वेज कोड (सेंट्रल) रूल्स, 2020 (मसौदा) पर ऐक्टू की आपत्तियां

(वेतन कोड मोदी सरकार द्वारा पिछले साल ही संसद में पास करवाकर कानून बना दिया गया है. कोरोना संकट को अवसर में बदलने के अपने परपीड़क सिद्वांत के तहत, अब मोदी सरकार के श्रम मंत्रालय ने कोरोना व लॉकडाउन दौर में ही इस कानून की केंद्रीय नियमावली का मसौदा तैयार कर सार्वजनिक पटल में ला दिया है, जिसका जवाब केंद्रीय ट्रेड यूनियन के संयुक्त मंच और साथ ही ऐक्टू द्वारा सरकार को भेजा गया है. निम्नलिखित जवाब न्यूनतम वेतन निर्धारण के मूल सिद्धांतों पर रोशनी डालते हुए यह दर्शा रहा है कि किस तरह से सरकार न्यूनतम वेतन के अधिकार पर हमला कर रही है).

रूल्स पर प्राथमिक आपत्तियां

सबसे पहले तो यहां उन तथ्यों पर आपत्तियों को दर्ज करना जरूरी है कि ये नोटिफिकेशन और ड्राफ्ट रूल्स तब जारी किए गए जबकि भारत में लॉकडाउन जारी है और भारत कोविड-19 से प्रभावित देशों की सूची में दूसरे नंबर पर आ गया था. ये संकट सिर्फ जन स्वास्थ्य के क्षेत्र का ही नहीं है, बल्कि पिछले कुछ समय में भारतीय मेहनतकश वर्ग द्वारा झेली गई सबसे बुरी आपदा भी थी. जाहिर है कि हम सब ये जानते हैं कि भारत में असमानता सबसे उच्च स्तरों पर पहुंच चुकी है, लेकिन इस आपदा ने गहराई तक जड़ जमा चुकी सामाजिक और आर्थिक असमानता को उजागर कर दिया. एक ऐसा देश जिसमें 6.3 करोड़ लोग हर साल स्वास्थ्य सुविधाओं की कीमत के चलते गरीबी में धकेल दे दिये जाते हैं, ऐसे देश में इस तरह की आपदा किसी प्रलय से कम नहीं है, जहां ज्यादातर लोगों की मौत का असल कारण आर्थिक हो, जिसमें भुखमरी से होने वाली मौतें भी शामिल हैं. आईएलओ (अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन) की उस चेतावनी को याद कीजिए, कि, ”भारत में जहां लगभग 90 प्रतिशत लोग अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में काम करते हैं इस संकट के दौरान करीब 40 करोड़ लेागों के ऊपर और गहरी गरीबी में गिरने का खतरा मंडरा रहा है.”

इस महामारी के चलते, लोकतंत्र की मुख्य संस्थाएं निष्क्रिय अवस्था में पड़ी हुई हैं. मेहनतकश वर्ग का बहुसंख्यक हिस्सा अपना विरोध दर्ज करवाने के प्रचलित तरीकों से वंचित है. इसके अलावा, इस आर्थिक और व्यक्तिगत संकट में, कानूनों में भारी बदलावों को, जिनमें ऐसे कानून भी शामिल हैं जिनके दीर्घकालिक प्रभाव हैं, प्राथमिकता नहीं दी जा सकती. 

बदकिस्मती से सरकार की प्रतिक्रिया कई क्षेत्रों में इस कदर विनाशकारी हालात को एक मौके के तौर पर इस्तेमाल करना ही दिखाती है, जिनमें कई तरह के कानूनी सुधार, और समाज के सबसे कमजोर तबकों को मिलने वाली सुरक्षा को खत्म करना तक शामिल है. 

वैश्विक महामारी के बीचों-बीच इस तरह की परामर्शक प्रक्रिया की शुरुआत परामर्श ना करने के बराबर ही है, और, यह प्रभावितों की बहुसंख्या को इस दायरे से बाहर कर देता है. वर्तमान समय में मेहनतकश वर्ग को अपने अधिकारों पर भयंकर हमले का सामना करना पड़ रहा है, साथ ही वो लॉकडाउन का गहरा असर भी झेल रहे हैं. 

