियों ने देश के मजदूर वर्ग आंदोलन के सामने नई चुनौतियां पेश की हैं. अनौपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी के तेजी से बढ़ने, और औपचारिक क्षेत्रों में भी अनौपचारिक कामगारों के उच्च अनुपात के चलते मजदूर वर्ग की संरचना में आया बदलाव कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पक्ष में गया है. तो, मजदूरों का राजनीतिकरण तो छोड़िए, हमें मजदूरों को ट्रेड यूनियन तले संगठित करने तक में चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. संगठित क्षेत्र में, स्थाई, कमोबेश स्थिर श्रमशक्ति, जो अपने कार्यस्थल से पहचानी जाती है, वही ट्रेड यूनियन का आधार रही है. लेकिन ये संख्या बहुत तेजी से घट रही है. आज मजदूर वर्ग में ठेका, अप्रेंटिस, ट्रेनी, जैसे बहुत ही अनियमित और अन्य तरह की अनौपचारिक श्रम शक्ति की तादाद ज्यादा है. ऐसे में, उनका राजनीतिकरण और उन्हें संगठित करने के लिए भी हमें कुछ खास सचेतन प्रयास करने होंगे और ढांचे तैयार करने होंगे.

साम्प्रदायिक फासीवाद का शिकार बने मजदूरों से संबंधित एक अनुभव

”द इन्फॉर्मल इकॉनॉमी एंड इंडियन वर्किंग क्लास - अनईवन एंड कंबाइंड डेवलपमेंट” में श्री बिल क्रेन की एक दिलचस्प टिप्पणी है, जो कि मजदूर वर्ग खासतौर से अनौपचारिक मजदूरों के साम्प्रदायिकीकरण की प्रक्रिया को अच्छी तरह दिखाता है, जो इस प्रकार हैः

”...उनका औपचारिक रोजगार खत्म हो गया, तो कपड़ा मजदूर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में शामिल हो गए. उनमें से जो भाग्यशाली थे उन्हें पॉवर-लूम प्रतिष्ठानों में बुनकरों का काम मिल गया, जहां उन्हें ज्यादा देर तक काम करना होता था, लेकिन उनकी आमदनी मिल के मुकाबले आधे से भी कम थी. मिलों के बंद होने पर दलित (भारत की सबसे पिछड़ी जातियों के सदस्य) और मुस्लिम सबसे ज्यादा प्रभावित हुए जिन्हें इन मिलों से बेहतर जीवन का मौका मिला था. राज्य सरकार ने पुराने मिल मजदूरों को अपने-अपने लघु उद्योग लगाने के लिए प्रोत्साहित किया, उनमें से कुछ ने रेहड़ी-खोमचा लगाने, रिक्शा खींचने या मरम्मत करने के काम करने जैसे छोटे-मोटे काम-धंधे करने की कोशिश की. उनमें से कई ऐसा नहीं कर पाए, क्योंकि वो नये काम करने के लिए पैसा नहीं जुटा पाए, और जो इसमें सफल रहे, वो एक बार बिजनेस शुरु करने पर, आजीविका कमाने के लिए आत्म-शोषण, और अपने ही परिवार के शोषण के विध्वंसक चक्र में फंस गए. अन्य मिल मजदूरों को हफ्ते में सिर्फ एक या दो दिन के लिए दिहाड़ी मजदूरी या सिक्योरिटी गार्ड जैसे काम मिले; बाकी जो अब बूढ़े हो गए थे, या दशकों तक सूत के तंतुओं के फेफड़ों में जम जाने की वजह से बाईसिनोसिस के मरीज़ बन गए थे, उन्हें कोई काम नहीं मिला.

