नोटबंदी ने न सिर्फ गरीबों का बल्कि समूची अर्थव्यवस्था का नुकसान किया है

हाल के दिनों में तीन ऐसी स्वीकारोक्तियां आईं जिनसे नोटबंदी की विफलता और इससे होने वाले भारी नुकसान के बारे में ईमानदार अर्थशास्त्रिों द्वारा पहले से किये गये विश्लेषणों, या कहिये चेतावनियों की एक बार फिर जबर्दस्त पुष्टि हुई है. पहला, रिजर्व बैंक ने यह स्वीकार करके कि पिछले साल नवंबर के शुरू में प्रधानमंत्री ने पांच सौ और हजार रुपये के नोटों पर जो पाबंदी लगाई थी, उसके फलस्वरूप खारिज हुए 500 और 1000 रुपये के नोटों का 99 फीसद हिस्सा बैंकों में लौट आया है, पूरी कसरत को महज 1 प्रतिशत मुद्रा को चलन से बाहर कर देने तक सीमित कर दिया है. प्रधानमंत्री द्वारा 15.44 लाख करोड़ रुपये के नोटों को यकायक चलन से बाहर किया गया था, उनमें से 15.28 लाख करोड़ रुपये के नोट बैंकिंग व्यवस्था में लौट आए थे. इस तरह बैंकिंग व्यवस्था में न लौटने वाले नोट 16,000 करोड़ रुपये से ज्यादा के नहीं होंगे. यानी नोटबंदी की समूची कसरत से अगर तथाकथित काला धन पकड़ा भी गया तो वह पिछले साल नवम्बर की शुरूआत तक चलन में रहे 500 और 1000 नोटों के (समूची करेन्सी के नहीं) 1 प्रतिशत से ज्यादा का नहीं है. अगर काला धन सचमुच नोटों की शक्ल में ही संचित किया जाता है, तो कोई जरूरी नहीं कि उसे केवल 500 और 1000 के नोटों में संचित किया गया हो. फिर, कुछेक कुछेक अर्थशास्त्रियों का यह भी कहना है कि यह 16,000 करोड़ रुपया पूरा-का-पूरा अमीरों के पास पड़ा काला धन न हो, क्योंकि उन्होंने किसी न किसी माध्यम से, बैंक अधिकारियों से सांठगांठ करके, थोड़ी-थोड़ी मात्रा में करके, गरीब लोगों के जरिये (जिन्हें अर्थशास्त्र की भाषा में मुद्रा ढोने वाला ‘मनी म्यूल’ कहा जाता है) अपने 5001000 रुपये के नोटों में संचित काले धन को बदलकर सफेद बना लिया होगा. संभावना यह भी है कि अपेक्षाकृत साधनहीन गरीब लोग ही जानकारी व माध्यम के अभाव में (जैसे खाता न होने के कारण) अपने 5001000 के नोटों को समय रहते न भुना पाये हों!

लेकिन नोटबंदी के शुरूआती दिनों में सरकार के प्रवक्ताओं द्वारा जोे अनुमान पेश किए जा रहे थे, उनके अनुसार 20 से 30 फीसद तक खारिजशुदा नोटों के बैंकिंग व्यवस्था में न लौटने और इस तरह सीधे-सीधे नष्ट हो जाने का अनुमान लगाया जा रहा था. इतना ही नहीं, इस नष्ट हुए ‘काले धन’ को सीधे सरकार की ‘कमाई’ मानकर, इसके भी चर्चे हो रहे थे कि 3 से 5 लाख करोड़ रुपये के बीच की ‘राष्ट्र’ की इस अप्रत्याशित कमाई को, किस तरह खर्च किया जाना चाहिए. इसके लिए सीधे-सीधे गरीबों में पैसा बांट देने से लेकर, मुफ्त के इन संसाधनों का बुनियादी ढांचे के निर्माण से लेकर कल्याणकारी कार्यों पर खर्च करने तक के सुझाव भी आ रहे थे. इसके बल पर ब्याज की दरें घटाए जाने की उम्मीदें जताई जा रही थीं सो अलग. जबकि यह ‘सरकारी कमाई’ की पूरी धारणा ही अर्थशास्त्र पर आधरित नहीं थी बल्कि केवल जनता को गुमराह करने के लिये थी.