जिन वर्तमान रूल्स पर चर्चा हो रही है उनकी बात करते हुए, यहां ये बात ध्यान रखने वाली है कि, कोड ऑफ वेजिस, 2019 ड्राफ्ट रूल्स के पूर्व प्रकाशन को अनिवार्य बनाता है ताकि इनके निर्माण में समाज के ज़रूरी हिस्सों की भागीदारी सुनिश्चित की जा सके. ये ड्राफ्ट रूल्स जो कि अभी सिर्फ अंग्रेजी और हिंदी भाषाओं में पेश किय गये हैं, इन्हें और अन्य भाषाओं मे प्रकाशित किया जाना चाहिए, और ऐसा ना करने का नतीजा ये है कि पूरे देश के मेहनकश वर्ग को इनके निर्माण की प्रक्रिया से बाहर कर दिया गया है. 

  • वेतन की न्यूनतम दर की गणना करने का तरीका

रूल 3 में वेतन की न्यूनतम दर की गणना करने का तरीका बताया गया है, और ये दावा किया गया है कि ये उस पैमाने पर आधारित है जो वर्कमेन बनाम मैनेजमेंट ऑफ रेपटाकॉस ब्रेट एंड कं0 लि0 1992 मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश में घोषित किया गया था और 15वीं इंडियन लेबर कॉन्फ्रेंस में जिसकी सिफारिश की गई थी. ये निम्नलिखित मानदंड उपलब्ध करवाते हैं:

1.    उपभोग इकाइयों की संख्या: इसमें एक सामान्य मजदूर वर्गीय परिवार की बात कही गई है, जिसमें कमाऊ सदस्य के अलावा पत्नी और दो बच्चे शामिल हैं; जो कि तीन वयस्क व्यक्तियों के उपभोग इकाई के बराबर होता है.

आपत्तियां: यहां दोहरी आपत्तियां हैं

क. यहां इस बात पर ध्यान दिया जाना जरूरी है कि सामान्य मजूदर वर्गीय परिवार में 3 की उपभोग इकाई को इस तरह निश्चित किया गया है:

    1 (पुरुष), 0.8 (महिला), 0.6 (बच्चा), 0.6 (बच्चा) और इस तरह ये 3 वयस्क उपभोग इकाई होती है.

बहरहाल, इस तरह का मूल्यांकन बहुत ही लिंगभेदकारी है, क्योंकि ये परिवार की वयस्क महिला सदस्य के उपभोग का मूल्यांकन कमतर करता है. इसके अलावा, बच्चे की उपभोग इकाई को 0.6 के निम्नतर कैलोरी सीमा स्तर पर नहीं रखा जाना चाहिए, यह वास्तविक उपभोग इकाई का प्रतिनिधित्व नहीं करती. जाहिरा तौर पर, यहां तक कि श्रम एवं रोजगार मंत्रालय, एक्स्पर्ट कमेटी ऑन डिटरमाइनिंग द मेथोडोलॉजी फॉर फिक्सिंग द नेशनल मिनिमम वेज (जनवरी 2019) की रिपोर्ट के ज़रिए ये सिफारिश करता है कि पूर्वस्थापित 3 उपभोग इकाइयों को अब बढ़ाकर प्रति मजदूर परिवार में 3.6 उपभोग इकाई कर दिया जाना चाहिए. 

ख. उपभोग इकाइयों को बढ़ा कर उसमें अभिभावकों को भी शामिल किया जाना चाहिएः इसके अलावा, मेन्टेनेंस एंड वेलफेयर ऑफ पेरेंट्स् एंड सीनियर सिटिजन्स् ऐक्ट, 2007 की रोशनी में अतिरिक्त मानदंड को भी शामिल किया जाना चाहिए, ये ऐक्ट एक व्यक्ति पर अपने अभिभावकों की देखभाल को वैधानिक और आवश्यक जिम्मेदारी बनाता है. इस जिम्मेदारी को पूरा करने में असफल होने पर अपराधिक कार्यवाही हो सकती है. इसलिए न्यूनतम वेतन पर निर्भर किसी भी मजदूर को कम से कम पांच लोगों को सहारा देने लायक होना ही चाहिए. इसलिए न्यूनतम वेतन की गणना में दो अतिरिक्त उपभोग इकाइयों का शामिल किया जाना जरूरी है. 

इसलिए कुल 6 उपभोग इकाइयों को शामिल किया जाना चाहिए.

2.    भोजन: रूल्स प्रतिदिन प्रति उपभोग इकाई के लिए 2700 कैलोरी की उपलब्धता की बात करता है.