”जब मिलों को तोड़ा गया तो अचानक ये साफ हो गया कि वो मजदूर और समुदाय जो अहमदाबाद से आए थे, उन्होंने नौकरी के साथ और बहुत कुछ खो दिया है. 2002 में, शहर में दंगे भड़क गए जिनके दौरान, पूरे गुजरात की तरह, यहां भी मुस्लिमों का जनसंहार किया गया. शहर में इससे पहले भी साम्प्रदायिक दंगे हुए थे, लेकिन मिल और उसके आस-पास के समुदाय अकसर उनसे अलग ही रहे थे. लेकिन अब, पूर्व मजदूरों ने खुद को एक संगठित और संकेन्द्रित वर्ग के तौर पर नहीं देखा बल्कि ग़रीब मजदूरों, छोटे कामगारों, और बेरोजगारों की भीड़ के तौर पर पाया. अब वे अपर्याप्त संसाधनों के लिए एक-दूसरे से लड़ रहे थे, वे शहरी अर्थव्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर थे, वे अपने सुरक्षा के प्राथमिक स्रोत के तौर पर अपने-अपने धर्म और जातियों की तरफ चले गए जो, उनके बेकार हो जाने के बाद उनकी एकमात्र बची हुई सामाजिक पूंजी थी. इसके चलते वो आरएसएस-भाजपा जैसी राजनीतिक ताकतों और तात्कालिक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का आसान शिकार बन गए, जो उन्हें साम्प्रदायिक आधार पर बांटना चाहते थे. जेन ब्रिमैन का कहना है कि इसी वजह से, ”बीसवीं सदी के अंत में शहरी अर्थव्यवस्था के औपचारिक क्षेत्रों से मजदूरों की भारी संख्या में छंटनी और साम्प्रदायिक हिंसा के फूट पड़ने में सीधा संबंध दिखता है.”

तब अनौपचारिकता, मजदूरों की गरीबी और निराशा और साम्प्रदायिक दंगे, और अब फासीवादी विचारधारा का हमला, उन्हें फासीवादी राजनीतिक प्रभाव का आसान शिकार बना देता है. अंतर्राष्ट्रीय उदाहरण ये दिखाते हैं कि छोटी कंपनियों के मालिक, ग़रीब और बेरोजगार फासीवादियों का सामाजिक आधार बनते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के लगातार खत्म होने, औपचारिक क्षेत्र के लगातार हाशिए पर ढकेले जाने, और अनौपचारिक क्षेत्र के लगातार बढ़ने से मजदूरों के बीच ग़रीबी, बेरोजगारी और निराशा बढ़ती है. इसका नतीजा ये होता है कि वो अपने असली दुश्मन यानी सत्ताधारी वर्ग, राज्य और सरकारी नीतियों को निशाना बनाने की बजाय मुस्लिमों, दलितों और वामपंथियों में अपने काल्पनिक दुश्मन को ढूंढने लगते हैं. अंततः उन्हें साम्प्रदायिक, कॉरपोरेट फासीवादी राजनीतिक विचारों और ताकतों द्वारा अपना लिया जाता है, जिनमें वे खुद की दुर्दशा, गरीबी, बेरोजगारी और दुख का हल खोजते हैं. अगर हमें इनसे लड़ना है तो हमें एक ओर फासीवादी राजनीति के खिलाफ अपने संघर्ष को और तेज़, ज्यादा धारदार बनाना होगा, और मजदूर वर्ग के विभिन्न हिस्सों में अपने विचारधारात्मक अभियान को और सघन करना होगा. दुर्भाग्य से, हमारे ज्यादातर अभियान दूसरे या तीसरे स्तर के नेतृत्व और बहुत छोटे से आधार में अटक जाते हैं और जमीनी स्तर पर व्यापक मजदूरों तक उनकी पहुंच नहीं बन पाती. जबकि फासीवादी विचार धार्मिक त्यौहारों, रीति रिवाजों के द्वारा और कॉरपोरेट संचालित मीडिया और बड़े स्तर पर बहुत ही सुगठित और सुविचारित गोयबल्सवादी प्रचार (हिटलर के जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ) के ज़रिए हर घर तक पहुंच रहे हैं. हमें अपने जन राजनीतिक अभियानों को जमीनी स्तर तक पहुंचाने के लिए अतिरिक्त प्रयास करने होंगे.

रेडिकलिज्म और राजनीतिकरण

हमें वर्ग राजनीति के साथ मजदूरों के असल जीवन के मुद्दों और अनुभवों को जोड़कर फासीवादी विचारधारा और राजनीतिक प्रभावों का पर्दाफाश करना होगा और उनका मुकाबला करना होगा. अगर हाल में शुरू किये गये सफाई मजदूर अधिकार अभियान (सम्मान) नामक फोरम हमारे मजदूर वर्ग के काम में सामाजिक सम्मान के पहलू को जोड़ने का एक तरीका है तो, ऐसे फोरम हमारे काम में इसी तरह के अन्य पहलुओं को जोड़कर ऐसी प्रतिकूल विचारधाराओं का प्रतिवाद करने का तरीका हो सकते हैं. ऐसे ही हमारे प्रतिवादी अभियानों को अपने काम का अंतर्निहित हिस्से के तौर पर ”सम्मान” जैसे फोरम के बनाने के बारे में सोचा जा सकता है, और साथ ही इन अभियानों को औपचारिक और अमूर्त राजनीति का शिकार बनने से रोका जा सकता है.

