किसान नए कृषि कानूनों को स्वीकारने को तैयार नहीं - क्यों?

(पुरूषोत्तम शर्मा, सचिव, अखिल भारतीय किसान महासभा के लेख का एक अंश)

आखिर इन कानूनों में ऐसा क्या है कि किसान इन्हें स्वीकारने को तैयार नहीं? इनमें पहला है ‘कृषि उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून, 2020’, जिसके तहत सरकार ने वर्तमान कृषि मंडियों के बाहर निजी मंडियों का प्रावधान किया है. सरकार कह रही है कि अब किसान अपनी फसल किसी को भी और कहीं भी बेचने को आजाद हो गया है. इसका मतलब क्या है? इस बदलाव के बाद अब केंद्र सरकार राज्य सरकारों को किसानों की फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के लिए न तो बैंकों से ‘कैश क्रेडिट’ दिलाएगी और न ही राज्य की मंडियों द्वारा खरीदी गई फसल को एफसीआइ के माध्यम से खरीदने की गारंटी देगी. ऐसी स्थिति में राज्य सरकारें वर्तमान मंडियों के माध्यम से फसल नहीं खरीद पाएगी और किसान मंडी के बाहर बैठे कॉरपोरेट के दलालों के हाथ अपनी फसल कौड़ियों के भाव बेचने को मजबूर होंगे. इसलिए निजी मंडियों की स्थापना के साथ सरकार अगर कहती है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा तो वह सिर्फ किसानों को धोखा दे रही है. 

यही नहीं, जब भारतीय खाद्य निगम मंडियों के माध्यम से किसानों की फसल को नहीं खरीदेगा, तो सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से देश के गरीबों को मिलने वाले सस्ते अनाज की व्यवस्था भी बंद हो जाएगी. ऐसे में अनाज का भंडारण और खुदरा व्यापार पूरी तरह कॉरपोरेट के हाथ में चला जाएगा. इससे हमारी खाद्य सुरक्षा को भी गम्भीर खतरा पैदा हो जाएगा. इसकी तैयारी इन कानूनों के आने से पहले ही शुरू हो गई है. भटिंडा, बरनाला, मोगा, मानसा, देवास, होशंगाबाद, कन्नौज, कटिहार, दरभंगा, समस्तीपुर, सतना, उज्जैन और पानीपत जिले सहित देश के कई हिस्सों में प्रधानमंत्री के करीबी अदानी समूह के अदानी एग्री लॉजिस्टिक लिमिटेड के बड़े-बड़े गोदाम बन गए हैं या निर्माणाधीन हैं. जिनमें अदानी समूह लाखों मैट्रिक टन खाद्यान्न का भंडारण कर उसे 10 साल तक भी सुरक्षित रख सकेगा. ऐसा ही अन्य कुछ कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी कर रही हैं. रिलायंस, पतंजलि, वालमार्ट जैसी देशी-विदेशी कम्पनियां हमारे रिटेल बाजार के साथ ही खाद्यान्न बाजार पर एकाधिकार के लिए मैदान में उतर चुकी हैं. इसीलिए जब देश के कृषि मंत्री कहते हैं कि नए कृषि कानूनों को वापस लेने से कॉरपोरेट का विश्वास सरकार पर से उठ जाएगा तो इसके निहितार्थ को समझ लेना चाहिए. 

दूसरा कानून है ‘मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा सम्बंधी किसान समझौता (सशक्तिकरण और सुरक्षा) कानून, 2020’. मोदी सरकार के अनुसार यह कृषि क्षेत्र के लिए एक ‘जोखिम रहित कानूनी ढांचा’ है. ताकि किसान को फसल बोते समय उससे प्राप्त होने वाले मूल्य की जानकारी मिल जाए और किसानों की फसलों की गुणवत्ता सुधरे. यह जोखिम रहित कानूनी ढांचा और कुछ नहीं देश में खेती के कॉरपोरेटीकरण की जमीन तैयार करने के लिए पूरे देश में कॉन्ट्रैक्ट (अनुबंध) खेती को थोपना है. कॉन्ट्रैक्ट खेती सबसे पहले तो भारत जैसे विशाल आबादी के देश की खाद्य सुरक्षा और खाद्य संप्रभुता पर सीधा हमला है. खेती में उत्पादन का अधिकार अनुबंध के जरिये जब कॉरपोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथ चला जाएगा, तब ये कम्पनियां अपने अति मुनाफे को ध्यान में रख कर ही उत्पादन कराएंगी, न कि जनता की खाद्य जरूरतों को ध्यान में रखकर. ऐसे में खाद्यान्न का उत्पादन जब तक उनके अति मुनाफे का सौदा नहीं बन जाएगा, वे उसे नहीं उगाएंगे. 