आपत्तियां: 2700 कैलोरीज़ (ऊर्जा) के निर्धारण को युनाइटेड नेशनस् की खाद्य एवं कृषि संस्था के पोषण विभाग के निदेशक डॉ. आइक्राॅयड की सिफारिशों पर आधारित किया गया है, उन्होंने 1948 में प्रतिदिन भोजन में 2700 कैलोरीज़, 65 ग्राम प्रोटीन और लगभग 45 से 60 ग्राम वसा की सिफारिश की थी. लेकिन तब से लेकर अब तक व्यक्ति की पोषण जरूरतों की समझ में काफी बदलाव आया है. आज व्यक्ति की पोषण जरूरतों की समझ में बहुत विकास हो चुका है, और ये समझ सामान्य कैलोरी जरूरतों से अधिक व्यापक हो गई है, इसमें कई अन्य तत्व भी शामिल हो गए हैं. 

युनाइटेड नेशनस् की खाद्य एवं कृषि संस्था ने ये घोषणा की थी कि; ”सुरक्षित, पोषक एवं समुचित भोजन की प्राप्ति को मानवाधिकार बनाना चाहिए, जिसमें सबसे अधिक कमजोर समुदायों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए.”

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, एक स्वस्थ, संतुलित आहार के आवश्यक तत्व निम्नलिखित होने चाहिए:

फल, सब्जी, फलियां (जैसे दालें या बीन्स हों), गिरी एवं अनाज 

प्रतिदिन कम से कम 400 ग्राम फल और सब्जी, इसमें आलू, मीठा आलू, कसावा और अन्य स्टार्चयुक्त जड़ें शामिल नहीं हैं.

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के एक्स्पर्ट गु्रप ने 2009 में प्रतिदिन की ऊर्जा जरूरतों के लिये हल्के, मध्यम और भारी काम करने वाले पुरुषों के लिए 2320, 2730 और 3490 कैलोरी की सिफारिश की थी. इसी तरह महिलाआंे द्वारा हल्के, मध्यम और भारी काम के लिए 1900, 2230 और 2850 कैलोरीज़ की सिफारिश की गई थी. इसमें गर्भवति, स्तनपान करवाने वाली (0-6 माह) और स्तनपान करवाने वाली (6-12 माह) की मांओं के लिए क्रमशः अतिरिक्त 350, 600 और 520 कैलोरी की सिफारिश की गई थी.

उपरोक्त संदर्भ में, यूनाइटेड नेशनस् की खाद्य एवं कृषि संस्था के पोषण विभाग के निदेशक, डॉ. आइक्रॉइड की 1948 में की गई सिफारिशों पर न्यूनतम वेतन नियत किया जाना बेहद पुराना है और दरअसल ये सुप्रीम कोर्ट द्वारा परिभाषित भोजन के मूलभूत अधिकार का साफ उल्लंघन है, और साथ ही अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का भी. 

3.    कपड़ा: ये रूल प्रस्ताव करता है कि प्रति सामान्य मजदूर वर्ग परिवार के लिए हर साल 66 मीटर कपड़े की उपलब्धता को मान्य किया जाए.

आपत्तियां: प्रति मजदूर वर्ग परिवार को सिर्फ 66 मीटर कपड़ा उपलब्ध करवाना नाकाफी है और इससे व्यक्ति की कपड़े की ज़रूरतें पूरी नहीं होती. ये जरूरी है कि इसमें निजी कपड़े, घर के कपड़े की जरूरतें, जूते-चप्पल, जुर्राबें और वाशिंग पाउडर जिनमें सिलाई का खर्च आदि भी शामिल है, उसे भी ध्यान में लिया जाए. 

4.    घर एवं आवास: ये रूल प्रस्ताव करता है कि किराए का खर्च खाने और कपड़े के खर्च का दस प्रतिशत होना चाहिए.

यह सरासर वास्तविकता से परे है. असल में देखा जाय तो शहरों में काम करने वालों के लिए घर का किराए असल में उनकी कुल तनख्वाह का 50 प्रतिशत तक होता है (और दरअसल औद्योगिक मजदूर सबसे ज्यादा शहरों में ही पाए जाते हैं). ये आइसीई 360 सर्वे (इंडयिन सिटिजन्स् एंड कनज्यूमर इकॉनमी सर्वे,) 2016 की खोज है, जिसमें 61,000 परिवारों का सैम्पल लिया गया था, इसे  पीपुल्स् रिसर्च ऑन इंडियन कनज्यूमर इकॉनमी द्वारा किया गया था. इस प्रतिशत के समर्थन में, इनकम टैक्स कानून मेट्रो शहरों में तनख्वाह का 50 प्रतिशत और अन्य जगहों पर 40 प्रतिशत को मकान किराए के सामान्य कटौती के एक मानदंड के बतौर अनुमति देता है. 

