नये वर्ष, 2020 की शुरूआत मोदी शासन-2 की विनाशकारी, सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ एकताबद्ध प्रतिरोध् खड़ा करने के संकल्प के साथ करें!

8 जनवरी 2020 की देशव्यापी आम हड़ताल को पूरी ताकत के साथ कामयाब करें!!

पहली बार, 2014 में सत्ता में आने के बाद, 5 वर्षों में मोदी सरकार ने कामगार जनता से जितने वादे किये थे, वे दूर-दूर तक कहीं साकार होते नजर नहीं आये (याद होगा मोदी ने खुद को मजदूर न0 एक बताया था).

और अब, 2019 में दुबारा सत्ता में आने के बाद, अपने शासन के पहले 6 महीनों में ही, मोदी सरकार ने देश को गहरी आर्थिक मंदी में झोंक दिया है. विकास की बड़ी-बड़ी डींगे हांकने वाली मोदी सरकार की नीतियों ने पिछले 5 साल और 6 महीनों में देश की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर दिया है. इस मंदी की मार सबसे ज्यादा कामगार जनता पर पड़ी है. लाखों की संख्या में मजदूरों की छंटनी कर दी गई. नोटबंदी से आर्थिक मंदी तक - हर साल 2 करोड़ रोजगार देने का वादा करने वाली मोदी सरकार सबसे बड़े पैमाने पर रोजी-रोटी का विनाश करने वाली, पिछले 45 सालों में सबसे ज्यादा बेरोजगारी पैदा करने वाली सरकार बन गई है. साथ ही, आवश्यक वस्तुओं के दामों में निरंतर बढ़ोतरी और घटती मजदूरी ने कामगारों के जीवन को बेहद कठिन बना दिया है. दूसरी ओर, गहराते कृषि व ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट और कर्ज फांस के चलते किसान और खेत मजदूर आत्महत्या करने को बाध्य हैं.

यह मंदी मोदी सरकार ने पैदा की है. आम जनता की खरीदने की शक्ति बेहद कमजोर हो गई है, बमुश्किल वह दो जून की रोटी का इंतजाम कर पा रही है. असलियत यह है कि मोदी सरकार की रहनुमाई में आज हमारा देश दुनिया के सबसे भूख-पीड़ित देशों में से एक बन गया है - 102वें स्थान पर पहुंच गया है. ऐसे में अर्थव्यवस्था का डूबना और बेरोजगारी का चरम पर पहुंचना तय है. लेकिन मोदी सरकार आज भी इस मंदी को मंदी मानने को तैयार नहीं है, बल्कि इसे मात्र अर्थव्यवस्था और उत्पादन में कुछ गिरावट बतलाये जा रही है. इसलिए, मजदूरी बढ़ाने, सामाजिक सुरक्षा मजबूत करने, आदि कदमों के जरिए आम जनता की क्रय क्षमता बढ़ाने की तात्कालिक जरूरत के मामले में सरकार चुप है और ठीक उलटी दिशा अपनाते हुए, वह पूंजीपतियों की मदद करने पर जोर दे रही है. सरकार कॉरपोरेट घरानों को करों में और ज्यादा छूट (30 से घटाकर 22 प्रतिशत), रियायतें (1.4 लाख करोड़ रूपये का प्रोत्साहन पैकेज), लोन, आदि देने के जरिए मंदी से उनके मुनाफों में आई कमी की भरपाई करने में लगी हुई है. बैंकों से लाखों करोड़ रूपयों का लोन लेकर हड़प चुके इन्हीं कॉरपोरेट घरानों को लोन देना आसान बनाने के लिये सरकारी बैंकों का विलय किया जा रहा है. और साथ ही, लोगों की बैंकों में जमा राशि को निकालने पर सीमाएं लगाई जा रही हैं. 

इस मंदी का कारण है मोदी का विकास का मॉडल जिसमें पूंजीपतियों को देश को लूटने-हड़पने की खुली छूट मिली हुई है. अगर किसी ने मोदी शासन में विकास किया है तो वे हैं अंबानी-अडानी सरीखे पूंजीपति. आज शीर्ष पर बैठे 1 प्रतिशत लोगों का देश की 77 प्रतिशत संपत्ति पर कब्जा है. मुकेश अंबानी की अगुवाई में देश के सबसे 9 अमीरों के पास जतनी संपत्ति है वह उस कुल संपत्ति के बराबर है जो देश की आधी आबादी यानी लगभग 67 करोड़ लोगों के पास है. देश की चिकित्सा व स्वास्थ्य पर खर्च मुकेश अंबानी की सपंत्ति से भी कम है. यह दिखाता है कि ‘सबका साथ, सबका विकास’ का नारा देने वाली मोदी सरकार के शासन में अमीरी और गरीबी के बीच की खाई कितनी बढ़ गई है. 