राजनीतिकरण कोई काल्पनिक मामला नहीं है. मजदूरों की राजनीतिक चेतना को एक स्तर से दूसरे स्तर तक बढ़ाना राजनीतिकरण की प्रक्रिया की शुरुआत होती है. असंगठित मजदूरों का यूनियन में संगठित होना उनकी चेतना के बढ़ने का एक स्तर है. अगर मजदूर जो अपने मालिक से इतना डरे हुए हैं, वही उसके खिलाफ विद्रोह की शुरुआत करें और अपने अधिकारों की मांग करें तो ये भी उनकी चेतना में एक और वृद्धि है. अपने संघर्ष को फैक्टरी की दीवारों से निकाल कर राज्य के खिलाफ संघर्ष करना, अन्य क्षेत्रों के संघर्षरत मजदूरों और संघर्षरत जनता का सहयोग करना, उनकी राजनीतिक चेतना के बढ़ने का प्रतीक है. आखिरकार, मजदूर वर्ग को यह आत्मसात करना होगा कि अपनी दासता की बेड़ियों से मुक्ति और समाज के अन्य हिस्सों की दमित जनता की मुक्ति का एकमात्र हल शोषक पूंजीपति वर्ग से सत्ता छीनना है. इस आधारभूत स्तर की राजनीतिक चेतना को पाने की प्रक्रिया का इस तरह के टेढ़े-मेढ़े, आड़े-तिरछे, मुश्किल राजनीतिकरण के रास्ते से गुजरना आवश्यक है. मजदूर वर्ग के राजनीतिकरण का कोई एक, आसान, हाथों-हाथ काम करने वाला फार्मुला नहीं है. ये काम सिर्फ बार-बार करने से ही हो सकता है, और इसी तरह से मजदूर वर्ग अन्य देशों जैसे सोवियत रूस, चीन, क्यूबा आदि में भी सफलतापूर्वक शोषक वर्ग की सत्ता को पलट चुका है. मजदूर वर्ग का आगे बढ़ता कारवां कई विघ्न-बाधाओं, धक्कों और हिंसक दमन के बावजूद आगे ही बढ़ता जाएगा.

‘फोरम’ - राजनीतिकरण और असंगठितों को संगठित करने के केन्द्र के तौर पर

शुरुआत में जब हमने फोरम के तौर पर काम करना शुरु किया था, तब हमने फोरम को ग्राम्शी की ‘परिषद’ या लेनिन के ‘सोवियत’ के समकक्ष सोच कर बनाया था, जो कि भविष्य में सर्वहारा की राजनीतिक सत्ता की मूलभूत इकाई बनी थीं. इसके अलावा, जब हम फ्रैक्शनल कार्य में लगे तो इसका खास औचित्य था. और इन फोरमों ने आने वाले समय में हमारे ट्रेड यूनियन के कामकाज के मूलभूत केन्द्रों को विकसित करने का काम किया. दुर्भाग्य से एक समय पर आकर, कुछ जगहों पर यही फोरम कष्टसाध्य जमीनी ट्रेड यूनियन काम से बचने का रास्ता बन गया. तब हमने, अपनी खुद की ट्रेड यूनियनें विकसित करने, फ्रैक्शनल काम से हटने और साथ ही ऐक्टू के बतौर ट्रेड यूनियन केंद्र के निर्माण की प्रक्रिया में इस काम को छोड़ दिया.

लेकिन अब इस नई परिस्थिति में जब फासीवादी विचारधारा और राजनीति का हमला तेज़ हो रहा है हमें नई भूमिका और उद्देश्यों के साथ फिर से फोरम बनाने होंगे. आज के हालात में, मजदूरों के बीच साम्प्रदायिक फासीवाद के वैचारिक, राजनीतिक प्रचार का मुकाबला करने के लिए फोरम बहुत कारगर तरीका हो सकता है और यह मजदूरों के राजनीतिकरण के प्रारंभिक केन्द्र के तौर पर भी कार्य कर सकता है.