2015 में, प्रधानमंत्री आवास योजना (शहरी) को शुरु किया गया था, जिसमें केन्द्र सरकार घरों के कारपेट एरिया (फर्श क्षेत्र) में ईडब्लूएस के लिए 30 वर्ग मीटर और एलआईजी के लिए 60 वर्ग मीटर यानी 322 से 645 वर्ग फुट के घर पर आर्थिक सहायता प्रदान करती है. 

नेशनल अर्बन हाउसिंग एंड हैबिटेट पॉलिसी, 2007, और कर्नाटक अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी, 2016 को शुरु किया गया है. इनमें राज्य की जिम्मेदारियों पर ज्यादा ध्यान दिया गया है जो कहती हैं कि, ”सस्ता और समुचित आवास मनुष्य को एक सम्मानजनक जीवन सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है, साथ ही शहर और राज्य के समावेशी आर्थिक विकास के लिए सुनिश्चित करने के लिए भी ये जरूरी है. राज्य की ये जिम्मेदारी है कि वो सबके लिए सस्ती और समुचित आवास की उपलब्धता सुनिश्चित करे....” 

अगर भारत सरकार के हाउसिंग एंड अर्बन पॉवर्टी एलीविएशन मंत्रालय के नेशनल अर्बन रेन्टल हाउसिंग पॉलिसी (मसौदा) अक्तूबर 2015 के हिसाब से भी देखा जाए तो, इस भाग को आय का कम से कम 30 प्रतिशत तो होना ही चाहिए, इस मसौदे में कहा गया है कि शहरी ग़रीब किराए के घर के लिए अपनी कुल आमदनी का 30 प्रतिशत तक हिस्सा दे रहे हैं.

5. ईंधन, बिजली और अन्य विविध मदों के खर्च में न्यूनतम वेतन के 20 प्रतिशत का प्रावधान किया गया है.

खाना बनाने का ईंधन, गाड़ी का ईंधन और बिजली की दरों में, पिछले कुछ सालों में, भारी वृद्धि हुई है, जिसे गणना में शामिल नहीं किया गया है.

6.    बच्चों की शिक्षा का खर्च, चिकित्सीय जरूरतें, मनोरंजन और आकस्मिक व्यय पर खर्च: इस सब में न्यूनतम वेतन का 25 प्रतिशत का प्रावधान किया गया है. 

शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण के साथ ही दोनों में वृद्धि हो गई है इसलिए इन सभी चीजों को न्यूनतम वेतन का 25 प्रतिशत कर देना कतई अपर्याप्त और सच से बहुत दूर है. 

7.    अतिरिक्त अवयवों को शामिल करने की जरूरत: ये जरूरी है कि अतिरिक्त अवयवों को भी शमिल किया जाए जिनमें बिजली के सामान की खरीद, मोबाइल और कम्प्यूटर की खरीद, जिनके बिना शिक्षा असंभव है और परिवहन का खर्च भी जोड़ा जाए. ये सिर्फ निर्देशात्मक है और इमसें वेतन के अन्य अवयवों को भी जोड़ा जाना चाहिए. 

8. न्यूनतम वेतन की अवधारणा एक गतिशील अवधारणा हैः यहां इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि न्यूनतम वेतन की अवधारणा गतिशील है, गतिहीन नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि न्यूनतम वेतन की अवधारणा गतिहीन नहीं हो सकती, वह गतिशील है. कोर्ट ने कहा कि न्यूनतम वेतन की अवधारणा अर्थव्यवस्था के विकास के साथ और जीवन-स्तर के साथ बदलती है. एक्स्प्रेस न्यूज़पेपर (प्राइवेट) लि. बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1958, सुप्रीम कोर्ट 578) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ”न्यूनतम वेतन”, ”उचित वेतन” और ”जीने लायक वेतन” (लिविंग वेज) नियत और स्थिर नहीं हैं और ये राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के विकास और वृद्धि के अनुसार समय-समय पर बदलते रहते हैं, इनका बदलना अनिवार्य है, नतीजतन जीवन स्तर बेहतर होता है और इसी के साथ वेतन संबंधी श्रेणियों के हमारे विचार भी व्यापक और प्रगतिशील होने चाहिए. कोर्ट ने आगे रेपटाकॉस के संबंध में ये भी कहा कि वेतन ढांचे की हर श्रेणी को सामाजिक न्याय के नज़रिए से परखा जाना चाहिए जो कि हमारे आज के समाज का जीवंत-तंतु है.