सबसे हास्यास्पद बात यह है कि अब 99 प्रतिशत बड़े नोटों के बैंकों में वापस आने को ही वेंकैया नायडू जैसे भाजपाई (जो अब उप-राष्ट्रपति बन गये हैं) सरकार के लिये नियामत बतला रहे हैं. वे कह रहे हैं कि इसमें आश्चर्य की बात क्या है, बैंकों के पास आई इस धनराशि को अब विकास में खर्च किया जायेगा. जैसे यह भी कोई ‘सरकारी कमाई’ हो, जबकि वास्तव में या तो इन नोटों के बदले नये नोट पहले ही लिये जा चुके हैं, या फिर किसी भी स्थिति में इस धनराशि पर किसी न किसी व्यक्ति या संस्था का मालिकाना है, सरकार का नहीं. हां, एक बात वेंकैया सच कह रहे हैं कि इन नोटों के वापस आने से बैंकों द्वारा अम्बानी-अडाणी को बड़ी-बड़ी राशि का कर्ज दिया जा सका, जबकि उससे कहीं कम राशि में किसानों की कर्जमाफी की बात भी इसके बल पर सोची तक नहीं गई.

अर्थशास्त्रियों ने सरकार के इस तर्क को तो शुरू में ही खारिज कर दिया था कि नोटबंदी से जाली नोटों की समस्या पर कोई असर होगा. नये दो हजार के नोट रिजर्व बैंक द्वारा छापकर जारी करने के कुछ ही दिनों बाद बड़ी मात्रा में नकली दो हजार के नोटों के पकड़े जाने ने इसे सही साबित कर दिया था. लेकिन एक बात और थी कि अर्थशास्त्रियों के अनुसार जाली नोटों से अर्थव्यवस्था को कोई बड़ा नुकसान नहीं होता क्योंकि जाली नोट भी तो असली नोटों की तरह मालों के लेन-देन में चलमुद्रा का काम करते ही हैं. बहुत हुआ तो इससे मुद्रास्फीति का खतरा हो सकता है. ऐसी हालत में रिजर्व बैंक जितने जाली नोटों का अनुमान करता है, उतनी मुद्रा को परिचलन से निकालकर आसानी से स्थिति पूर्ववत् कर सकता है.

दूसरी स्वीकारोक्ति अरुण जेटली ने इन शब्दों में की कि नोटबंदी का लक्ष्य काला धन खत्म करना नहीं था. अब भले ही नोटबंदी की घोषणा करते वक्त प्रधानमंत्री के टेलीविजन प्रसारण में सबसे ज्यादा जोर, काले धन की अर्थव्यवस्था और काले धन पर हमला किए जाने पर था. यहां तक कि नोटबंदी को कालेधन पर सर्जिकल स्ट्राइक तक बताया जा रहा था. अर्थशास्त्रियों ने उस समय भी कहा था कि काला धन नोटों में नहीं होता - मुद्रा काली या सफेद नहीं होती. टैक्स की चोरी करके या भ्रष्टाचार से अर्जित धन काला धन होता है जिसका रिकार्ड कहीं बही-खातों में दर्ज नहीं होता. मगर इस धन को तो विदेश-स्थित बैंकों में जमा करके, भूसम्पत्ति में निवेश करके और यहां तक कि मॉरीशस के बरास्ते फिर भारत में उद्योग-व्यापार में निवेश करके चमकदार सफेद कर लिया जाता है. इस तरह सफेद की गई धनराशि का अच्छा खासा हिस्सा स्टाॅक मार्केट में निवेश के जरिये सेन्सेक्स बढ़ाने में मददगार होता है और खुद सरकार उसकी तारीफों के पुल बांधती रहती है. इसीलिये चुनाव से पहले विदेश से काला धन स्वदेश लाने के बारे में चाहे जितनी डींग हांकी गई हो, सत्ता में आने के बाद सरकार ने विदेश-स्थित बैंकों में पड़े भारतीयों के काले धन की एक पाई भी जब्त नहीं की, न इसके लिये कोई गंभीर प्रयास किया. अगर सरकार को काले धन के संचय के रूप में बेनामी सम्पत्ति को जब्त करना होता, तो इसके लिये मौजूदा कानून और एजेन्सियां पर्याप्त मात्रा में मौजूद थे और इसके लिये नोटबंदी की कोई जरूरत ही नहीं थी.