हमारे पास मजदूरों की नौकरी से संबंधित मुद्दों को तत्काल संबोधित करने के लिए अलग-अलग ट्रेड यूनियन हैं; हमारे पास शासन की मजदूर विरोधी नीतियों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए ट्रेड यूनियन केंद्र है. लेकिन, मजदूर वर्ग के आंदोलन के भीतर से और ट्रेड यूनियन के ढांचे के बाहर से मजदूरों के राजनीतिकरण के लिए मूलभूत संस्था या ढांचा नहीं है. हालांकि ऐसे में ज्यादातर जगहों पर कम्यूनिस्ट पार्टियां मौजूद हैं, लेकिन उनकी बहुत ही अलग भूमिका होती है. हमें कोई ऐसा तरीका निकालना होगा जिसमें हम अलग-अलग ट्रेड यूनियनों, ट्रेड यूनियन केंद्र और फोरमों के कामकाज को एकीकृत कर सकें.

जहां हमारी ट्रेड यूनियन नहीं हैं, खासतौर पर असंगठित क्षेत्र में, वहां फोरम जन राजनीतिक अभियानों और मजदूर वर्ग में काडर निर्माण के लिए, संपर्क और केन्द्रक विकसित करने के लिये मजदूरों के स्टडी सर्कल आयोजित करने, पर जोर दे सकता है. नवउदारवादी हमलों और बढ़ते अनौपचारीकरण के संदर्भ में भी फोरम मददगार हो सकते हैं, और ये अनौपचारिक क्षेत्र में मजदूरों को संगठित करने की दिशा में पहला कदम हो सकते हैं. मजदूरों को ही फोरम चलाने की जिम्मेदारी दी जा सकती है जबकि वरिष्ठ नेता उनका दिशा निर्देशन कर सकते हैं, उनके सलाहकार बन सकते हैं. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि इन फोरमों के सक्रिय कामकाज से वरिष्ठ नेताओं की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है. इन फोरमों का नाम और उनकी बुनावट जमीनी स्तर की कमेटियों की रचनात्मकता और कल्पनाशीलता पर छोड़ी जा सकती है कि वे स्थानीय ज़रूरत के अनुसार तय कर लें. यहां स्थानीय का मतलब आवश्यकतानुसार उद्योग, वार्ड, मुहल्ला और पंचायत से लेकर औद्योगिक क्षेत्र, बेल्ट और ज़िला, आदि हो सकता है. राज्य समितियों को इस प्रक्रिया को तेज़ करना चाहिए.

राजनीतिकरण की अंतर्वस्तु

हमारे पास पहले से ही विभिन्न फोरमों में इस तरह का काम हो रहा है. कई जगहों पर हमारे बिरादराना युवा एवं छात्र संगठन इस तरह की भूमिका निभाते हैं जिनके ज़रिए श्रीपेरुम्बुदूर के युवा मजदूर और दिल्ली के सफाई कर्मचारी संगठित हुए. बिहार जैसे राज्य में हमें आइरला के काडर दिखते हैं जो ग्रामीण इलाकों में असंगठित मजदूरों को संगठित करने में महती भूमिका अदा करते हैं. कर्नाटक में भी हम युवा वाहिनियां बनाने पर विचार कर रहे हैं. इससे पहले के पेपर में कई अनुभवों की चर्चा हुई थी, रेलवे मजदूरों ने खेत मजदूरों को संगठित करने के केन्द्र के तौर पर भूमिका निभाई थी. फोरम का चाहे जो भी रूप हो, राजनीतिकरण की प्रक्रिया का मुख्य पहलू यह है कि मजदूरों को उनकी फैक्टरियों एवं उद्योगों और मुख्य रूप से उनकी ट्रेड यूनियन वाली मानसिकता से बाहर लाया जाए और इस देश के नागरिक के तौर पर और समाज के एक सदस्य के तौर पर उनकी सामाजिक भूमिका को खोला जाए. राजनीतिकरण की यह प्रक्रिया तब तक शुरु नहीं हो सकती जब तक उन्हें ट्रेड यूनियन के ढांचे की कैद से बाहर नहीं लाया जाएगा जो कि ट्रेड यूनियन के अंतर्गत संगठित किसी भी मजदूर की नैसर्गिक चेतना हो जाती है. अपने एक क्लासिक लेख, ‘क्या करें’ में लेनिन कहते हैं कि, ”मजदूरों में वर्ग राजनीतिक चेतना सिर्फ बाहर से ही आ सकती है, यानी ये सिर्फ आर्थिक संघर्ष के बाहर से, मजदूर और मालिक के संबंधों की दायरे के बाहर से ही संभव है. वो परिधि जिसमें से ये ज्ञान हासिल किया जा सकता है वो राजसत्ता और सरकार के साथ सभी वर्गों और हिस्सों के संबंधों की परिधि है, सभी वर्गों के बीच के अंतरसंबंधों की परिधि है.” राजनीतिकरण और राजनीतिक चेतना का संबंध इसके स्वरूप से ज्यादा इसकी अंतर्वस्तु से होता है.