इसके आगे, संविधान का अनुच्छेद 43 लिविंग वेज का प्रावधान करता है, जबकि ड्राफ्ट रूल्स खुद न्यूनतम वेतन की गणना का पुराना तरीका अपनाने का प्रस्ताव करता है. यहां ये ध्यान रखना मुनासिब होगा कि आईएलओ कन्वेंशन सी-131 - न्यूनतम वेतन निर्धारण, 1970 के अनुच्छेद 3 के अनुसार, न्यूनतम वेतन के स्तर को निर्धारित करने में ध्यान रखने वाले अवयवों में इन तत्वों को भी शामिल किया जाना चाहिए:

क. मजदूर और उनके परिवारों की जरूरत, देश में वेतन के सामान्य स्तर पर ध्यान दिया जाना चाहिए, जीवन निर्वाह-व्यय, सामाजिक सुरक्षा लाभ, और अन्य सामाजिक समूहों के प्रासंगिक जीवन स्तर पर भी ध्यान रखना होगा. और

ख. आर्थिक कारक, जिनमें आर्थिक विकास की जरूरतों, उत्पादकता के स्तर और उच्च स्तर के रोजगार को हासिल करने और उसे बनाए रखने की इच्छा.

9. न्यूनतम वेतन की प्रतिदिन नहीं बल्कि प्रति माह के हिसाब से गणना करनी चहिए: न्यूनतम वेतन की महीने के हिसाब से गणना की जानी चाहिए, ना कि केवल प्रतिदिन के हिसाब से जैसा कि रूल्स में कहा जा रहा है.

स महंगाई भत्ते में संशोधन के बीच अंतराल: रूल 5 ये कहता है कि न्यूनतम वेतन आधारित कर्मचारियों को दिए जाने वाले महंगाई भत्ते में संशोधन के लिये ऐसे प्रयास किए जाने चाहिए जिससे जीवन निर्वाह-व्यय और आवश्यक वस्तुओं पर रियायत दर के संदर्भ में नकद मूल्य की गणना हर साल एक बार 1 अप्रैल से पहले और फिर 1 अक्तूबर से पहले की जा सके. 

आपत्तियां: मसौदा नियमावली कहती है कि न्यूनतम वेतन से जुड़े हुए महंगाई भत्ते को संशोधित करने के प्रयास किए जाएंगे लेकिन इस तरह के संशोधन को सुनिश्चित करने के लिए कोई कानूनी उत्तरदायित्व सुनिश्चित नहीं करता. महंगाई भत्ते की वृद्धि न्यूनतम वेतन का एक पूरा हिस्सा बनता है और महंगाई भत्ते की वृद्धि को सुनिश्चित करने का उत्तरदायित्व सरकार पर ना डालने से वेतन को न्यूनतम वेतन की दर से भी नीचे नियत करने का रास्ता बन जाएगा.

ख) सामान्य कार्यकारी दिवस के लिये काम के घंटेः प्रस्तावित रूल 6 में कहा गया है कि सामान्य कार्यकारी दिन में आठ घंटे काम होगा और इसके बीच एक या ज्यादा मध्यावकाश दिया जा सकता है जो कुल एक घंटे से ज्यादा नहीं होना चाहिए. 

आपत्तियां: प्रस्तावित रूल जो एक दिन में काम के घंटे नियत करता है वो ये साफ नहीं करता कि प्रति सप्ताह काम के घंटे कितने होंगे. न्यूनतम वेतन (सेंट्रल) रूल्स, 1950, में कहा गया है कि प्रति सप्ताह अधिकतम 48 कार्य घंटे हो सकते हैं. इससे संस्थान को ये छूट मिल जाती है कि वो हफ्तावारी अवकाश दिवस को ऐसे परिवर्तित कर दें ताकि मजदूरों को निरंतर, सघन श्रम के घंटों में काम करवा सकें, जो प्रतिदिन की सीमा के हिसाब से तो होगा, लेकिन 48 घंटे से ज्यादा हो जाएगा. ये आईएलओ कन्वेंशन सी-001 का खुला उल्लंघन है - यानी काम के घंटे (उद्योग) कन्वेंशन, 1919, भारत द्वारा अनुमोदित, जिसमें औद्योगिक संस्थानों में अधिकतम साप्ताहिक काम के घंटों को 48 तक नियत कर दिया गया था. 