तीसरी स्वीकारोक्ति 31 अगस्त को जारी किये गये आंकड़े के जरिये हुई जिसमें कहा गया कि 2017 के अप्रैल-जून की तिमाही में, यानी वर्तमान वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि की दर गिरकर 5.7 प्रतिशत पर आ गई है. तुलनात्मक रूप से पिछले साल इसी तिमाही में वृद्धि की दर 7.9 प्रतिशत थी. नोटबंदी के प्राथमिक परिणामों की आंच तो पिछले वित्तीय वर्ष की अंतिम तिमाही यानी जनवरी-मार्च 2017 में ही नजर आने लगी थी जब वृद्धि दर घटकर 6.1 प्रतिशत रह गई थी. यानी नोटबंदी के बाद से वृद्धि दर घटती जा रही है यह सरकारी आंकड़ों से ही स्पष्ट है. अब सरकारी मशीनरी और अमित शाह इस गिरावट को महत्वहीन साबित करने के लिये बयान-पर-बयान दे रहे हैं कि इसके पीछे ‘तकनीकी कारण’ हैं, मगर वे इस पर विस्तार से कुछ नहीं कह रहे हैं. दबी जुबान से या घुमा-फिराकर कुछ सरकारी विश्लेषक इसे जीएसटी लागू करने का शुरूआती नकारात्मक असर मानने तक तैयार हैं, मगर इसके लिये कोई सरकारी एजेन्सी नोटबंदी को जिम्मेवार ठहराने के लिये तैयार नहीं है. ‘एक झूठ को सौ बार बोलो तो वह सच हो जाता है’ के फासिस्ट तर्क को लागू करते हुए अमित शाह कह रहे हैं कि हमने बड़ी मेहनत से नोटबंदी के जरिये भारतीय अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया है.

वास्तव में वृद्धि दर इससे कहीं ज्यादा गिरी है और अभी उसके संभलने के आसार नहीं हैं. पहली बात तो अमित शाह यह कहकर अपने आपको सांत्वना दे रहे हैं कि यूपीए सरकार के राज में 2013-14 में वृद्धि दर 4.7 प्रतिशत पर पहुंच गई थी, उससे तो यह ज्यादा है! लेकिन वे झूठ बोल रहे हैं क्योंकि 4.7 प्रतिशत का आंकड़ा अनुमानित था जबकि संशोधित वृद्धि दर 6.5 प्रतिशत मापी गई थी. दूसरी बात, मोदी सरकार ़ने आते ही सकल घरेलू उत्पाद को नापने का तरीका भी बदल दिया है और उसका आधार वर्ष भी 2004-05 के बजाय 2011-12 को बना दिया है. अर्थशास्त्रियों के अनुसार 2011-12 वह वर्ष था जब मुद्रास्फीति सबसे ज्यादा थी. इसका अर्थ यह हुआ कि अब जो मुद्रास्फीति का आकलन होता है वह वास्तविक से कम होता है और वृद्धि दर का आकलन वास्तविक से ज्यादा होता है. इसकी वजह से 2014-15 में (मोदी शासन के पहले वर्ष में) जहां पुरानी पद्धति से मापी गई वृद्धि की दर 7.2 प्रतिशत थी, वह नई पद्धति से 7.5 प्रतिशत हो गई. यह विशुद्ध रूप से आंकड़ों की बाजीगरी है. रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन, जिन्होंने नोटबंदी का विरोध किया था, के अनुसार यह नई पद्धति दोषपूर्ण है क्योंकि इसमें किसी आर्थिक गतिविधि को दो बार गिन लिये जाने की संभावना है. नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ पब्लिक फाइनेंस एंड पाॅलिसी की कंसल्टेंट राधिका पांडे के अनुसार वास्तव में वृद्धि दर कम-से-कम 2 प्रतिशत और गिरी होती अगर इस बीच वन-रैंक-वन-पेंशन और सातवें वित्त आयोग की सिफारिशों को लागू न किया गया होता.