राजनीतिकरण का ढांचा

नीचे राजनीतिकरण के वो सामान्य पहलू दिए गए हैं जो हमने इन दिनों अपने कार्य में इस्तेमाल किए हैं. ’80 के दशक के अंत से ही हमारे ट्रेड यूनियन मोर्चे पर काम करने की शुरुआत से ही ‘मजदूरों का राजनीतिकरण और ट्रेड यूनियनों का जनवादीकरण हमारी केन्द्रीय विषयवस्तु रही है.

  1. विभिन्न ज्वलंत राजनीतिक मुद्दों पर नियमित राजनीतिक हस्तक्षेप और जुझारू संघर्ष आयोजित करना.
  2. ”किसी एक” उद्योगपति/पूंजीपति के खिलाफ मजदूरों की चेतना और संघर्ष के स्तर को पूंजी/पूंजीवाद के खिलाफ चेतना और संघर्ष के स्तर तक बढ़ाना.
  3. चेतना को ”अपने में वर्ग” से ”अपने लिए वर्ग” तक उन्नत करना.
  4. मजदूरों के तात्कालिक मुद्दों को उठाना और इसे राजसत्ता के साथ जोड़ते हुए पर्दाफाश करना ताकि राज्य के खिलाफ संघर्ष निर्देशित हों, और उन्हें अमीरों और पूंजीपति वर्ग के हाथों से सत्ता छीन कर मजदूर वर्ग और शोषित वर्ग द्वारा राजनीति सत्ता पर काबिज होने के महत्व के बारे में शिक्षित करना.
  5. ट्रेड यूनियन के काम को फैक्टरी से बाहर ले जाना.
  6. असंगठितों को संगठित करना.
  7. विभिन्न स्तरों पर कक्षाएं और कार्यशालाएं आयोजित करना.
  8. किसी भी उद्योग में संघर्षरत मजदूरों के साथ सक्रिय एकजुटता स्थापित करना.
  9. संघर्षरत खेत मजदूरों और किसानों के साथ सक्रिय एकजुटता स्थापित करना.
  10. मजदूर वर्ग की राजनीति को ट्रेड यूनियन के काम के साथ जोड़ना.
  11. मजदूरों को क्रांतिकारी पार्टी और क्रांतिकारी राजनीति से जोड़ना.

क्या करें?

ऊपर दिए गए ढांचे के अनुसार, हमें राजनीतिकरण की दिशा में निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए:

  1. मजदूर वर्ग के बीच फैलने वाली प्रतिक्रियावादी विचारधारा का प्रतिवाद करने वाले नियमित जन राजनीतिक अभियान आयोजित करना.
  2. बदलाव को समझने और उसके लिए खुद को तैयार करने के लिए नियमित सामाजिक जांच-पड़ताल आयोजित करना.
  3. नियमित तौर पर पाठ्यक्रम पर आधारित अध्ययन, स्टडी सर्कल और इसी तरह के अन्य तरीकों को अपनाना ताकि मजदूर वर्ग के मुख्य भाग को आकर्षित किया जा सके. ये अध्ययन शिविर व्यवस्थित तौर पर शोषण, अतिरिक्त मूल्य और मुनाफे, राज्य की प्रकृति, वेतन के सवाल, ट्रेड यूनियन की कार्यनीति, श्रम का सम्मान, साम्प्रदायिकता, मनुवाद, मजदूरों की सामाजिक भूमिका, ट्रेड यूनियनों की राजनीति, बुनियादी सामाजिक बदलाव, क्रांति आदि जैसे विषयों पर हो सकते हैं.
  4. राजनीतिकरण के हमारे प्रयासों के केंद्र में ”मजदूर फोरमों” को बनाना, ताकि साम्प्रदायिक और अन्य तरह की प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं और राजनीतिक प्रभावों का प्रतिवाद किया जा सके और असंगठित मजदूरों को संगठित करने का काम शुरु किया जा सके.