ग) रूल 6 (2) ये कहता है कि किसी भी दिन 12 घंटे से ज्यादा काम नहीं करवाया जा सकता है. ये फैक्टरीज़ ऐक्ट की धारा 56 का उल्लंघन है जिसमें ये कहा गया है कि एक दिन के काम के घंटों का फैलाव साढे़ दस घंटों से ज्यादा नहीं हो सकता. 

स फ्लोर वेज नियत करने का तरीका: रूल 11 में कानून की धारा 9 (1) के तहत फ्लोर वेज नियत करने के बारे में बात की गई है, जिसमें न्यूनतम जीवन स्तर जिसमें भोजन, कपड़ा, आवास और केन्द्र सरकार द्वारा समय-समय पर सामान्य मेहनतकश परिवारों के लिये निर्धारित जरूरी अन्य अवयवों, को शामिल किया गया है. इसमें कहा गया है कि सरकार पांच साल के अंतराल में, अवधि इससे अधिक नहीं हो सकती, फ्लोर वेजिस को संशोधित कर सकती है, और इसमें समय-समय पर बोर्ड के साथ विचार-विमर्श करने के बाद जीवन-निर्वहन मूल्य में अन्य विविधतााओं को एडजस्ट किया जाएगा.

आपत्तियां: क) फ्लोर वेज के इस पूरे खंड को हटा देना चाहिए, और जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, सिर्फ न्यूनतम वेतन का प्रावधान किया जाना चाहिए. ड्राफ्ट रूल के अंतर्गत परिकल्पित फ्लोर वेज न्यूनतम वेतन से कम है, और जब ये स्थापित सिद्धांत है कि न्यूनतम वेतन के बिना किसी मजदूर से काम करवाना जबरन मजदूरी माना जाएगा, जो कि संविधान के 23वें अुनच्छेद के अंतर्गत प्रतिबंधित है.

ख) दरअसल, इस रूल में ही दिखता है कि फ्लोर वेज नियत करने का कोई निश्चित तरीका स्थापित नहीं किया गया है, जिसके बिना, फ्लोर वेज को भिन्न मापदंडों के अनुसार, किसी तरह की एकरूपता के बगैर, बेतरतीबी से संशोधित किया जा सकता है. फ्लोर वेजिस में किसी भी संशोधन की ज़रूरत को अनिवार्य बनाए बिना, रूल्स ने इसे बोर्ड के विवेक के भरोसे छोड दिया है कि वो ”हो सकता है” कि 5 सालों में फ्लोर वेज को संशोधित करे. असल में, ग्रामीण श्रमिकों के राष्ट्रीय कमिशन, 1991 ने ये सिफारिश की थी कि फ्लोर वेज को दो सालों में संशोधित किया जाए. ड्राफ्ट रूल इसे अनिवार्य नहीं बनाते कि जीवन-निर्वहन के खर्च को समय-समय पर बढ़ाया जाए. इस तरह की कोई कार्यवाही फ्लोर वेजिस को न्यूनतम वेतन के मानदंड से कहीं नीचे जाम कर देगी. 

ग) ‘‘न्यूनतम वेतन’’ की जगह ‘‘फ्लोर वेज’’ नियत करने के खतरे स्पष्ट हैं. राष्ट्रीय फ्लोर वेजिस का स्तर 176 रु. प्रतिदिन या 4567 रु. प्रति माह नियत किया गया था, जो निहायत ही कम है. 

स इन्सपेक्टर-सह-फेसिलिटेटर और इन्सपेक्टर की भूमिका में बदलाव:

कोड के अनुच्छेद 51 में ”इन्सपेक्टर-सह-फेसिलिटेटर्स” की नियुक्ति की बात की गई है. इसमें ये भी कहा गया है कि यथोचित सरकार चाहे तो, नोटिफिकेशन के ज़रिए, कोई निगरानी योजना बना सकती है जो वेब आधारित जांच उपलब्ध करवा सकती है और इस कोड के अंतर्गत इन्स्पेक्शन के संबंध में इलैक्ट्रॉनिक माध्यम से जानकारी भी मांग सकते हैं. 