मजदूरों के अधिकारों और राष्ट्रीय संपत्ति व संप्रभुता पर हमले

मोदी का अब तक का शासन अंबानी-अडानी सरीखे पूंजीपति घरानों के विकास का, उनके मुनाफों के अंबार खड़ा करने का शासन साबित हुआ. और अब दुबारा सत्ता में आते ही, मोदी सरकार ने बहुमत के नशे में, बिना समय बर्बाद किए, अपनी कॉरपोरेट व अमीर परस्त, मजदूर-विरोधी नीतियों को पूरी आक्रामकता से आगे बढ़ाते हुए मजदूर वर्ग एवं आम जनता के अधिकारों और राष्ट्रीय संपत्ति व संप्रभुता पर हमले तेज कर दिए हैं. ये हमले मुख्यतः दो रूपों में सामने आए - श्रम कानूनों का पूरी तरह से खात्मा, दमन का राज स्थापित करना और सार्वजनिक-सरकारी क्षेत्र यानी राष्ट्रीय संपत्ति का खात्मा एवं उसको देसी-विदेशी घरानों के हवाले करना. 

संघर्षों और कुर्बानियों से मजदूर वर्ग द्वारा हासिल किये गए अधिकारों, मौजूदा 44 केंद्रीय श्रम कानूनों को खत्म कर मोदी सरकार 4 श्रम कोड लाने की दिशा में तेजी से बढ़ रही है. ये श्रम कोड मजदूरों को मालिकों की गुलामी में ढकलेने वाले कोड हैं, गुलामी का पिंजरा है. इन कोडों को इस तरह बनाया गया है कि मोदी सरकार की नीति - ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ (धंधा करना आसान बनाने) और ‘मेक इन इंडिया’ के तहत भारत को विदेशी कंपनियों के लिये पूरी तरह खोल देने और उनके द्वारा भरपूर मुनाफा लूटने का रास्ता साफ करने के लिये मजदूरों को गुलाम बनाया जा सके. साथ ही, सरकार ने ‘फिक्स्ड टर्म एम्प्लॉयमेंट’ (नियत अवधि नियोजन) लागू करके हर रोजगार को कानूनी तौर पर अस्थाई बना दिया है. 

इन सभी श्रम कोडों का निचोड़ है - यूनियन बनाने एवं उसे चलाने से लेकर हड़ताल करने के अधिकार तक को बेहद कठिन और यहां तक कि असंभव एवं आपराधिक बना देना; ‘हायर एंड फायर’ (मजदूरों की छंटनी) की खुली छूट देना; मजदूरी को सबसे निचले स्तरों पर रखना एवं उसे तय करने में मजदूर संगठनों की भूमिका को खत्म करना; अप्रेंटिस, ट्रेनी, आदि श्रेणियों को बढ़ावा देकर मजदूरों के एक बड़े हिस्से को ‘‘मजदूर’’ की श्रेणी से बाहर करना; मजदूरों की सामाजिक सुरक्षा के लिये मौजूद तमाम वैधानिक प्रावधानों जैसे, ईएसआई, पीएफ, पेंशन, आदि को कमजोर करना तथा बीड़ी, निर्माण, आदि सारे मजदूर कल्याणकारी बोर्ड व फंडों को खत्म कर देना और इनमें जमा अरबों रूपयों की राशि को पूंजीपतियों के हवाले कर देना; केंद्रीय ट्रेड यूनियनों को मान्यता देने के मामले में एकतरफा सरकारी नियंत्रण स्थापित करना, द्विपक्षीय एवं त्रिपक्षीय संबंधों और सामूहिक सौदेबाजी की प्रणाली को कमजोर करना; महिलाओं को घर से बाहर रोजगार अपनाने में बाधाएं पैदा करना; आदि. 

मोदी-2 सरकार ने संसद के पहले सत्र में ही श्रम कानूनों में मजदूर-विरोधी संशोधनों की दिशा में कोडीकरण के लिए बिल लाना शुरू कर दिया, और ‘वेतन कोड’ संसद में पास करा दिया है. साथ ही, सरकार ‘वेतन और पेशागत् सुरक्षा एवं स्वास्थ्य (ओएसएच)’ कोड और औद्योगिक संबंध (आईआर) कोड पर बिल संसद में ला चुकी है. आने वाले संसद सत्रों में सरकार अपने विशाल बहुमत के बलबूत सभी श्रम कोड संसद में पास करा देगी. साथ ही, सभी राज्य सरकारों को श्रम कानूनों में मजदूर विरोधी संशोधन लाने के लिये पूरी छूट दे दी गई है जिसे तमाम, खासकर भाजपा-शासित सरकारें, पूरी ताकत के साथ अंजाम दे रही हैं. 