काले धन के खिलाड़ियों पर तो नोटबंदी का कम-से-कम सीधे कोई असर नहीं पड़ा, न राष्ट्र को इससे कोई कमाई हुई. मगर नोटबंदी के चलते नए नोट छपवाने में भारी खर्च हुआ. इसके अलावा, बैंकों को अपने हाथों में पुराने नोटों में जमा हो गई भारी और निवेश के लिए अनुपलब्ध राशि पर भारी ब्याज भी देना पड़ा, जिसकी एक हद तक भरपाई रिजर्व बैंक को करनी पड़ी. इन दोनों मदों को मिलाकर सरकार का 30,000 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च होने का अनुमान है. इसमें अगर, नए नोटों के लिए एटीएम मशीनों को रीकैलीबरेट. करने पर आया करीब 25,000 करोड़ रुपये का खर्च और जोड़ दिया जाए तो, कुल खर्च 55,000 करोड़ रुपये हो जाता है, जो नोटबंदी में हुई तथाकथित 16,000 करोड़ रुपये की कमाई के तीन गुने से ज्यादा हो जाता है. इसके साथ नोटबंदी के लगभग दो महीनों में ओवरटाइम और छुट्टी के दिनों बैंक कर्मचारियों द्वारा किये गये काम का भत्ता जोड़ दीजिये तो वह भी काफी बड़ी राशि होगा. कुल मिलाकर देखिये तो नोटबंदी देश के लिए बहुत महंगी विफलता साबित हुई है.

काला धन, नकली नोट, आतंकवाद - सारे तर्क गलत साबित होने के बाद मोदी-जेटली जोड़ी और उनके चट्टे-बट्टे नोटबंदी के नये मकसद गिनाने लगे. सबसे पहले तो यह दावा किया गया कि नोटबंदी के असर से टैक्स देने वालों की संख्या बहुत बढ़ गई है जो कि जांच-परख में झूठ निकली. दरअसल टैक्स देने वालों में हुई नये लोगों की वृद्धि के बजाय कुल टैक्सदाताओं को ही अतिरिक्त संख्या बताया जा रहा था और लोगों को गुमराह करने के लिये गलत आंकड़े पेश किये जा रहे थे. दूसरी बात यह कही गई कि इससे कैशलेस या लेस-कैश इकनाॅमी में जाने में मदद मिली है यानी इलेक्ट्राॅनिक लेनदेन बढ़ा है. लेकिन डेबिट-क्रेडिट कार्ड, पीओएस जैसी मशीनों के बल पर इस किस्म के लेनदेन में जो प्रगति हासिल हुई भी है तो वह नोटबंदी के बिना भी हासिल हो सकती थी और हो भी रही थी. बाकी भारत जैसी नकदी लेनदेन वाली अर्थव्यवस्था को, जबर्दस्ती कैशलेस तो बनाया नहीं जा सकता. यह एक किस्म का आर्थिक आपातकाल या तानाशाही थोपना हो जायेगा. जैसे मध्याह्न भोजन योजना में आधार कार्ड को अनिवार्य करने की वजह से अकेले बिहार में 14 लाख बच्चों को मध्याह्न भोजन से वंचित कर दिया गया है. ऐसा सभी राज्यों में हो रहा है.

दुनिया में किसी भी देश में ऐसी नोटबंदी नहीं हुई होगी जिसके चलते 103 आम लोगों की जानें गई हों. यानी जिसे हत्यारी नोटबंदी तक कहा जा सके. यहां तक कि नोटबंदी के चलते बढ़े काम के बोझ से जो तनाव पैदा हुआ उससे बैंक कर्मचारियों तक की जानें गई हैं! नोटबंदी से सर्वाधिक पीड़ित आम जन ही हुआ है. करीब 50 दिनों तक जनता पैसे-पैसे के लिए तरस गई थी. काले धन और मुनाफाखोरों पर तो अंकुश लगा नहीं लेकिन छोटे-मोटे रोजगार करने वालों, छोटे दुकानदारों, असंगठित क्षेत्र में संलग्न कामगारों की दिक्कतें नोटबंदी ने बढ़ा दीं. छोटे उद्यमियों को नकदी की तंगी से जो झटका लगा है, उससे उबरने में उन्हें काफी समय लग सकता है. लगभग चार लाख छोटे उद्योग बंद हो गये. नोटबंदी से देश की अर्थव्यवस्था का जो नुकसान हुआ, उसका अनुमान ‘सेंटर फाॅर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनाॅमी’ ने लगभग 1.5 लाख करोड़ रुपये लगाया है.