कॉन्ट्रैक्ट खेती से किसान के सीधे नुकसान को अगर समझना है तो 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान चर्चा में आए कॉन्ट्रैक्ट खेती के एक बड़े विवाद को समझना होगा. अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनी पेप्सिको ने गुजरात के साबरकांठा जिले में कुछ आलू किसानों के साथ चिप्स के लिए आलू की खेती करने का अनुबंध किया. कंपनी ने 9 किसानों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर 4.2 करोड़ रुपये का हर्जाना मांगा था. पेप्सीको ने एफसी-5 नाम के आलू की किस्म का पेटेंट अपने नाम कराया हुआ है जिसकी पैदावार वह किसानों से कराती है. पेप्सिको से कॉन्ट्रैक्ट किए इन किसानों से कम्पनी के मानकों को पूरा न करने वाले किसानों के मौजूदा आलू के स्टॉक को नष्ट करने के लिये कहा था. इसमें घाटा सह रहे किसानों ने इसे नष्ट करने के बजाए बीज के लिए अन्य किसानों को और बाजार में बेच दिया था. पेप्सिको ने कहा कि किसान उसके साथ अनुबंध कर सिर्फ कम्पनी से ही बीज ले सकते हैं और होने वाली फसल वापस उसे ही बेच सकते हैं बाहर नहीं. कम्पनी के मानकों पर सही न उतरने वाली पैदावार किसानों को नष्ट करनी होगी.

इस तरह कम्पनी से अनुबंध किए किसानों को और उनकी खेती को पूरी तरह से कम्पनी की गुलामी की जंजीरों में बांध दिया जाता हैं. अनुबंध कृषि के तहत किसानों को ऋण, बीज, उर्वरक, मशीनरी और तकनीकी सलाह के लिए कम्पनी पर ही निर्भर बना दिया जाता है, ताकि उनकी उपज कंपनियों की आवश्यकताओं के अनुरूप हो सके. अति मुनाफे के लिए कम्पनियों के द्वारा खेती में प्रयोग कराए जा रहे जीएम बीज, कीटनाशक व रासायनिक खाद खेत की मृदा और उर्वरता को भारी नुकसान पहुंचा देते हैं जिससे जमीन के मरुस्थल में बदलने का खतरा बना रहता है. सरकार कह रही है कि कॉन्ट्रेक्ट खेती वाली जमीन का मालिक किसान ही रहेगा. मगर कम्पनी के मानकों के अनुसार उत्पादन नहीं हुआ तो उसे नष्ट करना होता है और उसमें लगी कम्पनी की लागत किसान पर कर्ज रह जाती है. नए कानून के मुताबिक किसान पर कम्पनी के उस बढ़ते कर्ज की वसूली राजस्व नियमों के तहत होगी. यानि कि कॉन्ट्रेक्ट लेने वाली कम्पनी तहसील से किसान की जमीन की कुर्की का आदेश करा सकती है. ऐसी जमीनों की नीलामी ऊंची कीमत पर उठा कर कम्पनी उसे अपने नाम करा सकती है. 

तीसरा अध्यादेश है ‘आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून, 2020’, जिसको आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन करके लाया गया है. नए कानून के मुताबिक अब यह कानून सिर्फ आपदा या संकट काल में ही लागू किया जाएगा. बाकी दिनों में जीवन के लिए आवश्यक वस्तुओं के भंडारण की कोई सीमा नहीं रहेगी ताकि बड़े कॉरपोरेट, बहुराष्ट्रीय कंपनियां, जमाखोर और व्यापारी आवश्यक वस्तुओं का कृत्रिम अभाव पैदा कर उनकी कालाबाजारी के जरिए जनता को लूटने की खुली कानूनी छूट पा सकें. यही नहीं, इस कानून में आलू, प्याज, दलहन, तिलहन जैसी रोजाना उपभोग की वस्तुओं को आवश्यक वस्तु की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. इस कानून के जरिये एक तरफ किसानों और दूसरी तरफ आम उपभोक्ता को लूटने की व्यवस्था की गयी है. कृषि उत्पादन, भंडारण और पूरे खाद्यान्न बाजार पर से सरकारी हस्तक्षेप को खत्म करना, उपभोक्ता उत्पादों की तरह खाद्यान को भी अतिमुनाफे के उत्पाद में बदल देना आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों व कॉरपोरेट कम्पनियों की सबसे बड़ी जरूरत है. इसी जरूरत की पूर्ति के लिए मोदी सरकार इन तीन अध्यादेशों को लाकर इन्हें कानून का दर्जा देना चाहती है.