सरकार ने वेतन कोड को कानून बनाने के माध्यम से मजदूरी के स्तर को गिराने और मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से वंचित करने के उद्देश्य से ‘ राष्ट्रीय फ्लोर लेवल वेतन’ को कानूनी दर्जा दे दिया है. पहले सरकार ने राष्ट्रीय फ्लोर लेवल न्यूनतम मजदूरी के बतौर मात्र 178 रुपये प्रति दिन (4628 रुपये प्रति माह 26 दिनों के लिए) की घोषणा की थी, और अब सरकार इसे 200-225रू. प्रति दिन करने की बात कर रही है. जबकि 7वां वेतन आयोग तीन साल.पहले तय कर चुका है कि 18,000रू. मासिक मजदूरी से कम में किसी का गुजारा नहीं हो सकता, वहीं पांच साल पहले ‘अच्छे दिन लाएंगे’ का वादा करने वाली मोदी सरकार बड़ी बेशर्मी से न्यूनतम मजदूरी 5-6 हजार रूपये से अधिक बढ़ाने को तैयार नहीं है. इस वेतन कोड में काम के कानूनी घंटो को बढ़ाकर 9 कर दिया गया है जिन्हें मालिक की मर्जी से 12 तक किया जा सकता है. मालिकों को अपने ही मजदूरों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के दायित्व से मुक्त किया जा रहा है और खुद मजदूरों को ही अपनी सामाजिक सुरक्षा के लिये जिम्मेदार बनाया जा रहा है. अब तक के सभी अनिवार्य लाभ, पेंशन सहित, आने वाले समय में मालिकों की जिम्मेदारी नहीं होंगे. रेलवे समेत सभी सरकारी कर्मचारी तीसरे लाभ के बतौर पेंशन से वंचित किये जा रहे हैं, और ये कर्मचारी इस धोखाधड़ी वाली एनपीएस के खिलाफ खड़े हैं.

अधिकार छीनना, देशभर में दमन और दमनकारी कानूनों का राज स्थापित करना मोदी शासन की पहचान बन गई है. मजदूरों, छात्रों, आदिवासियों, दलितों और तमाम उत्पीड़ित हिस्सों की आवाज उठाने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों को देशद्रोही करार देना, उन्हें जेलों में डालना, यहां तक कि हत्या कर देना, आम बात बन चुकी है. देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में फीस बढ़ोतरी और शिक्षा के निजीकरण एवं भगवाकरण के खिलाफ आवाज उठाने वाले छात्रों का बर्बरता से दमन किया जा रहा है जिसका सबसे ताजा उदाहरण हाल में जेएनयू के छात्रों का सीआरपीएफ द्वारा बर्बर दमन है जो फीस बढ़ोतरी के खिलाफ आंदोलनरत हैं. यह दमन मानेसर, हरियाणा के होंडा मजदूरों समेत आम जनता के हर तबके के आंदोलनों को झेलना पड़ रहा है. चार महीने होने जा रहे हैं, जम्मू-कश्मीर सेना के हवाले है और एक जेल में तबदील है; यहां के तमाम विपक्षी नेता गिरफ्तार हैं और जनता अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित हैं; बिहार, उ.प्र., छत्तीसगढ़ समेत कई राज्यों के प्रवासी मजदूरों को अपना कमाया हुआ वेतन, सामान, सब कुछ छोड़ कर यहां से सेना के जुल्मों के चलते भागना पड़ा. दुबारा सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने विरोध की हर आवाज को दबाने के लिये यूएपीए जैसे जन-विरोधी कानून को संशोधित कर उसे और ज्यादा दमनकारी बना दिया है और साथ ही किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने की सरकार को छूट दे दी है. इस तरह अघोषित इमरजेंसी, संविधान और लोकतंत्र पर हमलों का दौर मोदी शासन में जारी है.