नोटबंदी का सबसे बुरा प्रभाव अर्थव्यवस्था पर बेरोजगारी के रूप में आया जिसकी मार शुद्ध रूप से गरीबों ने झेली. आॅल इंडिया मैन्युफैक्चरर्स आॅर्गनाइजेशन (एआईएमओ), जो लघु, छोटे एवं मंझोले पैमाने की तीन लाख औद्योगिक इकाइयों का प्रतिनिधि संगठन है, द्वारा किये गये एक अध्ययन के अनुसार नोटबंदी के बाद से पहले 34 दिनों के अंदर लघु उद्योगों में 35 प्रतिशत रोजगार का नुकसान हुआ. इसकी वजह से रेवेन्यू में भी 50 प्रतिशत का नुकसान हुआ. अध्ययन के अनुसार मार्च के अंत तक रोजगार में गिरावट 60 प्रतिशत तक और रेवेन्यू में गिरावट 60 प्रतिशत तक पहुंचने का अनुमान है. एक अनुमान के अनुसार नोटबंदी के फलस्वरूप 15 लाख नौकरियां गईं जिसके फलस्वरूप साठ-सत्तर लाख लोगों को गुजर-बसर की तकलीफ झेलनी पड़ी. सबसे बुरी स्थिति आकस्मिक मजदूरों की रही. सर्वविदित तथ्य है कि नोटबंदी की सबसे बुरी मार कृषि समेत हमारी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर पड़ी है, जो देश में तीन-चैथाई रोजगार का स्रोत है. और यह मार अभी तक जारी है.

ऐसा होना अनिवार्य था. अर्थशास्त्री प्रो. अरुण कुमार ने नोटबंदी की तुलना किसी स्वस्थ मनुष्य के शरीर से 86 प्रतिशत खून यकायक निकाल लेने और फिर बूंद-बूंद कर, थोड़ी-थोड़ी मात्रा में महीनों की अवधि में उसे पूरा करने से करते हुए कहा था कि नकदी लेन-देन पर निर्भर अर्थव्यवस्था का वही परिणाम होने वाला है जो ऐसे व्यक्ति का होता है. और भारत की बड़ी आबादी आज भी नकदी लेन-देन पर निर्भर है. एक अध्ययन के अनुसार छोटे-मंझोले उद्योग क्षेत्र में भले ही नोटबंदी की वजह से मंदी छाई हो, डिजिटल अर्थतंत्र में प्रवेश कर चुके अमीरों की जीवन शैली में इससे कोई खास फर्क नहीं आया. नोटबंदी के बाद कारों की बिक्री में उतना फर्क नहीं देखने को मिला, मगर दुपहिये की बिक्री उल्लेखनीय मात्रा में घट गई.

नोटबंदी की वजह से किसानों को नकदी की कमी से काफी समय तक जूझना पड़ा. खाद-पानी, उपज को बाजार तक पहुंचाने जैसे जरूरी कामों के लिए भी पैसे की कमी महसूस हुई. मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में तो किसानों को दूध-टमाटर सड़क पर फेंकने पड़े. दूसरी ओर महंगाई दर में उछाल देखने को भी मिला. खासकर सब्जी-दाल के बाजार तक नहीं पहुंचने के चलते उपभोक्ताओं के साथ ही काश्तकारों को भी परेशानी हुई क्योंकि नकदी के अभाव से पूरी सप्लाई चेन टूट गई. इससे किसानों की ऋणग्रस्तता में भी इजाफा हुआ. दरअसल कर्जमाफी की जो बात इतनी जोरशोर से उठी है, उसके पीछे एक कारण नोटबंदी भी है. चूंकि नोटबंदी केन्द्र सरकार ने की इसलिये कर्जमाफी का आर्थिक व्यय भी उसको ही वहन करना चाहिये, मगर वह इसे राज्य सरकारों की जिम्मेवारी बताकर अपने कर्तव्य से इतिश्री कर ले रही है. जबकि अर्थशास्त्राी प्रो. अरुण कुमार का कहना है कि कुल मिलाकर प्रधानमंत्री के नोटबंदी के फैसले से लोगों को हुई परेशानी के लिए सरकार को खेद व्यक्त करना चाहिए. ु