अनुच्छेद 51 (5) के तहत इन्सपेक्टर-सह-फेसिलिटेटर की भूमिका में निम्न कार्य शामिल हैं:

क. नियोक्ताओं और मजदूरों को कोड के प्रावधानों के अनुपालन से संबंधित सलाह देना;

ख. यथोचित सरकार द्वारा सौंपी गई संस्थानों की सूची जांच करना, समय-समय पर यथोचित सरकार द्वारा जारी निदेर्शों के अनुसार. .

रूल 58 में कहा गया है कि एक जांच योजना को मुख्य श्रम आयुक्त (केन्द्रीय) द्वारा केन्द्र सरकार की अनुमति के साथ बनाया जाएगा, जो कि हर इन्सपेक्टर-सह-फेसिलिटेटर और संस्थान को ”ढांचागत तथ्य” और संख्या उपलब्ध करवाएगी.

आपत्तियांः इन्स्पेक्टर की भूमिका को ”इन्स्पेक्टर- सह-फेसिलिटेटर” बनाने से इन्स्पेक्टर की भूमिका का प्रभाव निरस्त हो जाता है, जो विविध कानूनों को लागू करवाने के लिए बेहद जरूरी है. इससे जांच का आधार वेब-आधारित जांच कार्यक्रम की योजना हो जाता है, जो औचक जांच में बाधा बनता है, जो कि वर्तमान कानून में अनुमोदित है. 

ये रूल आईएलओ के लेबर इन्सपेक्शन कन्वेंशन 1947 (81) (सी 081) का खुला उल्लंघन है जिसे भारत द्वारा अनुमोदिन किया जा चुका था. कन्वेंशन में ये कहा गया है कि हर सदस्य को औद्योगिक कार्यस्थल में लेबर इन्स्पेक्शन की व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए और ऐसी व्यवस्था के लिए आधारभूत नियम बनाने चाहिए.

इसलिए, लेबर इन्स्पेक्शन का सबसे आधारभूत सिद्धांत है कि इन इन्स्पेक्शनों को किसी स्वतंत्र अधिकारी द्वारा बिना किसी नोटिस के कार्यान्वित करवाया जाए ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि कार्य से संबंधित वैधानिक परिस्थितियों और अपने काम में लगे हुए मजदूरों के अधिकारों को सुरक्षित किया जा सके. ये प्रस्तावित रूल जो इन्स्पेक्टर को ”उन संस्थानों का इन्स्पेक्शन करने की बात करता है, जो यथोचित सरकार द्वारा उन्हें सौंपा गया हो, और यथोचित सरकार द्वारा जारी निर्देशों व नियमों के अनुसार” हो, उसमें औचक इन्स्पेक्शन के अधिकार को खत्म करने का खतरा खड़ा हो जाता है. इससे इन्स्पेक्शन की पूरी प्रक्रिया ही निरर्थक हो जाती है. 

स अपराध का समाधानः रूल 54 में फाइन लगाने के तरीके और गजेटेड अफसर के सामने अपराध का समाधान प्रस्तुत करने की बात है. अपराधों के समाधान को अनुमति नहीं दी जानी चाहिए, और ये तब और गलत हो जाता है जब इस तरह के अपराधों के सामाधान को गजेटेड अफसर के सामने अनुमति दी जाती है.

स समान पारितोषिकः वेतन कोड के अनुच्छेद 4, 2019 में ये कहा गया कि, लिंग आधारित भेदभाव के निषेध के उद्देश्य के लिये कोई कार्य समान है या समान प्रकृति का है, इस विवाद का निर्णय यथोचित सरकार द्वारा अधिसूचित अधिकरण द्वारा किया जाएगा. 

आपत्तियांः ड्राफ्ट रूल्स, जो समान पारितोषिक नियम, 1976 की जगह लेते हैं, कानून को बेअसर बनाते हैं क्योंकि उसमें कार्य की प्रकृति के बारे में किसी विवाद को उठाने के तरीके के बारे में कोई प्रावधान नहीं है. इसके अलावा, इसमें अनुच्छेद 4 के अंतर्गत किसी अधिकरण को अधिसूचित नहीं किया जा सकता, जो समरूप प्रकृति के कार्य के बारे में किसी विवाद पर फैसला करने के लिए अधिकृत हो. किसी प्रक्रिया, प्रणाली और वेतन कोड, 2019 के अनुच्छेद 3 के अंतर्गत किसी विवाद का फैसला करने वाले अधिकरण के बारे में स्पष्टता के अभाव में, अनुच्छेद 3 में लिंगभेद का निषेध पूर्णतया निष्प्रभावी हो जाता है. 