कृषि पर कॉरपोरेट व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर 

आज कोरोना संकट के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं पूरी तरह चरमरायी हुई हैं. उद्योग, सेवा क्षेत्र, पर्यटन, ऑटोमोबाइल, निर्माण, व्यापार, ट्रांसपोर्ट जैसे जीडीपी को गति देने वाले प्रमुख क्षेत्र पूरी दुनिया में बुरी तरह हांफ रहे हैं. भारत में कोरोना काल से पूर्व ही मोदी सरकार की क्रोनी पूंजीवाद को बढ़ावा देनेवाली आर्थिक नीतियों के कारण जीडीपी गोते खाने लगी थी. ऐसे में देश में ‘सरकारी व सार्वजनिक संस्थान सब कुछ बिकाऊ है’ का नारा देने के बाद भी मोदी सरकार को कोई खरीदार नहीं मिल रहा है. देश की अर्थव्यवस्था की इस निराशाजनक गति को देख कर कोरोना काल में ही भारत के कॉरपोरेट घराने भारत में कोई निवेश करने के बजाय अमेरिका में डेढ़ लाख करोड़ रुपए का निवेश कर आए. बेरोजगारी बढ़ रही है. आम लोगों की क्रय शक्ति लगातार घट रही है. इससे दुनिया भर में उपभोक्ता उत्पादों की मांग में भारी कमी आ गई है. सिर्फ एक क्षेत्र है खाद्य वस्तुएं, जिनकी मांग मनुष्य के जीवित रहने के लिए हर स्थिति में बनी रहेगी. इसलिए दुनिया की बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और देशी कॉरपोरेट कम्पनियों की नजर अब खेती की जमीन और खाद्य पदार्थों के व्यवसाय पर गड़ी है. 

भारत के कृषि व्यवसाय में नेसले, कैडबरी, हिन्दुस्तान लीवर, गोदरेज फूड्स एण्ड बेवरेजेस, डाबर, आई.टी.सी., ब्रिटानिया जैसी बड़ी कंपनियां पहले ही पैर जमाई हुई हैं. अब करगिल, रिलायंस, पतंजलि जैसी कई बहुराष्ट्रीय व कॉरपोरेट कम्पनियां इस क्षेत्र में उतर चुकी हैं. हिमांचल में वालमार्ट, बिग बास्केट, अदानी, रिलायंस फ्रेश और सफल जैसी बड़ी कंपनियों के अलावा अन्य कंपनियां भी बागवानों से सीधे सेब खरीद रही हैं. ये कम्पनियां सेब के रंग, आकार और गुणवत्ता के हिसाब से छांट कर ही बागवानों से क्रेटों में खरीदती हैं. इसी तरह ज्यादातर कम्पनियों के ही नियंत्रण में चलने वाले भारत में कृषि-आधारित उद्योगों की भी तीन श्रेणियां हैं - 1. फल एवं सब्जी प्रसंस्करण इकाइयों, डेयरी संयंत्रों, चावल मिलों, दाल मिलों आदि को शामिल करने वाली कृषि-प्रसंस्करण इकाइयां; 2. चीनी, डेयरी, बेकरी, कपड़ा, जूट इकाइयों आदि को शामिल करने वाली कृषि निर्माण इकाइयां; 3. कृषि, कृषि औजार, बीज उद्योग, सिंचाई उपकरण, उर्वरक, कीटनाशक आदि के मशीनीकरण को शामिल करने वाली कृषि-इनपुट निर्माण इकाईयां. इसके एक बड़े हिस्से पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का एकाधिकार बढ़ता जा रहा है.

भारत का खाद्य प्रसंस्करण उद्योग देश के कुल खाद्य बाजार का 32 प्रतिशत है. यह भारत के कुल निर्यात में 13 प्रतिशत और कुल औद्योगिक निवेश में 6 प्रतिशत हिस्सा रखता है. भारत के खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में फल और सब्जियां, मसाले, मांस और पोल्ट्री, दूध और दुग्धउत्पाद, मादक और गैर मादक पेय पदार्थ, मत्स्य पालन, अनाज प्रसंस्करण और मिष्ठान भंडार, चाकलेट तथा कोकोआ उत्पाद, सोया आधारित उत्पाद, मिनरल वाटर और उच्च प्रोटीन युक्त आहार जैसे अन्य उपभोक्ता उत्पाद समूह शामिल हैं. पिछले वर्ष तक भारत का खाद्य बाजार लगभग 10.1 लाख करोड़ रुपये का था, जिसमें खाद्य प्रसंस्करण उद्योग का हिस्सा 53 प्रतिशत अर्थात 5.3 लाख करोड़ रुपये का था. अब भारत के गांवों के हाट-बाजारों पर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और बड़ी कॉरपोरेट कम्पनियों की नजर है. बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़ी कॉरपोरेट कम्पनियां ग्रामीण और कस्बाई इलाकों में जगह-जगह अपने मॅाल खोल रही हैं. वे अपने विभिन्न उत्पाद-ब्राण्डों को दूरदराज के गांवों व चैके-चूल्हे तक पहुंचाने का सपना देख रहे हैं. ई-चैपालों, चैपाल सागरों, एग्रीमार्टो, किसान हरियाली बाजारों आदि का बस एक ही लक्ष्य है - फसलों की पैदावार और कृषि जिंसों के कारोबार पर कॉरपोरेट का शिंकजा और कृषि उपज मंडियों का कॉरपोरेटीकरण.

