अंगरेजी राज से अरबपति राज तक

अंगरेजी राज से अरबपति राज तक

थॉमस पिकेटि और लुकास चांसेल द्वारा तैयार एक शोध-पत्र (इंडियन इन्कम इनइक्वलिटि 1922-2014: फ्रॉम ब्रिटिश राज टु बिलियनायर राज? - अंगरेजी राज से अरबपति राज तक) - में तमाम उपलब्ध आंकड़ों का अध्ययन कर भारत में आय-असमानता का जायजा लिया गया है. इसके निष्कर्ष इन दावों को झूठा ठहराते हैं कि ‘वैश्वीकृत विकास’ का मतलब ‘समावेशी वृद्धि’ होता है, और इसके बजाय यह दिखाते हैं कि इसने अमीर और गरीब के बीच की खाई को काफी चौड़ा कर दिया है.

टी.एस.आर. सुब्रह्मण्यन ने इस आलेख का सारांश इस प्रकार पेश किया है: ‘1980 से 2014 के बीच भारत की आबादी के 1 प्रतिशत सर्वाधिक धनिकों की आमदनी में हिस्सेदारी 6 प्रतिशत से बढ़कर 22 प्रतिशत हो गई. इसी अवधि में सर्वाधिक 10 प्रतिशत धनिकों की हिस्सेदारी 30 प्रतिशत से बढ़कर 50 प्रतिशत हुई; 40 प्रतिशत मध्यवर्गीयों की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत से गिरकर 30 प्रतिशत हो गई; जबकि सबसे कम आमदनी वाले 50 प्रतिशत लोगों की हिस्सेदारी 24 प्रतिशत से गिरकर 15 प्रतिशत हो गई. इससे अधिक आश्चर्य की बात तो यह है कि चोटी के 0.1 प्रतिशत लोगों ने 50 प्रतिशत बसे कम आय वाले लोगों के बनिस्बत कुल वृद्धि में अधिक हिस्सेदारी की (11 प्रतिशत के मुकाबले 12 प्रतिशत )’. ... वर्ष 2000 के बाद की अवधि में अपने पिछले पांच दशकों के मुकाबले अर्थतंत्र में सबसे ऊंची वृद्धि देखी गई. दूसरे शब्दों में, 1980 से 2014 के बीच इस शीर्ष 0.1 प्रतिशत आबादी ने निम्नतम 50 प्रतिशत आबादी के मुकाबले आय में 550 गुनी बढ़ोतरी कर ली; जबकि शीर्ष 1 प्रतिशत की आमदनी इस 50 प्रतिशत आबादी की आमदनी के मुकाबले 130 गुनी बढ़ी. मध्यवर्ती 40 प्रतिशत की आमदनी इस 50 प्रतिशत की आय के मुकाबले तीन गुनी बढ़ सकी.

पिकेटि-चांसेल के इस शोध-पत्र में देखा गया कि ‘शीर्ष 1 प्रतिशत की हिस्सेदारी ब्रिटिश राज के दौरान 1922 में इन्कम टैक्स के निर्माण के बाद से अभी उच्चतम स्तर (22 प्रतिशत) पर है. 1950 और 1970 दशकों के बीच, जब मजबूत बाजार नियमन और उच्च राजकोषीय प्रोग्रेसिविटि को लागू किया गया था, शीर्ष आय हिस्सेदारी और शीर्ष आय स्तरों में तीखी गिरावट आई थी. इस अवधि में सबसे नीचे की 50 प्रतिशत और मध्यवर्ती 40 प्रतिशत आबादी की आमदनी औसत से तेज गति से बढ़ी. लेकिन 1980-दशक के मध्य में, व्यवसाय-परस्त नीतियों के विकास के साथ, यह प्रवृत्ति उलट गई.’ शीर्ष की 1 प्रतिशत आबादी 1930 में कुल आय के 21 प्रतिशत से भी कम की हिस्सेदार थी; यह हिस्सेदारी 1980-दशक की शुरूआत में 6 प्रतिशत तक गिर गई; लेकिन अब यह बढ़कर 22 प्रतिशत हो गई है!

इस शोध-पत्र के ‘शाइनिंग इंडिया फॉर द रिच मोस्टली?’ शीर्षक अध्याय में उन तथ्यों पर चर्चा की गई है जो इस दावे को झूठा साबित करते हैं कि उदारवादी नीतियों से मध्य वर्ग को फायदा हुआ है: ‘शाइनिंग इंडिया’ मध्यवर्ती 40 प्रतिशत के बजाय शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के लिए मायने रखता है. सापेक्ष रूप से कहा जाए तो मध्यवर्ती 40 प्रतिशत समूह के लिए 1951-1980 की अवधि ही शाइनिंग दशक थे, जब इस समूह ने बाद के चालीस वर्षों की अपेक्षा इस अवधि में कुल वृद्धि की ज्यादा ऊंची हिस्सेदारी हासिल की थी.’ इसके अलावा इस शोध-पत्र से यह भी पता चलता है कि उस शीर्ष 10 प्रतिशत आबादी के अंदर भी कुल वृद्धि का असमान वितरण हुआ था. पत्र में कहा गया है कि ‘उदारीकरण और विनियमन प्रक्रियाओं के असमान चरित्र’ की वजह से ‘भारत वस्तुतः ऐसा देश बन गया है जहां पिछले 30 वर्षों के दौरान शीर्ष के 1 प्रतिशत लोगों के हाथों में आमदनी के संकेंद्रण में सबसे तेज वृद्धि हुई है.