स व्यवसाय में कौशल स्तर का निर्धारण:

खंड 2(जे), 2(टी), 2(यू) और 2(वी) व्यवसाय में कौशल के विविध स्तरों को परिभाषित करते हैं. हालांकि ये अब तक इस्तेमाल किए गए अर्थ और परिभाषा के विपरीत है. 

आपत्तियांः अकुशल, अर्धकुशल, कुशल, और अतिकुशल की परिभाषा बिना किसी तर्क या तकनीकी पृष्ठभूमि या स्वीकृत औद्योगिक नियमों के कर दी गई है और इसमें अन्य जरूरतों को जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है ताकि भारी संख्या में मजदूरों को कुशल और अति कुशल की श्रेणी से बाहर किया जा सके.

इसके अलावा, रूल 4(4) कहता है कि केन्द्र सरकार एक तकनीकी कमेटी का गठन करेगी जो केन्द्र सरकार को कौशल श्रेणियों के बारे में परामर्श देगी. इस कमेटी में कोई ट्रेड यूनियन प्रतिनिधि नहीं है. इसके अलावा ऐसी कमेटियों में महिलाओं के लिए कोई प्रावधान नहीं है. ये कमेटी पूरी तरह से अप्रतिनिधिक है. 

स वर्किंग जर्नलिस्टों की सेवा स्थिति और वेतन निर्धारणः ये कोड जो वर्किंग जर्नलिस्ट एंड अदर न्यूज़पेपर इम्पलाईज़ (कंडीशनस् ऑफ सर्विस) एंड मिसलेनियस प्रोविज़न ऐक्ट, 1955 को निरस्त करता है, वर्किंग जर्नलिस्टों और अखबार के अन्य कर्मचारियों को सुरक्षित करने में असफल है. 

आपत्तियांः रूल 29 जो कहता है कि बोर्ड सरकार को उन मुद्दों पर भी परामर्श देगा जो वर्किंग जर्नलिस्टों के संबंध में न्यूनतम वेतन नियत करने से संबंधित होंगे. 1955 वाला कानून एक विशेष वेतन बोर्ड की बात करता है जिसमें वर्किंग जर्नलिस्टों के प्रतिनिधि शामिल होंगे, जिन्हें यहां जगह नहीं दी गई है. इसके बजाय, मसौदे में रूल 56 ”वर्किंग जर्नलिस्ट के लिए तकनीकी कमेटी” की बात करता है. यहां किसी ”तकनीकी कमेटी” के गठन का कोई जिक्र नहीं है, और ना ही वर्किंग जर्नलिस्टों के किसी प्रतिनिधियों का जिक्र है.

साथ ही, अखबारों के गैर-पत्रकार कर्मचारी हैं, उनके लिए वेतन नियत करने का कोई प्रावधान नहीं है, जो 1955 का ऐक्ट उन्हें प्रदान करता है.  

और अधिक, 1955 के ऐक्ट द्वारा उपलब्ध अन्य अधिकार व संरक्षण भी इस रूल में पूरी तरह नदारद हैं.  

स वेतन का भुगतानः समय से वेतन भुगतान की आड़ में, ड्राफ्ट रूल्स में कहा गया है कि जहां संस्थान में कर्मचारी किसी ठेकेदार के ज़रिए नौकरी कर रहे हैं, उसमें कंपनी या फर्म या संस्थान या कोई अन्य व्यक्ति जो उस संस्थान का मालिक है, या जैसा भी मामला हो, मालिक भुगतान के नियत समय से पहले ठेकेदार को वेतन का भुगतान करेगा, ताकि कर्मचारियों को वो वेतन नियत समय पर मिल जाए, जैसा कि खंड 17 के प्रावधान में है. 

आपत्तिः अतः, मजदूर को प्रधान नियोक्ता से सीधे वेतन का भुगतान सुनिश्चित करने की जगह, मसौदा रूल्स में कहा गया है कि ”ठेकेदार को समय से भुगतान होगा”, और इस तरह मजदूर की अनेदखी की गई है. ु