मोदी सरकार भारतीय कृषि को अमेरिकी कृषि के रास्ते पर ले जाना चाहती है. अमेरिका की कुल कृषि उपज का 60 प्रतिशत हिस्सा मात्र 35 हजार बड़े कृषि फार्म पैदा करते हैं, जबकि भारत की 85 प्रतिशत खेती छोटे व सीमांत किसानों पर निर्भर है. भारत का 70 प्रतिशत दुग्ध उत्पादन भी भूमिहीन, खेत मजदूर, गरीब व मध्यम किसान करता है. भारत में खेती व्यवसाय नहीं, बल्कि 85 प्रतिशत किसान परिवारों को पालने का एक साधन है. मोदी सरकार कॉरपोरेटों के निर्देश पर अन्न को भी अब आवश्यक वस्तु से बाहर कर उपभोक्ता माल में बदलने की तरफ कदम बढ़ा चुकी है. इसलिए भारत जैसे कृषि प्रधान और विशाल आबादी के देश की खेती और खाद्य बाजार पर अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियां और बड़े कॉरपोरेट घराने अपना एकाधिकार जमाना चाहते हैं. जून 2018 में जागरण में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी करगिल ने भारत से गेहूं, मक्का, तेल जैसे जिंसों के 10 लाख टन की खरीददारी की. करगिल वर्ष 2018 में ही कर्नाटक के दावणगेरे में डेढ़ करोड़ डालर खर्च कर मक्का की फसल के भंडारण के लिए अन्नागार स्थापित कर रही थी. भारत के पशु आहार व मत्स्य आहार क्षेत्र में भी करगिल का दखल लगातार बढ़ रहा है.

दुनिया के स्तर पर देखें तो चोटी की 10 वैश्विक बीज कम्पनियां दुनियां के एक-तिहाई से ज्यादा बीज कारोबार पर काबिज है. वे इस क्षेत्र में प्रतिवर्ष 30 अरब डॉलर का धन्धा कर रही हैं. भारत के 75 प्रतिशत बीज बाजार पर भी मोसोंटो और करगिल जैसी अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का कब्जा हो चुका है जो शिमला मिर्च, गोभी, टमाटर के बीज को अब 80 हजार से डेढ़ लाख रुपए किलो तक में किसानों को बेच रही हैं. चोटी की 10 कीटनाशक रसायन निर्माता बहुराष्ट्रीय कम्पनियां दुनिया के 90 प्रतिशत कीटनाशक रसायन कारोबार पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में प्रति वर्ष 35 अरब डॉलर का कारोबार कर रही हैं. चोटी की 10 बहुराष्ट्रीय कम्पनियां खाद्य पदार्थों की कुल बिक्री के 52 प्रतिशत पर कब्जा जमाये हुए हैं. चोटी की 10 फर्में दुनिया के संगठित पशुपालन उद्योग और उससे जुड़े हुए समस्त कारोबार के 65 प्रतिशत पर काबिज हैं. वे इस क्षेत्र में 25 अरब डालर का धन्धा कर रही हैं. भारत जैसे कृषि प्रधान और बड़ी आबादी वाले देश की खेती, अन्न भंडारण और अन्न बाजार को अपने नियंत्रण में लेने के लिए इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और कॉरपोरेट कम्पनियों में होड़ मची है. यही वह क्षेत्र है जहां इस वैश्विक संकट के दौर में अभी भी मांग है और पूंजी निवेश की संभावनाएं बची हुई हैं. इसलिए हर तरफ से निराश मोदी सरकार किसी भी हाल में यहां कॉरपोरेट व बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की राह आसान करना चाहती है. पर देश का किसान ऐसा हरगिज नहीं होने देगा. किसानों का यह संघर्ष मोदी सरकार की बिदाई की इबारत लिखेगा.