राष्ट्रवाद का नगाड़ा बजाने वाली मोदी सरकार राष्ट्र-विरोधी नीतियों को अंजाम दे रही है; वह राष्ट्रीय संपत्ति को बेचने में तुली है. सरकार ने 72 सार्वजनिक उपक्रमों को मृत्यु प्रमाण पत्र जारी कर दिया है (तत्काल प्रभाव से 42 के लिए) और इस तरह अंततः सार्वजनिक उपक्रमों को उनकी जमीनों सहित देसी-विदेशी कंपनियों के हवाले करने का रास्ता साफ कर दिया है. सरकार ने सत्ता में आते ही रेल, डिफेंस, जैसे देश के सबसे प्रमुख एवं संवेदनशील सरकारी उपक्रमों के निजीकरण के लिये 100-दिवसीय ऐक्शन प्लान जारी कर दिया. इन सेक्टरों में, कोयला, खुदरा व्यापार, आदि समेत, 100 प्रतिशत विदेशी निवेश की मंजूरी पहली ही दी जा चुकी है. रेल का इंजन, डिब्बे आदि का निर्माण व रखरखाव करने वाली उत्पादन इकाइयों/कार्यशालाओं, रेलवे स्टेशनों, यार्डों, आदि से लेकर निजी ट्रेन चलाने तक रेलवे के पूर्ण निजीकरण के माध्यम से भारतीय रेलवे का (जिसे ‘आपकी संपत्ति’ कहा जाता था) व्यवस्थित विनाश शुरू कर दिया है. 4 अक्टूबर को सरकारी पटरियों पर ‘तेजस’ नाम की पहली निजी ट्रेन चालू कर दी गई है, और ऐसी ट्रेनों की संख्या आने वाले दिनों में और बढ़ेगी. साफ है, रेल का निजीकरण आम जनता की सबसे सुगम व व्यापक सवारी को बेहद महंगा कर देगा और आम जनता की पहुंच से दूर कर देगा. बैंक, बीमा, बीएसएनएल, एमटीएनएल, ऊर्जा (भारत पेट्रोलियम), परिवहन अन्य प्रमुख सेक्टर हैं जो अंधाधुंध निजीकरण का शिकार हैं. 

जहां देश का सार्वजनिक क्षेत्र निजीकरण का शिकार है, वहीं देश की आम जनता के जीवन-स्तर में कई तरह से सुधार लाने वाली पुरानी सरकारी योजनाओं - आशा, आंगनबाड़ी, मिड-डे मील, आदि - पर भी, समूची सामाजिक सुरक्षा प्रणाली समेत, निजीकरण की तलवार चलाई जा रही है. बजटीय आबंटन में निरंतर कटौती के साथ इन योजनाओं को निजी कंपनियों और एनजीओ के हवाले कर मुनाफा कमाने के धंधे में बदला जा रहा है और इनकी पहुंच को सीमित किया जा रहा है. महिला कर्मी बहुल इन योजनाओं में कार्यरत कर्मियों की गुलामी वाली हालत में तो कोई सुधार नहीं लाया जा रहा है, बल्कि इनके निजीकरण के चलते कर्मियों का जीवन बेहद असुरक्षित बन गया है. अभी 16 नवंबर को बिहार के पूर्वी चंपारण के सुगौली में भाजपा नेता के घर में मिड-डे मील का खाना पकाते समय बॉयलर फटने से 10 रसोइयों की मौत हो गई. यह खाना मिड-डे मील से संबंधित एनजीओ नवप्रयास द्वारा केंद्रीकृत रसोई के तहत पकाया जा रहा था.  

राष्ट्र को मजबूत करने में सबसे बड़ा योगदान देने वाली बुनियादी सेवाओं शिक्षा और स्वास्थ्य को भी निजीकरण और व्यावसायीकरण के हवाले कर इन्हें मुनाफा कमाने का धंधा बनाया जा रहा है, इन सेवाओं को आम, गरीब लोगों की पहुंच से बाहर किया जा रहा है, जबकि इंसेफलाइटस, मलेरिया, डेंगू, आदि बीमारियों ने लोगों पर कहर ढाया हुआ है.  

ऐसे में जब आम जनता मंदी, बेरोजगारी, महंगाई, कर्ज फांस की मार से पीड़ित है, आम जन के इन मुद्दों को मोदी-शाह सरकार सांप्रदायिक नफरत, बंटवारे और उन्माद के अपने मुद्दों से किनारे लगा रही है. धारा 370 के खात्मे के जरिए अपनी ‘कश्मीर विजय’, एनआरसी और नागरिकता संशोधन बिल (सीएबी- जिसे सरकार संसद के मौजूदा सत्र में पारित कराने की कोशिश में है) जैसी मेहनतकशों की नागरिकता पर हमले करने वाली, नागरिकता के सांप्रदायिक विभाजन की छलभरी योजनाएं, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के आलोक में अयोध्या में मंदिर निर्माण - ये वे तमाम मोदी सरकार के मुद्दे हैं जिनके जरिए वह आम भारतीय के रोजमर्रा के जीवन को प्रभावित करने वाले सवालों व चिंताओं को पीछे ढकेलने, उनसे ध्यान बंटाने की साजिश कर रही है.  

मौजूदा प्रतिरोध् को मजबूत करें, 8 जनवरी की हड़ताल को सफल करें

भले ही मोदी सरकार ज्यादा बढ़ी हुयी ताकत के साथ दुबारा सत्ता में आई हो और वह आम जनता के मुद्दों को पीछे ढकेलने की हर कोशिश कर रही हो, उसे केवल 6 महीनों के भीतर ही मजदूरों के व्यापक गुस्से और विरोध का सामना करना पड़ा है. मजदूरों ने मोदी सरकार-2 के कदमों के खिलाफ संघर्षों का बिगुल बजा दिया है. 100 प्रतिशत विदेशी निवेश और निगमीकरण/निजीकरण के खिलाफ देशभर के डिफेंस कर्मियों ने 20 अगस्त से 5 दिनों की हड़ताल की, रेलवे कर्मी खासकर उत्पादन इकाइयों के कर्मी 100-दिनों के ऐक्शन प्लान के खिलाफ निरंतर आंदोलनरत हैं, कोयला मजदूरों ने 24 सितंबर को एक दिन की जबरदस्त हड़ताल की, बैंकों के विलय और निजीकरण के खिलाफ बैंक कर्मियों ने 22 अक्टूबर को एक दिन की देशव्यापी हड़ताल की. भारत पेट्रोलियम (बीपीसीएल) के कर्मियों ने 28 नवंबर को जोरदार देशव्यापी हड़ताल की. तेलंगाना में राज्य परिवहन कर्मियों ने निजीकरण के खिलाफ करीब डेढ महीने लंबी हड़ताल की. सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों के अलावा विभिन्न राज्यों में स्कीम, निर्माण, सफाई, फैक्टरी मजदूर हड़ताल समेत संघर्षों में उतरे हुए हैं. साथ ही, छात्र, किसान समेत अन्य तबके भी संघर्षों में उतरे हुए हैं. 

चुनावी संघर्ष में भी जनता ने अपने विक्षोभ को दर्शा दिया है. हाल में हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों में जनता ने भाजपा की ताकत को बेहद घटा कर भाजपा सरकारों को झटका दिया है. इन प्रदेशों की आम जनता की असल समस्याओं को दरकिनार कर मोदी-अमित शाह की जोड़ी ने खास तौर पर ‘कश्मीर विजय’ और पूरे देश में एनआरसी लागू करने के वादे को मुख्य चुनावी सवाल बनाते हुए जबरदस्त बहुमत पाने की उम्मीद की थी. और भी बड़ा झटका मोदी सरकार को जम्मू-कश्मीर के बीडीसी (ब्लॉक विकास परिषद्) चुनाव में लगा जिसमें जम्मू और लद्दाख जैसे इलाकों में, 370 हटाने पर भारी समर्थन हासिल करने की उम्मीद के बाद भी, भाजपा को दूसरे नंबर पर आना पड़ा और उसके खिलाफ खड़े हुए स्वतंत्र उम्मीदवारों (तमाम विपक्षी पार्टियों ने यहां चुनाव का बहिष्कार किया था) को लोगों ने अपना समर्थन दिया. 

प्रतिरोध और संघर्षों की इस लहर को और मजबूत बनाना ही समय की मांग है. केवल और केवल जनता के संघर्षों से ही आजीविका और अधिकारों पर चल रहे मोदी-शाह सरकार के बुलडोजर को रोका जा सकता है. आइए, मोदी-शाह सरकार के छलभरे, सांप्रदायिक बंटवारे के मंसूबों को नाकाम करते हुए, आम जनता के रोजी-रोटी, मूलभूत अधिकारों और लोकतंत्र के जरूरी सवालों को जोरदार तरीके से सामने लाएं और 8 जनवरी 2020 की देशव्यापी हड़ताल को कामयाब बनाएं. 

आइए, नये वर्ष, 2020 की शुरूआत मोदी शासन की विनाशकारी, सांप्रदायिक नीतियों के खिलाफ एकताबद्ध प्रतिरोध खड़ा करने के संकल्प के साथ करें.